Book Title: Jinabhashita 2005 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2531 श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र नवागढ़ (महाराष्ट्र) श्रावण, वि.सं. 2062 अगस्त, 2005 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुकृपा से बाँसुरी बना, मैं तो ठेठ बाँस था • आचार्य श्री विद्यासागर जी पानी, बिन कुछ भी लिए। चौथे दिन १० बजकर ५० मिनिट पर दिन में वह समय आया, इस प्रकार का, जिसप्रकार दीपक में तेल धीरे-धीरे करके जलता है। उन्हें इस बात की कोई अतिशय क्षेत्र बाधा नहीं। आपकी जागृति कैसी है, हम जानना चाहते हैं? कुण्डलपुर (म.प्र.) में आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के योग उपयोग में भेद बताते हुये कहा कि योग अपने आश्रित 32वें समाधि दिवस समारोह में अपने गुरु के प्रति मार्मिक नहीं. उसमें चंचलता है. उपयोग स्थिर है. दढ है। आयर्वेद का उद्गार व्यक्त करते हुये परमपूज्य संतशिरोमणि आचार्य ज्ञान उन्हें था। वात-पित्त के विषय में जानकारी रखते थे। श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा- भारतवर्ष में समयसार आदि ग्रन्थों का अध्ययन पठन-पाठन, अनुभूति राजस्थान ऐसा प्रदेश है जहाँ रेत के टीले गगन को चूमते प्रतिपल का कार्यक्रम था। चोटी के विद्वान आयें या बालक, हैं। आँधी चल जाय तो ये टीले यात्रा भी करते हैं । सौ-सौ कठिन से कठिन विषय को सहज सरल भाषा में अभिव्यक्त फोट केटीले एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाते हैं, कर देना वायें हाथ का खेल था। वर्षों की समस्याओं का कहीं-कहीं अच्छी वर्षा होती, तो कुछ क्षेत्रों मिनटों में समाधान दे देना उनकी खबी रही। उन्हें विकल्प था जैसलमेर,बाडमेर, बीकानेर में कम (अल्प) वर्षा होती। कि ज्ञानीजन, आत्मतत्त्व बतानेवालों की कमी होती जा रही कॅए की ओर पानी भरने, दो लोगों को साथ जाना होता, है। आना-जाना लगा है। ये काया हमेशा बनी नहीं रहती. जिसमें एक तो भारी लम्बी रस्सी लेकर चलता, क्योंकि इसकी यात्रा चलती रहती है। तेल की भाँति आयकर्म का 100-200 फुट गहराई तक पानी निकालते-निकालते क्षरण होना अनिवार्य है। आयुकर्म की पहचान सिद्धान्त ग्रंथों बदन का पानी निकल जाता। जिसके यहाँ टाँका बना में बताई है। श्वास और उच्छवास पुद्गल की परिणति है। होता. छत का पानी संग्रहित करके नीचे स्थान पर संग्रहित आयकर्म तेल की भाँति जलता. मनन प्रवचन आदि चलते हो जाता। वर्ष भर उसी का उपयोग करते । गुरुजी के साथ रहते। भीतर खर्च होता. बाहर के कार्य सम्पादित होते जाते। विहार (पदयात्रा) करने का आनंद ही अलग था। वे राग-द्वेष से प्रेरित होकर सांसारिक प्राणी जन्मा। जैसे किसी जल्दी नहीं चल पाते थे, उन्हीं के साथ चलना पड़ता था। यंत्र में चाक चलना प्रारम्भ करता. वैसे ही ये पाँचों इन्द्रियाँ भीषण गर्मी के दिन थे। चार वर्षों से वर्षा न के बराबर अपने कर्म में लग जातीं। शरीर के माध्यम से तप किया जाता। (अल्प वर्षा) हुई। उन्हीं दिनों ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या इसके माध्यम से आयकर्म के थपेडे पडते। आग पर रखने पर (1 जून 1973) को नसीराबाद (राज.) में सल्लेखना हुई। भगोने का दध जल्दी तपता, उबलने लगता। भगोना नहीं ग्रीष्मकाल में, जिसे सल्लेखना हेत जघन्यकाल कहा उबलता, दूध उबलता है। बाहरी प्रकृति का प्रकोप अंतिम जाता है। दीवारें प्रात: 8बजे ऐसी लगती जैसे सिगड़ी के समय तक उन्हें डिगाने में समर्थ नहीं रहा। सावधानीपर्वक पास रखी गईं हों। दीवारों से टिककर नहीं बैठ सकते । प्रभु। साधना चलती रही। महिनों-महिनों ऐसे व्यतीत हो जाते, से प्रार्थना करता था, गुरुजी की सल्लेखना होना निश्चित उनके चरणों में कभी घडी. घंटों के समान नहीं लगी। उन्होंने है. टल नहीं सकती। उनका शरीर कोमल काया, अपने जीवन में कितनों को पढाया और संयमित जीवन प्रदान वृद्धावस्था, हड्डी-हड्डी दिखाई देती। पूरे शरीर में झुरियाँ कराया। मेरा नम्बर अंतिम था। जीवन में कौन से पुण्य का आ चकी, पेट और पीठ की मैत्री हो चुकी थी। शरीर पूरा अंश (टकडा) मिल गया और वह फल गया. उन्होंने अपना अस्थि-पंजर के समान। आयुकर्म अपनी गति से चलता काम कर दिया। है। इतनी भीषण गर्मी में आहार के लिये निकलते । आहार शब्दों की भाषा और भावों की भाषा में बहुत अन्तर है। में मात्र पेय (रस), अन्न त्याग तो ८-९ माह पूर्व हो गया। जिस तरह संगीत को कोई भी भाषा जाननेवाले समझ लेते हैं, था। भावना भाते कछ पेय (रस) अन्दर पहुँच जाय। उठ इसी तरह अध्यात्मनिष्ठ व्यक्ति के पास भी कोई भी कन्नड़, जायें, तो बैठने की हिम्मत नहीं। इतने पर भी वाणी खिर । बुन्देलखण्डी, मराठी भाषी आ जावे, वे उसे अध्यात्म से जाती, तो अमृत की झड़ी लग जाती। कवि तो वे थे ही। ओतप्रोत कर देते। उनको तो जिनवाणी की सेवा का प्रतिफल मिल चुका था। रात-दिन आराधना चलती।३ दिन यू ही निकल गये बिना "गुरुकृपा से बाँसुरी बना, मैं तो ठेठ बाँस था।" For Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बांस बैलों को हाँकने के काम आता है, वैसा लट्ठमार | वृद्धावस्था में अप्रमत्त होने की सीख हमें आचार्य ज्ञानसागर था में, एक समय पर। उस बांस में छेद डालकर बांसुरी | जी से प्राप्त होती। आज के इस दिन को आचार्य ज्ञानसागर बनाकर बजानेवाले वही थे। बांसुरी बजानेवाले कौन-से छेद जी की पुण्यतिथी के रूप में याद करते। सुनते हैं कि 32 वर्ष पर मध्यमा, कनिष्ठा, अनामिका लगाते। अंगुष्ठ भी कार्य | उन्हें इस पुनीतकार्य को किये हो गया है। ३२ वर्ष बहुत बड़ा * करता। पांचों अंगलियों के माध्यम से बजाना होता। समय | काल है। समझ नहीं आता इतना समय (काल) निकल पर क्रम से बजाया जाता। हवा पास होती तो एक लय बन गया, आगे भी निकलेगा। अध्यात्म के साथ गुरुकृपा ही जाती। वे स्वर सभी को कर्णप्रिय हो गये। वे स्वर कर्णप्रिय | महान मानी जाती। आचार्य गरु को बार-बार प्रणाम। शेष भले हों, स्वर को लानेवाले की बात अलग है। हम जैसे ठेठ | कार्य जो बचा, आपके परोक्ष आदेश से सम्पन्न हो। ऐसे बांस की ओर उनकी दृष्टि गई, यह उनका उपकार है। महान् आचार्य को एक-एक पल याद करूँ, देखता रहूँ, जानेवाले कैसे-कैसे कार्य कर जाते । दुनिया उनको पहचानती। | आगे भी देखें । हाथ और उंगलियों के स्पर्श से स्वर निकलता यहाँ शिल्पी तरणि ज्ञानसागर गुरु,तारो मुझे ऋषीश। का ज्ञान काम करता। एक ऐसे शिल्पी का जिन्होने बांस को करुणा कर करुणा करो, कर से दो आशीष ।। बांसुरी बना बजा दिया और प्रतिफल में कुछ भी नहीं मांगा। | प्रस्तुति : जयकुमार'जलज' असंजदं ण वंदे धरम चन्द्र बाझल्य जून 2005, जिनभाषित पत्रिका में पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया एवं पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन के लेख क्रमशः 'यशस्तिलक चम्पूकार' सोमदेव मूलसंघीय नहीं एवं 'साधु-धर्म' महत्त्वपूर्ण लेख हैं। कैसे मुनि वंदनीय हैं ? इस विषय पर दोनों विद्वानों की शास्त्रोक विवेचना में विरोध हैं। एक ओर जहाँ कटारिया जी ने कुन्दकुन्द स्वामी के दर्शनपाहुड की 'असंजदं ण वंदे' इत्यादि गाथा (26) का उद्धरण देते हुए असंयमी मुनि की वंदना का निषेध किया है एवं सोमदेव सूरी के इस कथन को कि 'मुनि का वेष मात्र पूजनीय है, नाम निक्षेप से जो मुनि हैं वे वंदनीय हैं', को युक्तिपूर्वक आगमविरुद्ध सिद्ध किया है। दूसरी ओर पं. नरेन्द्रप्रकाश जी लिखते हैं, 'यहाँ हमारा स्पष्ट मन है कि शिथिलाचार के बारे में साधुगण स्वहित की दृष्टि से स्वयं विचार करें। हम श्रावकों के लिए तो सभी साधु वंदनीय हैं। साधु का शिथिलाचार साधु के लिए अहितकर है श्रावकों के लिए नहीं। श्रावक तो यदि स्थापना निक्षेप से भी उनकी पूजा-वंदना करता है तो भी उसका कल्याण ही होता है' ये विचार गले नहीं उतरते हैं। अब में परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के उस प्रवचनांश का जो नवम्बर /दिसम्बर २००४ की 'वीतराग वाणी' में प्रकाशित हुये थे का उल्लेख करना नितांत आवश्यक समझता हूँ , 'दीन-हीन होकर किसी को नमोऽस्तु मत करो, इससे पाप का समर्थन हो जावेगा। विवेक रखकर प्रणाम करो। भेषमात्र, धर्म के अभाव में, गंधहीन फूल की तरह है। जो परम्परा धर्म की पुष्टि नहीं करती वह परम्परा नहीं मानी जाती। उसे दूर से ही त्याग कर देना चाहिए। आज धर्म का बचाव करना बहुत कठिन हो गया है । कर्तव्य की परिधि में रहकर यदि कुछ नहीं कहा गया, तो धर्म ड्रब जावेगा, धर्म स्वाश्रित है। जिसके पास धर्म नहीं है वह धर्म का संरक्षण क्या करेगा? क्योंकि स्वयं अंधकार में रहकर किसी को प्रकाश नहीं दिया जा सकता' मझे आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया के विचार ही 'असंजदं ण वंदे' आ. कुन्दकुन्द स्वामी के उपदेश के अनुरुप उचित प्रतीत होते हैं। ए-92, शाहपुरा, भोपाल अगस्त 2005 जिनभाषित 1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 अगस्त 2005 वर्ष 4, अङ्क7 मासिक जिनभाषित अन्तस्तत्त्व सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन . . प्रवचन : गुरुकृपा से बांसुरी बना, मैं तो ठेठ बाँस था आ.पृ.2 कार्यालय : आचार्य श्री विद्यासागर जी ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा . सम्पादकीय : वर्षायोग : साधुता की चाह के चार माह भोपाल-462 039 (म.प्र.) लेख फोन नं. 