Book Title: Jinabhashita 2005 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 35
________________ सूरज तुम एकान्त चाहते हो क्या तुम्हारा प्रकाश में रहने देगा? अकेले तुम भले भीड़ से दूर रहो पर भीड़ तुम्हें दूर न रहने देगी क्योंकि सूरज कविता लोग पूछते हैं तुम्हें जाना कहाँ है, क्या पाना है, ० तुम्हारा पुण्य तुम्हारे करीब आया है इसलिए भीड़ तुम्हारे करीब है करीब है। ( आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य) Jain Education International ० मुनिश्री चन्द्रसागर जी क्या कुछ करना - धरना नहीं है? मैं सोचता हूँ कहीं तो जाना नहीं है हाँ पाना अवश्य है उसको, जो मेरा अपना है उसके लिये कुछ करने धरने की आवश्यकता नहीं है । उसे तो विराम से ही आराम से ही अपने को अपने में समा लेने से ही पाया जा सकता है। इंजी. जिनेन्द्र कुमार जैन पद्मनाभ नगर, भोपाल ज्ञान सूर्य वह गुरु महान् अस्त हो रहे ज्ञान सूर्य ने सोचा था इक दिन की शाम । मेरे ढल जाने के बाद कौन करेगा मेरा काम ॥ • ० मुनि श्री प्रणम्यसागर जी महाराज अंधकार मय मोह जगत में, ज्ञान प्रकाश भरेगा कौन? मेरे जीवन की बुझती, ज्योति को और जलाये कौन? सब अयोग्य कातर दिखते हैं कोई न दिखता है निष्काम ॥ १ ॥ मेरे ढल जाने...... धर्म महा है पाथ कठिन है, किसको इसका रहस कहें? निष्ठा का जो दीप जलाये, ज्ञान चरित में लीन रहे । तभी एक विद्याधर आया दूर कहीं से गुरु के धाम ॥ २ ॥ फिर गुरु ने शिक्षा दीक्षा दे, इच्छा - जल को जला दिया। स्वयं शिष्य के चरणों में आ, बैठ अहं को गला दिया। खूब जले विद्या के दीपक, दुआ ज्ञान की आठों याम ॥ ३ ॥ मेरे ढल जाने...... तुम प्रकाश के पुंज बनो, अरु तुम्हीं बनो सूरज श्रीमान । तुम्हीं चलाओ सबको पथ पे। और चलो खुद हे धीमान । मैं निश्चिन्त हुआ विद्या मुनि, जीवन सफल बना वरदान ॥ ४ ॥ मेरे ढल जाने..... गुरुकुल बना के कुल गुरु बनना वचन नहीं प्रवचन देना छोटा बड़ा भेद को तज के तुम सबको अपना लेना । तुम सबको अपना लेना यूँ कहकर फिर विदा हो गया ज्ञान सूर्य वह गुरु महान् ॥ ५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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