0755-2424666 • मुनि, आर्यिका और श्रावक के आचार मार्ग : सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री सहयोगी सम्पादक • क्या ऋषिमंडल स्तोत्र दिगम्बर परम्परा का है? पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, :पं मिलापचंद जी कटारिया (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा • बोनचाईना की सच्चाई डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर क्षुल्लक धैर्यसागर महाराज डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत • राजा रामचन्द्रजी के राज्य में सती सीता प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ : ब्र. शान्तिकुमार जैन डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर • आचार्य समन्तभद्र और उनकी स्तुतिपरक रचनाएँ : प्राचार्य पं. निहालचन्द्र जैन शिरोमणि संरक्षक शाकाहार : एक जीवन्त आहार श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी : डॉ. चिरंजीलाल बगड़ा (आर.के. मार्बल) किशनगढ़ (राज.) जिज्ञासा-समाधान : पं. रतनलाल बैनाडा . प्रतिक्रिया : असंजदं ण वंदे : धरमचंद बाझल्य श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर . संस्मरण : ईमानदार इन्सान का इम्तिहान : ब्र. शान्तिकुमार जैन प्रकाशक परामर्श : श्रीमती सुशीला पाटनी सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, • औलाद के दुश्मन आगरा-282002 (उ.प्र.) • सन्तान फोन : 0562-2851428, 2852278||. प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन के 15 सूत्रीय सुझाव . आचार्य मेरूभूषण जी का राजनेताओं का पत्र सदस्यता शुल्क • कविताएँ शिरोमणि संरक्षक 5,00,000 रु. . सूरज : मुनिश्री चन्द्रसागर जी आ.पृ. 3 परम संरक्षक 51,000 रु. • ज्ञान सूर्य वह गुरु महान : मुनिश्री प्रणम्यसागर जी आ.पृ. 3 संरक्षक 5,000 रु. • कविता :: इंजी. जिनेन्द्र जैन आ.पृ. 3 आजीवन 500 रु. • समाधि : डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' वार्षिक 100 रु. • कुण्डलपुर : मनोज जैन 'मधुर' 6 एक प्रति 10 रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। 11, 14, 30-32 . समाचार लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिए न्याय क्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वर्षायोग : साधुता की चाह के चार माह धर्मरूपी पथ के यात्रियों के लिए वर्षाऋतु के चार मास इस सुखद सूचना के साथ आते हैं कि अब साधुजन चार मास तक एक ही स्थान पर रहते हुए वर्षायोग का समय आत्मध्यान में रत रहते हुए व्यतीत करेंगे। गृहस्थों, श्रावकों के लिए भी इन चार माहों में साधुसंगति, सान्निध्य एवं उनके श्रीमुख से धर्मश्रवण के लिए सुअवसर प्राप्त होगा। वह साधुचर्या को निकटता से देखेगा, उसकी सराहना करेगा, गणग्रहण का भाव रखेगा तथा गुणग्रहण के लिए प्रयत्नशील भी होगा। अतिथिसंविभाग व्रत का पालन करते हए दान की पुनीत भावना से औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान और आहारदान देगा। वैयावृत्त्य की भावना रखते हुए साधुओं की वैयावृत्ति करेगा। शुभभावनाओं और शुभकार्यों के प्रतिफल स्वरूप उसे सातिशय पुण्य की प्राप्ति होगी। इस पंचमकाल में जब साक्षात् जिनेन्द्र देव उपस्थित नहीं हैं, जिनमुखोद्भूत दिव्यध्वनि श्रवण के लिए अवसर नहीं है, ऐसे में यदि जिनेश्वर के लघुनन्दन दिगम्बर गुरु मिल जायें तो इससे अधिक पुण्य का फल और क्या होगा? वैसे भी निर्ग्रन्थ मुद्रा ही तो मोक्षमार्ग है। इस विषय में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने 'अष्टपाहुड' के 'सूत्र प्राभृतम्' गाथा १० में कहा है कि; "णिच्चेलपाणिपत्तं उपडद्रं परम जिणवरि देहि। एक्को हि मोक्खमग्गो सेसा य अमग्गया सव्वे॥" अर्थात् तीर्थंकर परमदेव ने नग्नमुद्रा के धारी निर्ग्रन्थमनि को ही पाणिपात्र आहार लेने का उपदेश दिया है। यह एक निर्ग्रन्थ मुद्रा ही मोक्षमार्ग है, इसके सिवाय सब अमार्ग हैं अर्थात् मोक्ष के मार्ग नहीं हैं। साधुजन अपनी साधुता को सुरक्षित रखने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि का विशेष ध्यान रखते हैं। अन्याय से उपार्जित द्रव्य अनिष्टकर होता है, कुत्सित क्षेत्र पीड़ा कारक होता है, बुरा समय पतन की ओर ले जाता है और खोटे भाव कुगति की ओर ले जाते हैं। अतः शुद्धता का ध्यान और परिपालन अपेक्षित भी है, इष्ट भी है और अपरिहार्य भी। शुद्धता से ही साधुता आती है। क्षेत्र कैसा हो? यह ध्यान साधु को अवश्य रखना पड़ता है। वर्षायोग में क्षेत्र शुद्धि आवश्यक है। क्षेत्रशुद्धि के विषय में मूलाचार के 'समयसाराधिकार' में कहा गया है कि; जत्थकसायुप्पत्तिरभत्तिंदियदारइत्थिजण बहुलं । दुक्खमुवसग्गबहुलं भिक्खूखेत्तं विवजेज॥९५१ ।। अर्थात् जहाँ पर कषायों की उत्पत्ति हो, भक्ति न हो, इन्द्रियों के द्वार और स्त्रीजन की बहुलता हो, दु:ख हो, उपसर्ग की बहुलता हो उस क्षेत्र को मुनि छोड़ दें। इसका तात्पर्य यह है कि जिस क्षेत्र में कषायों की उत्पत्ति होती हो, भक्ति-आदर का अभाव हो अर्थात लोगों में शठता की बहलता हो, जहाँ पर चक्ष आदि इन्द्रियों के लिए राग के कारणभूत विषयों की प्रचुरता हो, जहाँ पर श्रृंगार-आकार, विकार, विषय, लीला, हावभाव, नृत्य, गीत, वादित्त, हास्य, उपहास आदि में तत्पर स्त्रियों का बाहुल्य हो, जहाँ पर क्लेश अधिक हो एवं जिस क्षेत्र में बहुलता से उपसर्ग होता हो, ऐसे क्षेत्र का मुनि सम्यग्दर्शनादि की शुद्धि के लिए परिहार कर दें। साधुओं के लिए उपयुक्त क्षेत्र वही है जहाँ वैराग्य की अधिकता हो, इस विषय में 'मूलाचार' का कथन है कि, | गिरिकंदरं मसाणं सुण्णासारं च रुक्खमूलं वा। ठाणं विरागबहुलं धीरो भिक्खु णिसेवेऊ॥९५२॥ अर्थात् धीरमुनि पर्वत की कन्दरा, श्मसान, शून्य मकान और वृक्ष के मूल ऐसे वैराग्य की अधिकता युक्त स्थान का सेवन करें। साधु के लिए वर्जित स्थान इस प्रकार बताये हैं, जिस क्षेत्र में भक्ति-आदर क Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिवदिविहूणं खेत्तं णिवदी वा जत्थ दुट्ठओ होज्ज । पव्वज्जा च ण लब्भइ संजमघदो य तं वज्जे ॥ ९५३ ॥ णो कथदि विरदाणं विरदीणमुवासयह्मि चेट्टेदुं । तत्थ णिसेज्जउवट्टणसज्झायाहारवोसरणे ॥ ९५४॥ मूलाचार अर्थात् राज से हीन क्षेत्र अथवा जहाँ पर राजा दुष्ट हो, जहाँ पर दीक्षा न मिलती हो और जहाँ पर संयम का घा हो वह क्षेत्र छोड़ दें। आर्यिकाओं के उपाश्रय में मुनियों का रहना उचित नहीं है । वहाँ पर बैठना, उद्वर्तन करना, स्वाध्याय, आहार और व्युत्सर्ग भी करना उचित नहीं है। वह उचित क्यों नहीं है, इस विषय में 'मूलाचार' में बताया है कि, होदि दुविहा ववहारदो तथा च परमट्ठे । पयदेण य परमट्ठे ववहारेण य तहा पच्छा ।। ९५५ ।। अर्थात् व्यवहार से तथा परमार्थ से दो प्रकार से निन्दा होती है। पहले व्यवहार से पश्चात् परमार्थ से निन्दा निश्चित ही होती है। यहाँ तात्पर्य है कि आर्यिकाओं की वसतिका में रहने वाले साधु की दो प्रकार की जुगुप्सा होती है, व्यवहार रूप और परमार्थरूप। लोकापवाद होना व्यवहार निन्दा है और व्रतभंग हो जाना परमार्थ जुगुप्सा है। यत्न से अर्थात् पारस्परिक आकर्षण बढ़ाने वाले प्रयास से निश्चित ही परमार्थ जुगुप्सा होती है। उसके बाद व्यवहार से होती है अथवा पहले व्यवहार में जुगुप्सा होती है पश्चात् परमार्थ से हानि होती है। आज हम और हमारा समाज जिस साधु संस्था को प्रश्नचिन्ह मुक्त अवस्था में देखना चाहते हैं वहाँ यह जरूरी है कि साधु और श्रावक मूलाचार की भावना का समर्थन एवं सम्मान ही न करें अपितु उसे क्रियान्वित भी करें ताकि साधुओं के निर्मल चरित्र पर कोई ऊँगली न उठा सके। साधु-संघ में महिला संचालिका का होना, दिगम्बर मुनियों द्वारा आर्यिकाओं को संघ में ही रहने की जिद करना कदापि उचित नहीं है। कुछ ऐसे भी प्रसंग देखने में आते हैं कि समाज के विरोध के बावजूद कोई-कोई साधु वहीं वर्षायोग स्थापित कर लेते हैं और चार माह तक वे और समाज ३६ की मुद्रा में तने- तने से एक-दूसरे की ओर पीठ किये रहते हैं, यह उचित नहीं है। समाज को अपने झगड़ों में साधुओं को संलिप्त नहीं करना चाहिए। हाँ यदि दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हो जाँय कि हमें विवाद समाप्त करना है और हम गुरुचरणों में बैठकर विवाद समाप्त करना चाहते हैं तब अवश्य साधु को सम्यक् मार्गदर्शन देना चाहिए । इस विषय में पूज्य वर्णी जी की मनोवृत्ति एवं कार्यप्रणाली अनुकरणीय हो सकती है । साधुओं के द्वारा विधान, भवन निर्माण, पंचकल्याणक महोत्सव आदि के आयोजन हेतु प्रेरणा ही नहीं अपितु जिद पकड़ लेना भी उचित नहीं है। समाज अपना कार्य करे और यदि समाज चाहे तो साधु अपना सान्निध्य और शुभाशीर्वाद प्रदान करें, तभी सुखद स्थिति बनेगी। जो साधु इस तरह उत्तेजना पैदा करते हैं कि 'हमारे भक्त देश-विदेश में हैं यदि तुम नहीं करोगे तो हमारे भक्त बाहर से आकर कार्यक्रम कर जायेंगे; फिर तुम्हारी नाक कटे तो मत कहना' उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि काम निकलवाने का यह अंदाज साधुता नहीं है और किसी भी स्वस्थ समाज के लिए उचित भी नहीं है। साधु अपनी प्रेरणा देते समय भी समाज की स्थिति का ध्यान रखें तो काम भी होगा, नाम भी होगा और क्लेश भी नहीं होगा। जो साधु, समाज को सद्बुद्धि आये, इसलिए चार-चार माह तक के २४ घंटे प्रतिदिन के अखण्ड पाठ ठान लेते हैं वे पाठ के प्रति भी आस्था को कमजोर करते हैं; ऐसा मेरा मानना है। शक्तितः तप और शक्तितः त्याग की भावना ही उपादेय है। वर्षायोग का साधु के लिए इसलिए महत्त्व है क्योंकि वह विहार की झंझटों से बचकर अपनी साधना को बढ़ाता है। अधिक समय का अधिक सदुपयोग करता है और श्रावक को घर बैठे साधु-दर्शन, प्रवचन श्रवण, आहार दानादि का संयोग मिल जाता है। वर्षायोग के ग्रहण और त्याग के विषय में 'अनगार धर्मामृत' में पंडित आशाधर जी ने लिखा है कि, Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततश्चतुर्दशी पूर्वरात्रे सिद्धमुनिस्तुती । चतुर्दिक्षु परीत्याल्याश्चैत्त्य भक्तीगुरुस्तुतिम् ॥ ६७ ॥ शान्तिभक्तिं च कुर्वाणैर्वर्षायोगस्तु गृह्यताम् । ऊर्जकृष्णचतुर्दश्यां पश्चादात्रौ च मुच्यताम् ॥६८॥ अर्थात् भक्त प्रत्याख्यान ग्रहण करने के पश्चात् आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि के प्रथम पहर में पूर्व आदि चारों दिशाओं में प्रदक्षिणा क्रम से लघु चैत्त्यभक्ति चार बार पढ़कर सिद्ध भक्ति, योगि भक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति करते हुए आचार्य आदि साधुओं को वर्षायोग ग्रहण करना चाहिए और कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के पिछले पहर में इसी विधि से वर्षायोग को छोड़ना चाहिए। विशेषार्थ : चारों दिशाओं में प्रदक्षिणा क्रम से चैत्यभक्ति करने की विधि इस प्रकार है : पूर्व दिशा को मुख करके 'यावन्ति जिन चैत्यानि' इत्यादि श्लोक पढ़कर ऋषभदेव और अजितनाथ की स्वयंभू स्तुति पढ़कर अंचलिका सहित चैत्त्यभक्ति पढ़ना चाहिए। ऐसा करने से पूर्व दिशा के चैत्यालयों की वन्दना हो जाती है। फिर दक्षिण दिशा में संभव और अभिनंदन जिनकी स्तुतियाँ पढ़कर अंचलिका सहित चैत्यभक्ति पढ़ना चाहिए। इसी तरह पश्चिम दिशा में सुमति जिन और पद्मप्रभ जिन तथा उत्तरदिशा में सुपार्श्व और चन्द्रप्रभ भगवान के स्तवन पढ़ना चाहिए। इस प्रकार अपने स्थान पर स्थित रहकर ही चारों दिशा में भाव - वन्दना करनी चाहिए। उन उन दिशाओं की ओर उठने की आवश्यकता नहीं है। शेष विधि इस प्रकार है, मासं वासोऽन्यदैकत्र योगक्षेत्रं शुचौ व्रजेत् । मार्गेऽतीते त्यजेच्चार्थवशादपि न लङ्घयेत् ॥ ६८ ॥ नभश्चतुर्थी तद्याने कृष्णां शुक्लोपञ्चमीम् । यावन्न गच्छेत्तच्छेदे कथंचिच्छेद माचरेत् ॥ ६९ ॥ (अन. धर्मामृत ९ ) अर्थात् वर्षायोग के सिवाय अन्य हेमन्त आदि ऋतुओं में श्रमणों को एक स्थान, नगर आदि में एक मास तक ही निवास करना चाहिए तथा मुनि संघ को आषाढ़ में वर्षायोग के स्थान को चले जाना चाहिए और मार्गशीर्ष महीना बीतने पर वर्षायोग के स्थान को छोड़ देना चाहिए। कितना ही प्रयोजन होने पर भी वर्षायोग के स्थान में श्रावण कृष्ण चतुर्थी तक अवश्य पहुँचना चाहिए । इस तिथि को नहीं लाँघना चाहिए तथा कितना ही प्रयोजन होने पर भी कार्तिक शुक्ला पंचमी तक वर्षायोग स्थान से अन्य स्थान को नहीं जाना चाहिए। यदि किसी दुर्निवार उपसर्ग आदि के कारण वर्षायोग उक्त प्रयोग में अतिक्रम करना पड़े तो साधु संघ को प्रायश्चित लेना चाहिए। यहाँ यह ध्यातव्य है कि कुछ साधुगण अपने संघ की परम्पराओं के नाम पर चातुर्मास स्थापना करते समय मध्यरात्रि में मौन तोड़ते हुए प्रवचन देते है तथ संघ की व्यवस्था के बारे में बताते हैं, बोलियों के लिए प्रेरित करते हैं तथा बाद में गुरु / आचार्य से प्रायश्चित लेते हैं, क्या यह उचित है? विगत वर्षों (३-४) से यह भी देखने में आ रहा है कि महानगरों में चातुर्मास स्थापित करने वाले संत पूरे नगर की मर्यादा (२० से ५०-६० कि.मी.) तक का संकल्प लेते हैं और बाकायदा कार्यक्रम तयकर पोस्टर छपवाकर जुलूस की शक्ल में एक कालोनी से दूसरी, दूसरी से तीसरी इस तरह पूरे नगर का भ्रमण करते रहते हैं तथा तर्क देते हैं कि यहाँ तो पक्की सड़के हैं, हरित्काय नहीं है अतः चलने में क्या बुराई है ? ऐसा करने से सबको धर्मलाभ मिल जाता है। यह प्रवृत्ति भी वर्षायोग की भावना के विपरीत है। धर्मप्रभावना के लिए धर्मविरुद्ध आचरण उचित नहीं है । वर्षायोग में धर्म की प्रभावना हो, धर्म की अवमानना, विराधना न हो, ऐसे कार्य होना चाहिए। वर्षायोग में निम्नलिखित कार्यक्रम किए जा सकते हैं, Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. सामूहिक देव-शास्त्र-गुरु पूजन। २. साधुओं को आहारदान (स्वयं के द्रव्य से, स्वयं के घर पर) ३. साधुओं की नियमित वैयावृत्ति ४. प्रवचन श्रवण ५. बडे विधानों/पूजन प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन ६. धार्मिक शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन ७. चातुर्मास के मध्य आने वाले पर्यों के विशेष आयोजन ८. निकटस्थ विराजमान साधुओं की वन्दना हेतु यात्राओं के आयोजन ९. अभक्ष्य पदार्थों का त्याग १०. शास्त्र प्रकाशन ११. सामूहिक वाचनाओं, स्वाध्याय, सामायिक आदि के आयोजन १२. तीर्थों के जीर्णोद्धार हेतु संकल्प लेकर दानराशि भिजवाना। ___ इस तरह हम अपने जीवन को साधुसंगति में कृतार्थ करते हुए धर्म के संस्कारों से स्वयं एवं परिवार को संस्कारित कर सकते हैं। वर्षायोग अपने आध्यात्मिक विरासत को समझने का विलक्षण संयोग है जिससे हम स्वयं जुड़ें और जैनत्व की धारा में जन-जन को जोड़ने का प्रयत्न करें। हम साधु भले ही न बन सकें किन्तु हममें साधुता का भाव आ जाये तो जीवन सफल हो जायेगा। डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन समाधि डॉ.सुरेन्द्र जैन 'भारती' कुण्डलपुर मनोज जैन 'मधुर' अपने बड़े बाबा का पर्वत पर धाम। चलो चलें दर्शन को कुण्डलपुर ग्राम। जिसने बड़े बाबा को मन से पुकारा, बाबा ने संकट से उसको उबारा। बनते बिगड़े सभी के यहाँ काम। २ आधि, व्याधि और उपाधि से श्रेष्ठ है समाधि जिसने पायी और जो पायेगा वही भव्य परम सत्य पायेगा। समाधि की साधना सरल नहीं सघन होती है आधि, व्याधि और उपाधि से बचना पड़ता है बचना पड़ता है झूठे मोह-व्यामोह से। समाधि मात्र मुक्ति नहीं मुक्ति के लिए भले ही हो वह भुक्ति तो बिल्कुल नहीं है युक्ति से काम लेना पड़ता है इसमें तब मिलता है वह वर जिसे कहते हैं हम घर स्वाधीन/स्वतंत्र निरालम्ब/निष्कर्म परम पावन। कुण्डल-सा आकार पर्वत ने पाया। देवों ने आ-आ के, अतिशय दिखाया। छवि लगे बाबा की नयनाभिराम । हम सबको अपने ही, कर्मों ने घेरा। काटो बडे बाबा कर्मों का फेरा। दूर नहीं बाबा ये जीवन की शाम। सीएस/१३, इंदिरा कॉलोनी, बागउमरावदुल्हा, भोपाल 6 अगस्त 2005 जिनभाषित Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गतांक से आगे मुनि, आर्यिका और श्रावक के आचारमार्ग 4. कृतिकर्म : देवपूजा हमने मुनिधर्म और गृहस्थधर्म का सामान्य रूप से दिग्दर्शन कराते समय जिस प्रमुख धर्म का जान-बूझकर उल्लेख नहीं किया है, वह है कृतिकर्म । कृतिकर्म साधु और गृहस्थ दोनों के आवश्यक कार्यों में मुख्य है। यद्यपि साधु सांसारिक प्रयोजनों से मुक्त हो जाता है, फिर भी उसका चित्त भूलकर भी लौकिक समृद्धि, यश और अपनी पूजा आदि की ओर आकृष्ट न हो और गमनागमन, आहारग्रहण आदि प्रवृत्ति करते समय लगे हुए दोषों का परिमार्जन होता रहे, इसलिए साधु कृतिकर्म को स्वीकार करता है। गृहस्थ की जीवनचर्या ही ऐसी होती है जिसके कारण उसकी प्रवृत्ति निरन्तर सदोष बनी रहती है, इसलिए उसे भी कृतिकर्म करने का उपदेश दिया गया है। सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री किया जा सकता है, पर तीन बार अवश्य करना चाहिए। यह तो हम आगे बतलानेवाले हैं कि तीन सन्ध्याकालों में जो कृतिकर्म किया जाता है, उसमें सामायिक, चतुर्विंशति-स्तव और वन्दना इन तीनों की मुख्यता है। इसलिए आजकल जिन विद्वानों और त्यागियों का यह मत है कि साधु को प्रतिदिन देव - वन्दना करनी ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है उनका वह मत आगम-संगत नहीं जान पड़ता । तीनों सन्ध्याकालों में किया जानेवाला कृतिकर्म साधु और श्रावक दोनों का एक समान है। अन्तर केवल इतना है कि साधु अपरिग्रही होने से कृतिकर्म करते समय अक्षत आदि द्रव्य का उपयोग नहीं करते और गृहस्थ उसका भी उपयोग करता है । गृहस्थ का कृतिकर्म पर्यायवाची नाम 'मूलाचार' में कृतिकर्म के व्याख्यान के प्रसंग से विनय की व्याख्या करते हुए उसके पाँच भेद किये हैंलोकानुवृत्तिविनय, अर्थविनय, काम-विनय, भयविनय और कृतिकर्म के ‘मूलाचार' में पर्यायवाची नाम दिये हैंकृति - कर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म । इनकी व्याख्या करते हुए वहाँ कहा गया है कि जिस अक्षरोच्चाररूप वाचनिक क्रिया के, परिणामों की विशुद्धि रूप मानसिक क्रिया के और नमस्कारादि रूप कायिक क्रिया के करने से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों का 'कृत्यते छिद्यते' छेद होता है, उसे कृतिकर्म कहते हैं। यह पुण्यसंचय का कारण है, इसलिए उसे चितिकर्म भी कहते हैं। इसमें चौबीस तीर्थंकरों और पाँच परमेष्ठी आदि की पूजा की जाती है, इसलिए इसे पूजाकर्म भी कहते हैं तथा इसके द्वारा उत्कृष्ट विनय प्रकाशित होती है, इसलिए इसे विनयकर्म भी कहते हैं । यहाँ विनय की 'विनीयते निराक्रियते' ऐसी व्युत्पत्ति करके इसका फल कर्मों की उदय और उदीरणा आदि करके उनका नाश करना भी बतलाया गया है । तात्पर्य यह है कि कृतिकर्म जहाँ कर्मों की निर्जरा का कारण है, वहाँ वह उत्कृष्ट पुण्य- -संचय मे हेतु है और विनय गुण का मूल है, इसलिए उसे प्रमादरहित होकर साधुओं और गृहस्थों को यथाविधि करना चाहिए। समय- विचार मोक्षविनय । अर्थविनय, कामविनय और भय विनय ये संसार की प्रयोजक हैं, यह स्पष्ट ही है। लोकानुवृत्तिविनय दो प्रकार की है। एक वह जिसमें यथावसर सबका उचित आदरसत्कार किया जाता है और दूसरी वह जो देवपूजा आदि के समय की जाती है। यहाँ देवपूजा अपने विभव के अनुसार करनी चाहिए यह कहा है (मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा 84 ) । इससे विदित होता है कि गृहस्थ कृतिकर्म करते समय अक्षत आदि सामग्री का उपयोग करता है। वह सामग्री कैसी हो, इसके सम्बन्ध में मूलाचार प्रथम अधिकार के श्लोक 24 की टीका में आचार्य वसुनन्दि कहते हैं, 'जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए गन्ध, पुष्प और धूप आदि जिस सामग्री का उपयोग किया जावे, वह प्रासुक और निर्दोष होनी चाहिए।' इससे भी गृहस्थ कृतिकर्म करते समय सामग्री का उपयोग करता है, इसकी सूचना मिलती है। । आलम्बन करते कृतिकर्म कब किया जाए, इस प्रश्न का समाधान हुए लिखा है कि कृतिकर्म तीनों सन्ध्याकालों में करना चाहिए। वीरसेनस्वामी अपनी धवला (कर्म-अनुयोगद्वार, सूत्र 28) टीका में कहते हैं कि यह तीन बार ही करना कृतिकर्म करने का मुख्य हेतु आत्मशुद्धि है । इसलिए यह विधि सम्पन्न करते समय उन्हीं का आलम्बन लिया जाता है, जिन्होंने आत्मशुद्धि करके या तो मोक्ष प्राप्त कर लिया है या जो अरहन्त अवस्था को प्राप्त हो गये हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु तथा जिन-प्रतिमा और जिनवाणी ये भी चाहिए ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। अधिक बार भी । आत्मशुद्धि में प्रयोजक होने से उसके आलम्बन माने गये हैं। अगस्त 2005 जिनभाषित 7 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह प्रश्न होता है कि देवपूजा आदि कार्य बिना । कृतिकर्म पूरी स्वाधीनता के साथ करना चाहिए, क्योंकि राग के नहीं होते और राग संसार का कारण है, इसलिए कृतिकर्म को आत्मशुद्धि में प्रयोजक कैसे माना जा सकता है ? समाधान यह है कि जब तक सराग अवस्था है, तब तक जीव के राग की उत्पत्ति होती ही है। यदि वह राग लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए होता है, तो उससे संसार की वृद्धि होती है । किन्तु अरिहन्त आदि स्वयं राग और द्वेष से रहित होते हैं। लौकिक प्रयोजन से उनकी पूजा नहीं की जाती है, इसलिए उनमें पूजा आदि के निमित्त से होनेवाला राग मोक्षमार्ग का प्रयोजक होने से प्रशस्त माना गया है। 'मूलाचार' में भी कहा है कि जिनेन्द्रदेव की भक्ति करने से पूर्वसंचित सभी कर्मों का क्षय होता है। आचार्य के प्रसाद से विद्या और मन्त्र सिद्ध होते हैं। ये संसार से तारने के लिए नौका के समान हैं। अरिहन्त, वीतराग धर्म, द्वादशांग वाणी, आचार्य, उपाध्याय और साधु इनमें जो अनुराग करते हैं, उनका वह अनुराग प्रशस्त होता है। इनके अभिमुख होकर विनय और भक्ति करने से सब अर्थों की सिद्धि होती है। इसलिए भक्ति रागपूर्वक मानी गयी है । किन्तु यह निदान नहीं है। निदान सकाम होता है और भक्ति निष्काम। यही इन दोनों में अन्तर है । पराधीन होकर किये गये कार्य से इष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती। दूसरा विशेषण तीन प्रदक्षिणा देना है। गुरु, जिन और जिनगृह की वन्दना करते समय तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करना चाहिए। तीसरा विशेषण तीन बार करना है । प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रिया तीन-तीन बार करनी चाहिए। या एक दिन में जिन, गुरु और जिनगृह आदि की वन्दना कम से कम तीन बार करनी चाहिए, यह इसका भाव है। चौथा विशेषण भूमि पर बैठकर तीन बार अष्टांग नमस्कार करना है । सर्वप्रथम हाथ-पैर धोकर शुद्धमन से जिन मन्दिर में जाकर जिनदेव को बैठकर अष्टांग नमस्कार करें। यह प्रथम बैठकर अष्टांग नमस्कार करना, यह दूसरी नीति है । पुनः नीति है । पुनः उठकर और जिनेन्द्रदेव की प्रार्थना करके उठकर सामायिक दण्डक से आत्मशुद्धि करके तथा कषाय रहित होकर शरीर का उत्सर्ग करके जिनेन्द्रदेव के अनन्त गुणों का ध्यान करते हुए चौबीस तीर्थंकर जिन जिनालय और गुरुओं की स्तुति करके भूमि में बैठकर अष्टांग नमस्कार करना, यह तृतीय नीति है। इस प्रकार एक कृतिकर्म में तीन अष्टांग नमस्कार होते हैं। पाँचवाँ विशेषण चार बार सिर नवाना है । सामायिक दण्डक के आदि में और अन्त में तथा विधि त्थोस्सामि दण्डक के आदि में और अन्त में, इस प्रकार एक कृतिकर्म में सब मिलाकर चार बार सिर झुकाकर नमस्कार किया जाता है। छठा विशेषण बारह आवर्त करना है। दोनों वन्दना के लिये जाते समय श्रीजिनालय के दृष्टिपथ में आने पर 'दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि... ' पाठ पढ़े । अनन्तर हाथ-पैर धोकर 'णिसही- णिसही-णिसही' ऐसा तीन बार उच्चारण करके जिनालय में प्रवेश करे। भगवान् जिनेन्द्रदेव के दर्शन से पुलकित-वदन और आत्मविभोर हो उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जावे । अनन्तर दोषविशुद्धि के लिए ईर्यापथ शुद्धि करके यथाविधि सामायिक दण्डक, त्थोस्सामि दण्डक, चैत्य-भक्ति और पंच-गुरु-भक्ति पढ़े। अन्त में देव-वन्दना करते समय लगे दोष के परिमार्जन के लिए यथाविधि समाधि - भक्ति पढ़कर देववन्दना कृतिकर्म को सम्पन्न करे । हाथों को जोड़कर और कमल के समान मुकुलित करके दक्षिण भाग की ओर घुमाते हुए ले जाना आवर्त है। इ विधि करने से एक आवर्त होता है। एक कृतिकर्म में ऐसे | बारह आवर्त होते हैं। सामायिकदण्डक के आदि में तथा त्योस्सामिदण्डक के आदि में और अन्त में तीन-तीन आवर्त होते हैं, इसलिए इनका जोड़ बारह हो जाता है। इस कृतिकर्म को करते समय कहाँ बैठकर अष्टांग नमस्कार करें, कहाँ खड़े-खड़े ही नमस्कार करें तथा कहाँ मन, वचन और काय की शुद्धि के सूचक तीन आवर्त करें, आदि सब विधि विविध शास्त्रों में बतलायी गयी है। इस विधि को सूचित करनेवाला एक सूत्र षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगद्वार में भी आया है। उसके अनुसार कृतिकर्म के छह भेद होते हैं- उसका प्रथम विशेषण आत्माधीन है। अगस्त 2005 जिनभाषित 8 'मूलाचार' में अन्य सब विधि 'षट्खण्डागम' के अनुसार कही है। मात्र वहाँ अष्टांग नमस्कार दो बार करने काही विधान है, प्रथम सामायिक दण्डक के प्रारम्भ में और दूसरा त्थोस्सामिदण्डक के प्रारम्भ में । 'हरिवंशपुराण' में भी भूमिस्पर्शरूप दो ही अष्टांग नमस्कारों का उल्लेख है- प्रथम सामायिक दण्डक के प्रारम्भ में और दूसरा त्थोस्सामिदण्डक के अन्त में। इससे प्रतीत होता है कि पूर्वकाल में देशभेद से कृतिकर्म के बाह्य आचार में थोड़ा-बहुत अन्तर भी प्रचलित रहा है। इतना अवश्य है कि देववन्दना के समय Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिकदण्डक, त्थोस्सामिदण्डक, पंच-गुरु भक्ति और | द्वारा पंचगुरुभक्ति का कृत्य विज्ञापन किया गया है, इसलिए यथासम्भव समाधिभक्ति यथाविधि अवश्य पढ़ी जाती रही | इसके आगे पंचगुरुभक्ति करनी चाहिए, इसे कोई नहीं जानता। है। इस विषय की विस्तृत चर्चा श्री पं. पन्नालालजी सोनी ने | कृतिकर्म के अन्त में पहले समाधिभक्ति पढ़ी जाती थी, उसे 'क्रिया-कलाप' में की है। विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ से ज्ञान | पूजाविधि के अन्त में वर्तमान समय में भी यथास्थान पढ़ते प्राप्त करके अपने कृतिकर्म में संशोधन करने में उससे | हैं। जिसे आजकल शान्तिपाठ कहा जाता है, वह समाधिभक्ति सहायता लेनी चाहिए। ही है। अन्तर केवल इतना है कि समाधिभक्ति में 'प्रथम ५. वर्तमान पूजा-विधि करणं चरणं द्रव्यं नमः' यहाँ से लेकर आगे का पाठ पढ़ा वर्तमान में जो दर्शनविधि और पूजाविधि प्रचलित है, | जाता था और शान्तिपाठ में 'शान्तिजिनं शशि.....' इत्यादि उसमें वे सब गुण नहीं रहने पाये हैं जो 'षट्खण्डागम' आदि | पाठ भी सम्मिलित कर लिया गया है। इससे उद्देश्य में भी में प्रतिपादित क्रिया-कर्म में निर्दिष्ट किये गये हैं। अधिकतर | अन्तर आ गया है। श्रावक और त्यागी जन जिन्हें जितना अवकाश मिलता है, इतना सब लिखने का अभिप्राय इतना ही है कि उसके अनुसार इस विधि को सम्पन्न करते हैं। व्रती श्रावकों | | वर्तमान पूजाविधि में यद्यपि पुराने कृतिकर्म का समावेश में और साधुओं में त्रिकाल देववन्दना का नियम तो एक | किया गया है, पर कृत्यविज्ञापन, प्रतिक्रमण और आलोचनाप्रकार से उठ ही गया है, प्रतिक्रमण और आलोचना करने | पाठ छोड़ दिये गये हैं। विधि में जो एकरूपता थी, वह भी की विधि भी समाप्तप्राय ही है। यह क्रतिकर्म का आवश्यक | नहीं रहने पायी है। देववन्दना के समय हमें क्या कितना अंग है। फिर भी समग्र पूजाविधि को देखने से ऐसा अवश्य | करना चाहिए, यह कोई नहीं जानता। द्रव्य की बहुलता और प्रतीत होता है कि उसमें पूर्वोक्त देववन्दना (कृतिकर्म) का | प्रधानता हो जाने से कृतिकर्म देवदर्शन और देवपूजा इस समावेश अवश्य किया गया है। इतना अवश्य है कि कुछ | प्रकार दो भागों में विभक्त हो गया है। वस्तुत: इन दोनों में आवश्यक क्रियाएँ छूट गयी हैं और कुछ नयी आ मिली हैं। | कोई अन्तर नहीं है। गृहस्थ अपने साथ प्रासुक द्रव्य लाकर कृतिकर्म प्रारम्भ करने के पूर्व जो ईर्यापथशुद्धि करनी चाहिए, | यथास्थान उसका प्रयोग करे, यह बात अलग है, इसका 'उसे वर्तमान समय में व्रती श्रावक भी नहीं करते, अव्रती निषेध नहीं है। पण्डितप्रवर आशाधरजी ने श्रावक की दिनचर्या श्रावकों की बात तो अलग है। सामायिकदण्डक समग्र तो में त्रिकाल देववन्दना के समय दोनों प्रकार से पूजा करने का नहीं, पर उसका प्रारम्भिक भाग पंच नमस्कारमन्त्र और | विधान किया है। प्रात:कालीन देववन्दना का विधान करते चत्तारिदण्डक पूजाविधि में यथास्थान सम्मिलित कर लिया | हुए वे लिखते हैं कि श्री जिनमन्दिर में जाते समय गृहस्थ को गया है। मात्र उसे पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण कर देते हैं। चार हाथ भूमि शोधकर जाना चाहिए। मन्दिर में पहुंचकर त्थोस्सामिदण्डक के स्थान में 'श्रीवृषभो नः स्वस्ति' यह | और हाथ-पैर धोकर सर्वप्रथम 'जाव अरहंताणं.....' इत्यादि स्वस्तिपाठ और पंचगुरुभक्ति के स्थान में 'नित्याप्रकम्पा.....' | वचन बोलकर पहले ईर्यापथशुद्धि करनी चाहिए। अनन्तर यह स्वस्तिपाठ वर्तमान पजाविधि में सम्मिलित है. जो | 'जयन्ति निर्जिताशेष.....' इत्यादि पढ़कर या पूजाष्टक पढ़कर कृतिकर्म के अनुसार है । अर्थात् पहले 'श्रीवृषभो नः स्वस्ति' | देववन्दना करनी चाहिए। सर्वप्रथम जिनेन्द्रदेव की पूजा करे। यह पढ़कर बाद में पंचगुरुभक्ति पढ़ी जाती है। किन्तु इनके | उसके बाद श्रुत और सूरि की पूजा करे। इसे वे जघन्य बीच में चैत्यभक्ति नहीं पढ़ी जाती। प्राचीन चैत्यभक्ति दो | (साधारण) वन्दना-विधि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि अष्ट मिलती हैं- एक लघु चैत्यभक्ति और दूसरी बृहच्चैत्यभक्ति। | द्रव्य से यदि गृहस्थ देववन्दना करता है, तो सर्वोत्कृष्ट है इनमें से लघ चैत्यभक्ति पूजाविधि में अवश्य सम्मिलित की | और यदि अष्ट द्रव्य के बिना करता है, तो भी हानि नहीं है। गयी है. किन्त वह अपने स्थान पर न होकर देव-शास्त्र-गरु | मात्र देववन्दना यथाविधि होनी चाहिए। तथा बीस तीर्थंकर की पूजा के बाद में आती है। जिसे | पूजा-विधि का अन्य प्रकार वर्तमान में कृत्रिमाकृत्रिम जिनालय-पूजा कहते हैं, वह लघु साधारणत: देवपूजा का जो पुरातन प्रकार रहा है और चैत्यभक्ति ही है। इसे पढ़कर इसका आलोचना-पाठ भी | उसका वर्तमान समय में प्रचलित पूजा-विधि में जिस प्रकार पढ़ते हैं। और अन्त में 'अथ पौर्वाह्निक.....' इत्यादि पाठ | समावेश किया गया है, उसका हमने स्पष्टीकरण किया है। अगस्त 2005 जिनभाषित १ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ ही उसमें न्यूनाधिकता हुई है, उस पर भी हम विचार | प्रकट करनेवाली मृति के न रहने पर अक्षत आदि में भी कर आये हैं। यहाँ हम पूजा के उस प्रकार का भी उल्लेख | स्थापना करने का विधान किया है। किन्तु जहाँ साक्षात् कर देना चाहते हैं, जिसे सोमदेवसूरि ने 'यशस्तिलकचम्पू' | जिनप्रतिमा विराजमान है और उसके आलम्बन में पंचपरमेष्ठी (कल्प.३६) में निबद्ध किया है, क्योंकि वर्तमान पूजाविधि | | और चौबीस तीर्थंकर आदि की पूजा की जा सकती है, वहाँ पर इसका विशेष प्रभाव दिखलाई देता है। वे लिखते हैं- पर आह्वान आदि क्रिया का किया जाना उपयुक्त है? देववन्दना प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम्। की जो प्राचीन विधि उपलब्ध होती है, उसमें इसके लिए पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम्॥ | स्थान नहीं है। यह बात उस विधि के देखने से स्पष्टतः लक्ष्य देवपूजा छह प्रकार की है- प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, | में आ जाती है। सन्निधापन, पूजा और पूजा-फल। इन छह कर्मों का विस्तृत दूसरी बात विसर्जन के सम्बन्ध में कहनी है। विसर्जन विवेचन करते हुए वे लिखते हैं- जिनेन्द्रदेव का गुणानुवाद | आनेवाले तथा पूजा को स्वीकार करनेवाले का किया जाता करते हुए अभिषेकविधि करने की प्रस्तावना करना प्रस्तावना | है। किन्तु जैनधर्म के अनुसार न कोई आता है और न पूजा है। पीठ के चारों कोणों पर जल से भरे हुए चार कलशों की | में अर्पण किये गये भाग को स्वीकार करता है, अत: विसर्जन स्थापना करना पुराकर्म है। पीठ पर यथाविधि जिनेन्द्रदेव को | की मान्यता को रंचमात्र भी स्थान नहीं है। पाँच परमेष्ठी के स्थापित करना स्थापनाकर्म है। ये जिनेन्द्रदेव हैं, यह पीठ | स्वरूप का विचार करने से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती मेरुपर्वत है, जलपूर्ण ये कलश क्षीरोदधि के जल से पूर्ण | है। आगम में देववन्दना की जो विधि बतलायी है, उसके कलश हैं और मैं इन्द्र हूँ जो इस समय अभिषेक के लिए | अनुसार देववन्दना सम्बन्धी कृतिकर्म अन्त में समाधि भक्ति उद्यत हुआ हूँ, ऐसा विचार करना सन्निधापन है। | | करने पर सम्पन्न हो जाता है, इसलिए मन में यह प्रश्न अभिषेकपूर्वक पूजा करना पूजा है और सबके कल्याण की उठता है कि पूजा के अन्त में क्या विसर्जन करना आवश्यक भावना करना पूजाफल है। है? इस समय जो विसर्जन पढ़ा जाता है, उसके स्वरूप पर श्रीसोमदेव सरि द्वारा प्रतिपादित यह पजाविधि वही | भी हमने विचार किया है। उससे मिलते-जुलते श्लोक है जो वर्तमान समय में प्रचलित है। मात्र इसमें न तो वर्तमान | ब्राह्मणधर्म के अनुसार किये जानेवाले क्रियाकाण्ड में भी समय में प्रत्येक पूजा के प्रारम्भ में किये जानेवाले आह्वान, | पाये जाते हैं। तुलना कीजिएस्थापना और सन्निधीकरण का कोई विधान किया है और न आह्वानं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम्। विसर्जन-विधि का ही निर्देश किया है। यद्यपि यहाँ पर विसर्जनं न च जानामि क्षमस्व परमेश्वर॥ जिन-प्रतिमा के स्थापित करने को स्थापना और उसमें साक्षात मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। जिनेन्द्रदेव की कल्पना करने को सन्निधापन कहा है, इसलिए तत्सर्वं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ इससे आह्वानन. स्थापना और सन्निधीकरण का भाव अवश्य | इनके स्थान में ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते लिया जा सकता है। जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि इस | हैंविधि में उस आचार का पूरी तरह से समावेश नहीं होता, आह्वान न जानामि न जानामि विसर्जनम्। जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं। पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥ विचारणीय विषय मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन। इतना लिखने के बाद हमें वर्तमान पूजाविधि में प्रचलित यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥ दो-तीन बातों का संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। 'ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि' इत्यादि श्लोक भी ब्राह्मण प्रथम बात आह्वान, स्थापना और सन्निधीकरण के विषय में | क्रियाविधि में कुछ हेर-फेर से होना चाहिए, ऐसा हमारा कहनी है। वर्तमान समय में जितनी पूजाएँ की जाती हैं, | ख्याल है। किन्तु तत्काल उपलब्ध न होने से वह नहीं दिया उनको प्रारम्भ करते समय सर्वप्रथम यह क्रिया की जाती है। | गया है। जैन परम्परा में स्थापना निक्षेप का बहुत अधिक महत्त्व है; . 'आहूता ये पुरा देवाः' इत्यादि श्लोक प्रतिष्ठापाठ का इसमें सन्देह नहीं। पण्डितप्रवर आशाधरजी ने जिनाकार को 10 अगस्त 2005 जिनभाषित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। पंच-कल्याणक की समस्त क्रिया मुख्यतया चतुर्निकाय | आ गया? जन्मकल्याणक के समय तो केवल जल से के देव सम्पन्न करते हैं, इसलिए पंच-कल्याणक प्रतिष्ठा में | अभिषेक किया जाता है। आगमिक परम्परा के अनुसार उनका आह्वान और स्थापना की जाती है तथा क्रियाविधि के | इसके ऐतिहासिक अनुसन्धान की आवश्यकता है। इससे सम्पन्न होने पर उनका विसर्जन भी किया जाता है। इसलिए । | तथ्यों पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ने की सम्भावना है। • वहाँ पर इस श्लोक की सार्थकता भी है। देवपूजा में इसकी | निष्कर्ष रंचमात्र भी सार्थकता नहीं है। देवपूजा के विषय में इतना ऊहापोह करने से निष्कर्ष तीसरी बात अभिषेक के विषय में कहनी है। सामान्यतः | के रूप में हमारे मन पर जो छाप पड़ी है, वह यह है कि अभिषेक के विषय में दो मत पाये जाते हैं। एक मत यह है | वर्तमान पूजाविधि में कृतिकर्म का जो आवश्यक अंश छूट कि जिन-प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हो जाती है, इसलिए | गया है, यथास्थान उसे अवश्य ही सम्मिलित कर लेना उसका अभिषेक जन्मकल्याणक का प्रतीक नहीं हो सकता। | चाहिए और प्रतिष्ठापाठ के आधार से इसमें जिस तत्त्व ने दूसरे मत के अनुसार अभिषेक जन्मकल्याणक का प्रतीक | प्रवेश कर लिया है, उसका संशोधन कर देना चाहिए; क्योंकि माना गया है। सोमदेव सूरि इस दूसरे मत से अनुसर्ता जान | पंच-कल्याणक प्रतिष्ठाविधि में और देवपूजा में प्रयोजन आदि पड़ते हैं, क्योंकि उन्होंने अभिषेक-विधि का विधान करते | | की दृष्टि से बहुत अन्तर है। वहाँ अप्रतिष्ठित प्रतिमा को समय वह सब क्रिया बतलायी है जो जन्माभिषेक के समय | प्रतिष्ठित करना यह प्रयोजन है और यहाँ प्रतिष्ठित प्रतिमा को होती है। फिर भी, यह अवश्य ही विचारणीय हो जाता है | साक्षात 'जिन' मानकर उसकी जिनेन्द्रदेव के समान उपासना कि यदि अभिषेक जन्मकल्याणक के समय किये गये | करना यह प्रयोजन है। अभिषेक का प्रतीक है, तो इसमें पंचामृताभिषेक कहाँ से _ 'ज्ञानपीठ पूजाञ्जलि' के 'प्रास्ताविक वक्तव्य' से साभार राँची में पंचकल्याणक महोत्सव संपन्न संत शिरोमणी आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के परम प्रभावक शिष्य मुनिश्री १०८ प्रमाणसागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में प्रतिष्ठाचार्य ब्र. जिनेश जी, जबलपुर द्वारा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव सोल्लास संपन्न हुआ। दिगम्बर जैन मंदिर राँची में भगवान ऋषभदेव के ग्यारहवीं सदी में निर्मित तीन जिनबिम्ब विराजमान हैं। ये तीनों जिन बिम्ब मानभूमि (बंगाल प्रान्त) से प्राप्त हुए थे। इनका निरंतर क्षरण हो रहा था। पूज्य मुनिश्री ने समाज को इन प्रतिमाओं का जीर्णोद्धार कराकर इनका क्षरण रोकने एवं पंचकल्याणक प्रतिष्ठा द्वारा इन प्रतिमाओं की पुनः प्रतिष्ठा कराने का निर्देश दिया। मुनिश्री की पावन प्रेरणा एवं मंगल आशीर्वाद से भगवान ऋषभदेव के तीनों प्राचीन बिम्बों का जीर्णोद्वार कराया गया। जीर्णोद्धारोपरांत जिन बिम्ब की पुनः प्रतिष्ठापना हेतु श्री पंचकल्याणक महा महोत्सव का आयोजन किया गया। राँची नगर के इतिहास में पहली बार आयोजित इस महोत्सव का शुभारंभ प्रतिष्ठाचार्य ब्र. जिनेश जी मढ़िया जी जबलपुर (म.प्र.) ब्र. नरेश जी, ब्र. अन्नू जी के कुशल निर्देशन में सम्पन्न हुआ। संघस्थ ब्र. बाबा शांतिलाल जी एवं ब्र. रोहित जी और स्थानीय विद्वान पं. पंकज जैन 'ललित' और पं. अरविंद जी का भी उल्लेखनीय योगदान रहा। गर्भ कल्याणक के दिन पूज्य मुनिश्री प्रमाणसागर जी ने अपनी ओजस्वी वाणी में हजारों श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा कि भ्रूण हत्यारे सम्पूर्ण मानवता के लिए कलंक हैं' मुनि श्री ने प्रवचनों ने उपस्थित जन समुदाय के दिलो दिमाग को झकझोर कर रख दिया उपस्थित सभी श्रोताओं ने भ्रूण हत्या त्याग कर संकल्प व्यक्त करते हुए अपने दोनों हाथ ऊपर उठा लिये। आहार दान के प्रसंग पर मुनिश्री प्रमाणसागर जी ने कहा कि "निग्रंथ दिगम्बर साधुओं को श्रावकों की निधि नहीं विधि चाहिए"। ___ पंचकल्याणक महोत्सव से समाज में नवचेतना का उदय एवं संस्कारों का शंखनाद हुआ है। मुनिश्री की प्रेरणा से समस्त जैन पंचायत राँची ने रात्रिकालीन सामूहिक भोज एवं रात्रि विवाह पर संकल्प पूर्वक प्रतिबंध लगा दिया है। जैनेतर समुदाय ने जैन समाज के इस निर्णय की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। पं. पंकज जैन 'ललित' अगस्त 2005 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या ऋषिमंडल स्तोत्र दिगम्बर परम्परा का है ? पं.मिलापचंद जी कटारिया करीब 25 वर्ष पहिले गुणनंदि कृत ऋषिमण्डल यंत्र | शिष्य लिखा है। प्रसिद्ध भट्टारक सकलकीर्ति के प्रशिष्य पूजा संस्कृत की भाषा टीका करके उसे पं. मनोहरलाल जी | ज्ञानभूषण विक्रम सं0 1550 के आसपास हुये हैं। शास्त्री ने मुंबई से प्रकाशित की थी । उसके बाद इसका | 'भट्टारकसम्प्रदाय'पुस्तक के पृष्ठ 154 में लिखा है कि इन दूसरा संस्करण जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय से प्रकाशित | ज्ञानभूषण के शिष्य नागचंद्र और गुणनंदि हुए, नागचन्द्र ने हुआ था जो आज भी मिलता है। इस दूसरे संस्करण में | 'विषापहारस्तोत्र' की टीका तथा गुणनन्दि ने ऋषिमण्डलपूजा' विद्याभूषण सूरि विरचित 'ऋषिमंडल कल्प' नामक संस्कृत | बनाई । पाठ भी साथ में दिया गया है जो प्रथम संस्करण में नहीं था। उक्त विद्याभूषण का समय तो गुणनंदि से भी बाद अब वही पुस्तक उन्हीं विद्याभूषण और गुणनन्दिकृत संस्कृत | का है। ये विक्रम सं0 1604 के करीब हुए हैं और काष्ठासंघ के उक्त दोनों पाठों के साथ ब्र. पं. श्रीलाल जी काव्यतीर्थ | की परंपरा में हुए हैं। इनके बनाये ऋषिमण्डलस्तोत्र, रचित हिंदी पद्यों सहित 'श्री शांतिसागर जैन सिद्धांत प्रकाशिनी चिंतामणिपार्श्वनाथस्तवन आदि ग्रंथ देहली के पंचायती मंदिर संस्था महावीर जी' से वृहदाकार में प्रकाशित हई है। यह | में हैं ऐसा वीरसेवामंदिर से प्रकाशित जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह वही संस्था है जो पहिले कलकत्ते में 'भारतीय जैन सिद्धांत | की प्रस्तावना के पृष्ठ 49 में सूचित किया है। प्रकाशिनी संस्था' के नाम से चलती थी। अस्त ऋषिमण्डलस्तोत्र का प्रचार श्वेतांबर, दिगम्बर दोनों ___हम पाठकों को प्रस्तुत लेख में यह बतलाना चाहते हैं में है। देखना यह है कि दरअसल में दोनों में से प्रथम यह कि गुणनंदिकृत ऋषिमंडल यंत्र पूजा पुस्तक का आदि से किस की चीज रही है। इस पर हम यहाँ कुछ ऊहापोह अंत तक सब अंश गुणनंदिकृत नहीं है। अथात: ऋषिमंडल करना चाहते हैं। स्तोत्रं पठेत्' ऐसा लिखकर जो पुस्तक में ऋषिमण्डलस्तोत्र 1. दिगम्बर सम्प्रदाय में सिद्धचक्र, गणधरवलय पढ़ने की सूचना दी है उसके आगे 'आद्यंताक्षर संलक्ष्य' से आदि कई तरह के बीसों यंत्रमण्डल मिलते हैं उनसे इसकी शुरु करके अंत में 'पदं प्राप्नोति विस्त्रस्तं परमादसंपदां।' रचनाप्रणाली भिन्न जाति की प्रतीत होती है। लिखा गया है यह सब स्तोत्रपाठ गुणनंदि कृत नहीं है। गुणनंदि ने तो सिर्फ इसकी पूजा का भाग ही बनाया है। 2. इसका उल्लेख विद्यानुशासन के पूर्ववर्ती इसलिए इस स्तोत्र पाठ के श्लोकों के क्रमिक नम्बर भी इंद्रनंदिसंहिता, एकसंधिसंहिता, पूजासार आदि क्रियाकाण्डी पुस्तक में अलग दिये गये हैं। दिगम्बर साहित्य में नहीं मिलता। पूजासार में जहाँ बीसों चूँकि यह पाठ विद्यानुशासन में भी पाया जाता है वहाँ यंत्रमंडल लिखे हैं वहाँ इसको कतई स्थान नहीं दिया गया । भी इसका केवल स्तोत्र पाठ ही लिखा हुआ है। पूजा भाग 3. आशाधर ने भी अपने प्रतिष्ठापाठ में जहाँ नहीं। अगर स्तोत्र व पूजा भाग दोनों अकेले गणनन्दि की | आचार्यादि की प्रतिष्ठाविधि लिखी है वहाँ वे गणधरवलय कृति होती तो विद्यानुशासन में वह सारा का सारा पाया जाना | का तो प्रयोग करते हैं पर इस ऋषिमण्डल का नहीं। चाहिये था। अलावा इसके विद्यानुशासन का संकलन संभवतः इससे कहा जा सकता है कि इस ऋषिमंडल का गुणनंदि से करीब एक शताब्दि पूर्व हो चुका था । परं च | आशाधर और उनके बाद आसपास होनेवाले हस्तिमल्ल, विद्याभूषण ने जो 'ऋषिमण्डल मंत्र कल्प' बनाया है जिसका | इंद्रनंदि, एकसंधि आदि के वक्त दिगंबर सम्प्रदाय में प्रवेश कि जिकर ऊपर हुआ है। ये विद्याभूषण गुणनंदि के बाद हुए | नहीं हो पाया था। यह दिगंबर आम्नाय का न होने की वजह हैं इन्होंने भी उक्त कल्प में सिर्फ स्तोत्र ही का रुपांतर किया | से ही नेमिचन्द्र प्रतिष्ठातिलक में भी कहीं इसका उपयोग है। इससे सहज ही यह जाना जा सकता है कि इसका स्तोत्र | नहीं किया गया है। भाग अलग है और पूजा भाग अलग है। पूजा भाग की रचना | इस ऋषिमण्डलस्तोत्र के श्वेताम्बर होने में खासप्रमाण गुणनंदि ने की है, स्तोत्र तो पहिले ही से चला आ रहा था | यह भी है कि -इसमें तीर्थंकरों का कायवर्ण श्वेताम्बरसम्मत जिसके निर्माता कोई और ही हैं। लिखा हुआ है। पं. आशाधरजी ने तीर्थंकरों का कायवर्ण इस गणनंदि ने इसकी प्रशस्ति में अपने को ज्ञानभूषण का | प्रकार बताया है। 12 अगस्त 2005 जिनभाषित - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सितौ चंद्रांकसुविधी श्यामलौ नेमिसुव्रतौ । पद्मप्रभवासुपूज्यौ च रक्तौ मरकतप्रभौ ॥ 8 ॥ सुपार्श्वपाश्र्वस्वर्णाभान् शेषांश्चालेखयेत स्मरेत् । प्रतिष्ठासारोद्धार, अध्याय 1 अर्थ : चंद्रप्रभ, पुष्पदंत का रंग सफेद, नेमिनाथ, मुनिसुव्रत का श्याम, पद्मप्रभ, वासुपूज्य का लाल और सुपार्श्वनाथ व पार्श्वनाथ का रंग मरकत यानि पन्ना जैसा हरा है । शेष तीर्थंकरों का सुवर्ण के जैसा रंग है। ऐसा ही तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4, गाथा 588-589 में कहा है। यह तो हुई दिगम्बर मान्यता । अब श्वेतांबर मान्यता के लिये हेमचन्द्राचार्य का लिखा देखिये : रक्तौ च पद्मप्रभवासुपूज्यौ शुल्कौ तु चंद्रप्रभपुष्पदंतौ । कृष्णौ पुन नैमिनी विनीलौ श्रीमल्लिपाश्र्वौ कनकत्विषो न्ये ॥ 49 ॥ अभिधानचिंतामणिकोश प्र.कांड यहाँ मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ का रंग 'विनील' गहरे नीले रंग का व सुपार्श्वनाथ का कनकवर्ण लिखा है। जबकि दिगम्बरमत में मल्लिनाथ को कनकवर्ण के और पार्श्वनाथ सुपार्श्वनाथ को हरे रंग के बताये हैं। इसप्रकार तीर्थंकरों के कायवर्ण को लेकर दोनों मतों में अन्तर मालूम पड़ता है। अब देखना यह है कि इस ऋषिमण्डलस्तोत्र में तीर्थंकरों का के विषय में भी थोड़ा सा लिख देना चाहते हैं । कायवर्ण किस मत का लिखा गया है। ऋषिमण्डलस्तोत्र के श्लोक नं. 13 में लिखा है कि 'ह्रीं' इस बीजाक्षर की ईकारमात्रा का रंग विनील (विशेष नीला) किया जावे और इस पर इसी रंग के तीर्थंकर के नाम के अक्षर लिखे जावें' ऐसा निर्देश करके आगे श्लोक नं. 15 में ईकार में पार्श्वनाथ और मल्लिनाथ के नाम लिखने को कहा गया है। इस अर्थ के सूचक वाक्य ये हैं : 'शिर ई स्थित संलीनौ पार्श्वमल्ली जिनोत्तमौ यहाँ स्पष्ट तौर पर मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ का रंग हेमचन्द्राचार्य के लिखे अनुसार विनील बतलाया गया है जो श्वेतांबरमत का द्योतक है। ज्ञात हो कि जब यहाँ का कथन दिगम्बरमत के अनुकूल नहीं दीखा तो यहाँ के पाठ को बदल दिया है यानि 'पार्श्वमल्ली जिनोत्तमौ' के स्थान में 'पार्श्वपाश्र्व जिनोत्तमौ ' पाठ बना दिया है किंतु बदले हुए पाठ में डबल नाम पार्श्वनाथ का हो गया है। होना चाहिए सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के नाम, ऐसा करने के लिये 'सुपार्श्वपाश्र्व जिनोत्तमौ' पाठ बनता तो छंदभंग हो जाता इसलिये लाचार बेतुका पाठ 1 'पार्श्वपाश्र्व जिनोत्तमौ' बनाना पड़ा है। इससे निःसंकोच कहा जा सकता है कि वास्तविक पाठ इसका अवश्य ही श्वेतांबरसम्मत रहा है। आश्चर्य है कि विद्यानुशासन में भी इस स्तोत्र का वही श्वेतांबरसम्मत पाठ 'पार्श्वमल्ली जिनोत्तमौ ' ही पाया जाता है और पाठ चर्चासागर में है। और तो क्या स्वयं विद्याभूषण भी इस पाठ में तब्दीली करना नहीं चाहते अतः वे स्वरचित ऋषिमण्डलस्तोत्र के 27वें श्लोक में 'ह्रीं' की ईकार मात्रा में पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ ही की स्थापना का कथन करते हैं । इत्यादि कारणों से यह ऋषिमण्डलस्तोत्र निःसंदेह श्वेताम्बरकृति जान पड़ता है 1 विद्यानुशासन में जिन प्रकरणों का संग्रह किया गया है उसकी शैली को देखते हुये यह समझना भूल होगी कि ऋषिमण्डलस्तोत्र का विद्यानुशासन में लिखा मिलने से ही उसे दिगंबर कृति मान लिया जावे। विद्यानुशासन तो ऐसा खिचड़ी ग्रन्थ है जिसमें रावणकृत बालग्रह चिकित्सा आदि जैनेतर प्रकरणों का भी संकलन किया है तो ऐसी हालत में उसमें किसी श्वेतांबर कृति का मिल जाना कौन बड़ी बात है । यहाँ हम महावीरजी से प्रकाशित 'ऋषिमण्डल' पुस्तक हम समझते थे कि संस्कृत टीकाओं सहित गोम्मटसार आदि जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को प्रकाशित करके जिस संस्था ने अच्छी ख्याति प्राप्त की है उसके यहाँ से यह मंत्रविषयक ग्रन्थ भी अपूर्व और कई विशेषताओं से युक्त निकला होगा। जब हमने इसे मंगवाकर देखा तो हमारी आशा पर पानी फिर गया। इसकी पूजा की रचना हिंदी पद्यों में श्री ब्रह्मचारी पं. श्रीलालजी काव्यतीर्थ ने ऐसी की है कि जिसमें कई जगह भाषा छंदों की खासी मट्टीपलीद की गई है जो विज्ञपाठकों को देखने पर स्वयं विदित हो जाता है। हम नहीं चाहते कि उनका विवरण देकर निरर्थक लेखवृद्धि की जावे। इसके पृष्ठ 64 में तो जलमण्डल 'शुद्धियन्त्र' का चित्र दिया है वह भी अशुद्ध है। उसके बीचोंबीच आपने 'झं' लिखा है जबकि इस विषय के सभी शास्त्रों में 'झंठं' लिखने का आदेश दिया है। पं. आशाधर जी ने भी 'झंठं स्वरावृतं तोयमण्डलद्वयवेष्ठितं । ' वाक्यों से 'झंठ' को स्वरों से आवृत करके उसे दो जलमण्डल से घेरने को कहा है। इस ग्रन्थ में आपने मंत्रसाधन विषय के कोई 59 श्लोक विद्यानुशासन के उद्धृत किये हैं जिनका हिन्दी अर्थ भी आपने साथ में दे दिया है। किंतु उनके अर्थ करने में आपने कहीं-कहीं भूल की है। उदाहरण के तौर पर उनमें अगस्त 2005 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से निम्नलिखित दो श्लोकों को देखिये : पलाशस्य समिन्मुख्या स्यादमुख्या पयस्तरोः । विधानमेतत्संग्राह्यं विशेषवचनाद्दते ॥ 30 ॥ सृक्सचा चांदनौ मुख्यौ पैप्पलौ तदसंभवे । तद्भावे पलाशस्य दलं वा पिप्पलस्य वा ॥31॥ इन दोनों श्लोकों का यथार्थ अर्थ ऐसा है : 'हवन क्रिया में पलाश (ढाक) की लकड़ी मुख्य मानी गई है और गौणरुप से क्षीर वृक्ष की भी। यह विधान विशेष सूचना के बिना सर्वत्र ग्राह्य है। सूची स्त्रवा (जिनमें रखकर हवनद्रव्य होमा जाता है) मुख्यता से चंदन के बने होने चाहिये । उनके अभाव में पीपल की लकड़ी के बने भी लिये जा सकते हैं। वे भी न हों तो पलाश या पीपल के पत्ते से काम लिया जा सकता है।' इसमें से 31 वें श्लोक के दूसरे चरण का पाठ आपने ‘पैस्थलौ दलसंभवे' छापा है जो अशुद्ध है और इस श्लोक का अर्थ आपने किया है वह तो बड़ा ही विलक्षण है। इन दोनों श्लोकों का अर्थ आपने निम्न प्रकार किया है। 'होम में पलाश की लकड़ी मुख्य मानी गई है यदि : अन्य कितना ही अप्रकाशित अनूठा जैन साहित्य भरा पड़ा है जिनके प्रकाशन की भारी आवश्यकता होते हुये भी न जाने उक्त संस्था ने इसका प्रकाशन क्या समझकर किया और क्यों इसमें समाज का प्रचुर द्रव्य खर्च किया गया ? 'जैन निबन्ध रत्नावली (भाग 1)' से साभार मण्डला में आचार्य श्री विद्यासागर दि. जैन पाठशाला का शुभारम्भ संत शिरोमणी आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के शुभ आशीर्वाद से उनके शिष्य मुनिश्री समतासागर जी, ऐलक श्री निश्चयसागर जी, क्षुल्लक श्री पूर्णसागर जी महाराज की प्रेरणा एवं सानिध्य में आचार्य श्री विद्यासागर दिगम्बर जैन पाठशाला का शुभारंभ आदिनाथ भगवान की जन्म जयंती (चैत्र बदी नवमी) के अवसर पर किया गया है। उद्देश्य वह न मिले तो दूध वाले वृक्ष पीपल आदि के वृक्ष की सूखी लकड़ी होनी चाहिये यह सामान्य रीति है। साथ में सफेद चंदन लालचंदन और शमी (अरणी) की लकड़ी भी होनी चाहिये और पत्ते पीपल व ढाक के होने चाहिये ।' न मालूम आपने 'स्त्रु कृस्नु चौ चांदनौ' का अर्थ सूची स्त्रवा चंदन के बने हों इस ठीक अर्थ के स्थान में सफेद लालचंदन की समिधा अर्थ कैसे समझ लिया? और पैस्थल का अर्थ शमी लकड़ी कैसे किया- आपने द्विवचन पर भी ध्यान नहीं दिया। इसीतरह श्लोक 28 में 'हवन करने वाला रेशमी या सणी वस्त्र पहनकर हवन करें।' इस अर्थ ही को आप उड़ा गये हैं । अन्यत्र भी कहीं-कहीं भूले हैं जिनका विवेचन यहाँ लेख वृद्धि के भय से छोड़ा जाता T पाठशाला का उद्देश्य जैन समाज के सभी बच्चों में धार्मिक संस्कार, चारित्रिक गुणों का विकास, बड़ों के प्रति आदरभाव, दिगम्बर जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण का भाव, जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों के प्रति अटूट विश्वास, मैत्री भावना का विकास अभिनय, प्रस्तुतीकरण एवं नेतृत्व के गुणों का विकास तथा जैन ग्रन्थों के पठन पाठन की रुचि एवं अनुशासन की शिक्षा देना है। स्वरूप पाठशाला में बालबोध भाग १ से भाग ४ तक एवं द्रव्य संग्रह, छहढाला, तत्वार्थसूत्र की शिक्षा स्थानीय शिक्षिकाओं द्वारा दी जा रही है। पाठशाला का प्रारम्भ सामूहिक प्रार्थना "जीवन हम आदर्श बनावें......" से एवं "हम वंदन करते हैं अभिनंदन करते हैं..... प्रभु सा बन जाने को प्रभु पूजन करते हैं, की सामूहिक भजन ध्वनि के साथ एवं जिनवाणी स्तुति पूर्वक कक्षा को विराम दिया जाता है। इस पाठशाला की विशेषता यह है कि बाहर से अध्यापन हेतु किसी व्यक्ति विशेष को बुलाने की अपेक्षा न रखकर नगर की उत्साहित सम्मानित शिक्षिकाएं एवं बहिनों द्वारा बच्चों को धर्मज्ञान देकर सुसंस्कारित किया जा रहा है। प्रतिदिन अच्छी संख्या में बच्चे उपस्थित हो रहे हैं । देवशास्त्र - गुरु के प्रति भक्ति भावना ही प्रथम माध्यम रही है। बच्चे पाठशाला में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं। 14 अगस्त 2005 जिनभाषित बच्चों को इस पाठशाला के प्रति मुनिश्री कितने गम्भीर हैं, इसका पता केवल इसी बात से चल जाता है कि, यह पाठशाला भविष्य में भी सुचारू चलती रहे, इसके लिए श्री शांतिनाथ दि. जैन मंदिर एवं श्री महावीर दि. जैन मंदिर व्यवस्था समिति का संरक्षण प्राप्त है । उसी के द्वारा नियुक्त एक संयोजक के साथ-साथ मुनिश्री ने पाठशाला के लिए संकल्पित समर्पित सक्रिय सहयोगी के रूप में एक 'पाठशाला सहयोगी समिति' गठित की है। इसमें संरक्षक बनाये गये एवं शिक्षक-शिक्षिकाओं की योग्यता परखते हुए उन्हें नियुक्त किया गया। अशोक कौछल Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोनचाईना की सच्चाई भारतीय संस्कृति में जीवन यापन के लिए संसाधन प्राप्ति हेतु अहिंसक, शुद्ध व पवित्र उपाय बतलाए गए हैं। ऋषि-मुनियों ने भोज्य पदार्थों के साथ-साथ बाह्य प्रयोग में भी अहिंसक वस्तुओं को उपयोग में लाने के लिए प्रेरित किया है। तब से अहिंसक समाज अहिंसा में विश्वास रखनेवाले अपने आराध्य, भगवन्तों, साधु-सन्तों के उपदेशों पर आस्था रखते हुए उनके बताए अनुसार जीवन निर्वाह करते चले आ रहे हैं । किन्तु वर्तमान भौतिक युग अहिंसा पर कुठाराघात कर केप्सुल हिंसा के रूप में संसाधनों को प्रस्तुत कर रहा है। चाहे भोज्य सामग्री हो, सौन्दर्य प्रसाधन हो या फिर जीवन से संबंधित अन्य भौतिक वस्तुएँ हों, सभी को आँख बंद कर शुद्ध पवित्र - अहिंसक नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इनमें अण्डे, मछली, माँस, शराब, हड्डी, चमड़ा, खून, चर्बी आदि का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रयोग होता है । अर्थयुग ने धर्म एवं धर्मात्माओं की भावनाओं को कुचल दिया है, जिसकी एक बानगी बोनचाईना है । कुछ लोग अज्ञानता के कारण बोनचाईना को मात्र 'नाम' मानते हैं और इसमें कुछ भी अशुद्धि नहीं है, यह तो पत्थर-मिट्टी से बनता है, ऐसा कहकर बोनचाईना की क्रॉकरी को घरों में उपयोग करना, होटल आदि में उसमें खाना-पीना, अतिथियों को उसमें खिलाना - पिलाना अपनी शान समझते हैं। ऐसे लोग आलस्य प्रमाद के कारण बिना खोज-बीन किए अशुद्ध वस्तुएँ उपयोग कर अपना धर्म और क्षुल्लक धैर्यसागर महाराज पवित्रता नष्ट कर रहे हैं। साथ ही अपनी श्रद्धा भी खो रहे हैं। अभी कुछ दिन पूर्व एक व्यक्ति ने बोनचाईना की क्रॉकरी खरीदी और मुझसे पूछा, "क्या आप लोग बोनचाईना की क्रॉकरी में रखे आहार- पानी का उपयोग करते हैं?" तब हमने कहा, "नहीं, और उपयोग करना तो छोड़ो, जिस घर में बोनचाईना हो वहाँ पर तो हम साधुगण आहार भी ग्रहण नहीं करते हैं।" तो उसने कारण पूछा। तब हमने कहा, 'इसमें हड्डियों का चूर्ण होता है।" तो वह बोला, "प्रूफ (प्रमाण) दीजिए ?" हमने खोजबीन चालू कर दी, तब अजमेर के सुरेन्द्र शर्मा नामक भक्त ने एक पेपर की कटिंग लाकर दी, जो 'पंजाब केसरी' के २४ अगस्त २००२ के संस्करण के पेज नं. ४ की है। उसमें जो लिखा है वह इस प्रकार है : बोन चाइना में हड्डियों की राख होनी है जानकारी मिली होती है। इसमें प्रयुक्त हड्डियां भेड़बकरियों या गाय-भैंसों की होती हैं। ये राख 'आजकल घर-घर में बोन चाहना से बने चीनी मिट्टी के बर्तनों को अधिक टिकाऊ बर्तनों का प्रचलन है। बल्कि अपनी शान व सम्पन्नता के प्रदर्शन के लिए लोग इनका इस्तेमाल अधिक करते हैं। अधिकतर शाकाहारी लोग भी इन्हीं बर्तनों में भोजन करते हैं। ऐसे सभी लोग शायद इस तथ्य से अनजान हैं कि इन महंगे बर्तनों को बनाने हेतु जो मिश्रण तैयार किया जाता है यानी पक्का बनाने तथा उन्हें सफेद रंग प्रदान करने हेतु डाली जाती है। कुल मिश्रण में हड्डियों की राख 20 से 25 प्रतिशत तक होती है। इन बर्तनों को बनाने के लिए तैयार मिश्रण में चीनी पत्थर, सिलिका, एल्युमीनियम, नींबू तथा क्षार भी होते हैं। जरा सोचिए क्या ये हड्डियां मरे हुए जानवरों की होती हैं या मारे उसमें वास्तव में 'बोन' यानी हड़ियों की राख गए जीवों की। इसके अतिरिक्त कुछ बच्चों ने इन्टरनेट पर सर्च किया तो बताया कि "http:/www.thepotteries.org/types/ bonechina.htil" नामक वेबसाइट पर यह लिखा हुआ है। कि "Josiah Spote II (1754-1824) ने सन् १७९७ में बोनचाईना बनाकर दिखाया था और बताया था कि तकनीकी बोनचाईना एक सख्त पदार्थ है, जो क्ले और नॉन-ग्लासी पदार्थ से बनता । इसके अन्दर ५० प्रतिशत तक जानवरों की हड्डियाँ, २५ प्रतिशत चाईना क्ले (एक तरह की मिट्टी), २५ प्रतिशत चाईना स्टोन होता है। इन सबको १२०० डिग्री अगस्त 2005 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेन्टीग्रेड से १३०० डिग्री सेन्टीग्रेड तक के तापमान पर गरम | असेव्य-अग्राह्य माना है। जैन आयुर्वेदिक-शास्त्रों में जीवों करके बनाया जाता है। जर्मनी में १८वीं शताब्दी में इसे | के कलेवर से बनी भस्म भी अभक्ष्य की श्रेणी में ही रखी आधुनिक रूप प्रदान किया गया था। गई है। बोनचाईना की क्रॉकरी में ५० प्रतिशत वजन हड्डियों वास्तु एवं ज्योतिष शास्त्रों में लिखा है कि जिस जमीन का होता है और जिसका प्रयोग क्रॉकरी को सफेद एवं सख्त में हड्डी, चमड़ी, जीवाश्म आदि अशुद्ध पदार्थ गड़े हों तो बनाने के लिए किया जाता है, जिससे यह आसानी से बिकने उन्हें निकालकर शल्य को दूर कर देना चाहिए, जिससे कोई में आ जाए। दुष्प्रभाव न होने पाये। वेल्स के राजकुमार ने १७९९ में इस पर लगी रोक उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर अहिंसक-शाकाहारी हटाकर इसे व्यापार के लिए खोल दिया और बोनचाईना के समाज को एवं भारतीय संस्कृति को मानने व अपनानेवालों बर्तन कारखानों में बनने लगे। को सावधान हो जाना चाहिए, जिससे अप्रत्यक्ष हिंसा को एक दूसरी वेबसाइट पर www.capitalonline.com | बढ़ावा नही मिल। पर 'The Capital' Annapolis, Maryland USA. Published ध्यान रहे कि बोनचाईना, फाइनचाईना, लेनोक्सचाईना May 06, 2005 नामक पत्रिका की जानकारी है, जिसमें | की क्रॉकरी जैसे- टी-सेट, कॉफी-सेट, मिल्क-सेट, डिनरबोनचाईना के बाद फाइनचाईना एवं लेनोक्सचाईना की जानकारी | सेट, फ्लॉवर-पॉट, सीनरीज आदि वस्तुएँ आपके घर में भी दी हुई है। बोनचाईना को ही अधिक तापमान पर तैयार | अपवित्रता पैदा कर आपके धर्म को/धर्माचरण को नष्ट कर करने पर वह फाइनचाईना कहलाती है तथा फाइनचाईना के | किसी-न-किसी रूप में अशांति लाते हैं। मेटेरियल में धातु का मिश्रण करके लेनोक्सचाईना तैयार की लेकिन यह सोचना कि हम इस्तेमाल नहीं करते/करेंगे, जाती है। अत: फाइनचाईना एवं लेनोक्सचाईना भी हड्डियों किन्तु मेहमान लोगों के लिए अच्छी चीजें रखनी पड़ती हैं, से ही बनते हैं, जो काफी महंगे होते हैं। नहीं तो लोग क्या सोचेंगे। इस दिखावे की संवेदनहीन जिन्दगी जयपुर में जे.सी.पी.एल., भारत एवं दिल्ली नामक | से किसी का भी भला नहीं होनेवाला है। जब हम अशुद्धबोनचाईना क्रॉकरी तैयार करने वाली कम्पनियाँ हैं। कम्पनियों अपवित्र मानकर इस्तेमान नहीं करते, तो फिर अतिथियों के से पूछा गया तो उनके प्रबन्धकों ने बताया कि ४० से ५० | साथ अपवित्रतापूर्ण व्यवहार क्यों? चंद पैसों के दिखावे में प्रतिशत तक इस क्रॉकरी में हड्डियों की राख होती है। | अपनी मानवीय सद्भावनाएँ क्यों खोएँ? अजमेर के हुकुमचंद सेठी ने बताया कि 'हम इसके साथ ही सरकार से जोरदार माँग करना चाहिए बोनचाईना वाली कम्पनियों को क्रिस्टल (स्टोन) सप्लाई | कि हम अहिंसक, शाकाहारी समाज को यह जानकारी लेने करते हैं और हमने क्रॉकरी बनते देखी है और बनानेवालों से | | का पूर्ण अधिकार है कि कोई भी वस्तु अहिंसक संसाधन से पूरी जानकारी ली है। उनके अनुसार उसमें हड्डियों का | | बनी है या हिंसक। अत: खाने-पीने वाले पदार्थों के अलावा चूर्ण होता है, यह पूर्णतः सत्य है।' भी सौन्दर्य प्रसाधन एवं अन्य बाह्य प्रयोग के पदार्थों में भी कुछ लोगों का कहना है कि हड्डियों की राख अशुद्ध | हरा एवं लाल चिन्ह लगाया जाना चाहिए, जिससे हम कैसे? वह तो अग्नि से जलकर पवित्र हो गई है। किन्तु यह अहिंसक समाज मांस, चमड़ा, हड्डी, खून, चर्बी या अन्य लत है, क्योंकि पवित्र-अपवित्रता की मान्यता कोई जीवाश्म जैसे अशुद्ध पदार्थों से बनी वस्तुओं से बचकर शास्त्र-विहित है। ऐसी परिस्थिति में पवित्र-अपवित्रता की | अपनी पवित्रता बचा सकें। ध्यान रहे कि निष्क्रियता अधिकारों जो व्याख्या शास्त्रों में है, वह ही मान्य है। शास्त्र कहते हैं कि | | एवं स्वाभिमान से वंचित कर देती है। अग्नि से संस्कारित अण्डा, मछली, मांस, खून, हड्डी, प्रस्तुति : निर्मलकुमार दोषी चमड़ा, चर्बी आदि भी अशुद्ध-अपवित्र हैं। अतः इनको दयालशाह, कांकरोली (राजस्थान) 16 अगस्त 2005 जिनभाषित Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा रामचन्द्रजी के राज्य में सती सीता थी। ब्र. शान्तिकुमार जैन सती सीता माता का जीवन काल विवाहोपरान्त ही अत्यन्त । रामचन्द्रजी सीता को अयोध्या लौटा लाये। राज्याभिषेक हुआ संघर्षमय रहा था। जीवन में संघर्ष होते ही हैं, कम या अधिक। राजा रामचन्द्रजी का। वनवास में तीनों ने अखण्ड ब्रह्मचर्य का बिना संघर्ष के जीवन भी क्या जीना। महापुरुष तथाकथित | पालन किया था। सीता रानी जी गर्भवती हुईं। पति रामचन्द्र जी सुख-शान्ति के गृहस्थ जीवन को त्यागकर कर्मों से संघर्ष करने | जानते थे कि सीता सती हैं, निर्दोष हैं, शीलवन्ती, पतिव्रता हैं। के लिए वन में तपस्या करने चले जाते हैं। कोई सन्देह संशय रंचमात्र भी नहीं था। परन्तु राजतंत्र में भी सती सीता के जीवन की हलचल में कई प्रश्न दिल | लोकतंत्र की पराकाष्ठा ऐसी थी कि सामान्य पुरजनों के आरोपों दिमाग में उभरते हैं। यहाँ उन पर गतानुगतिकता से पृथक् नए | से प्रभावित होकर लोकतंत्र की रक्षा के लिए सीता रानी को दृष्टिकोण से विचार समीक्षा करना है। विवक्षित व्यक्ति एवं | राजा रामचन्द्रजी ने वनवास दे दिया था। विषय के प्रति मर्यादा अक्षुण्ण रखते हुए पूर्ण आदर-सम्मान राजनीति न सही, लोक व्यवहार, न्यायनीति, मानवाधिकार सहित यह चिन्तन है। आगम का आलोक कहीं मन्द हो जाए | इत्यादि की तो यही माँग बनती है कि सीता रानी के साथ कोई तो दोष नहीं लेवें, अपितु क्षमा करें। भी कम से कम एक तो साथी-सहेली, सेविका, दासी तो भेजना महाराजा दशरथ एवं राजा जनक को अनेक साधु, | थी। पुरुषोत्तम राजा रामचन्द्रजी को तीर्थयात्रा का छल करना ज्योतिषी, निमित्तज्ञानियों का सान्निध्य प्राप्त था, फिर भी विवाह | पड़ा। क्षायिक सम्यग्दृष्टि बलदेव तद्भव-मोक्षगामी भगवान् के पहले जन्मकुण्डली का मिलान नहीं कराया गया, कारण वर | रामचन्द्रजी के द्वारा ऐसी भूल नहीं हो सकती। उन्हें यह दृढ़ का चयन धनुर्भंग स्वयंवर पद्धति से हुआ था। राज्याभिषेक में | विश्वास था कि सीता का पुण्य इतना उत्कृष्ट है कि उनके साथ भी मुहूर्त की श्रेष्ठता देखी गई होगी, परन्तु रामचन्द्रजी की | कोई अनहोनी दुर्घटना नहीं हो सकती है। दीर्घकाल के वनवास कुण्डली में ग्रहयोग को क्यों और किससे देखा जाता।राज्याभिषेक | का पूर्वानुभव भी निर्वाह में सहायक रहेगा। सीताजी के गर्भ में की प्रस्तुति में सभी भाव-विभोर एवं विभिन्न कार्यों में व्यस्त थे। | दो मोक्षगामी पुण्यात्मायें हैं, उन्हीं से रक्षणावेक्षण भी होता रहेगा। उनके वनवास की आशंका तो किसी को भी स्वप्न में भी नहीं | सीता माता के पक्ष से भी देखा जाए तो यह उनके भविष्य में आर्यिका साध्वी के जीवन को ग्रहण करने में उत्साहवर्धक रामचन्द्रजी, सती सीता एवं लक्ष्मण तीनों वनवास को सहायक सिद्ध हुआ। परिवार के प्रति मोह का बंधन भी ढीला चले गए। यहीं से जो वनवास में ही आवास का क्लेश निरन्तर | होता गया। जो कुछ भी हो रहा था, ठीक ही हो रहा था। कुछ मध्यान्तरों के साथ सीता माता को मिलता रहा यही उनके लवकुश नाम के दो पुत्ररत्नों के साथ सकुशल अयोध्या जीवन में संघर्षों की करुण कहानी है। लक्ष्मण के द्वारा रावण | पुनरागमन के पश्चात् फिर अग्नि परीक्षा का प्रकरण अत्यंत की बहिन के पुत्र की हत्या एवं बहिन के साथ दुर्व्यवहार के | चिन्ताजनक है। जिज्ञासा होती है कि सीता सती ने अग्निकारण बदले की भावना से क्षत्रिय विद्याधर रावण ने सीताजी | परीक्षा के पहले ही आर्यिकादीक्षा क्यों नहीं ले ली? अग्नि में का अपहरण विद्याबल से किया। परन्तु परस्त्री सेवन के दग्ध हो जाती तो सतीत्व पर अमिट कलंक लग जाता। परंतु निषेधात्मक व्रत को भंग नहीं किया। अब सीता रानी राजा | अग्निपरीक्षा का आदेश होने के पश्चात् दीक्षा लेने पर भी तो रामचन्द्रजी से भी अलग हो गईं, पर मिला तो वही अशोक वन | यही कहा जाता कि मरण से भयभीत हो गई हैं। वनवास में का निवास। सीता के लिए तो अशोक वाटिका वन ही था। । निर्वासन का कलंक तो तब तक साथ लगा ही हुआ था। उसके पुराणों में पाया जाता है कि महापुरुष संकट के समय | शुद्धीकरण के लिए ही तो लोकतंत्र के जनप्रिय राजा रामचन्द्र भी सम-सामयिक केवलज्ञानी, अवधिज्ञानी साधु सन्तों से मार्गदर्शन | जी के रामराज्य में सती सीता को राजरानी के रूप में पुनः नहीं लेते थे। रामचन्द्र जी सीता को खोजते रहे। रावण ने सम्पूर्ण | संस्थापित भी तो करना था। वंश का विनाश करा दिया। पहले ही दिन युद्ध करने चला जाता पवनपुत्र हनुमान की माता अञ्जना सती का जीवन तो ऐसा सर्वनाश होता ही क्यों? बहुत कुछ शील का कलंक लगने की अपेक्षा ऐसा ही था। ऐसी लंका में तो परिवार-परिजन में मात्र विधवायें ही रोते | महान् आत्माओं के जीवन में अशुभ कर्मों के तीव्र उदय में ऐसे विलखती बच गई थीं। जिन्होंने ध्वंस का पूर्वाभास कर लिया | मिथ्यादोषारोपण हृदय को ही विचलित कर देते हैं। कैसे उन्होंने था, वे अनेक दिव्य पुरुषार्थी त्याग तपस्या को अंगीकार करके | सहन करके जीवननिर्वाह किया था, इसकी कल्पना भी कर आत्म कल्याण करने चले गए। पाना दुष्कर है। उनकी तुलना में हम लोगों के जीवन में होने युद्ध में अनेकानेक मनुष्यों का, पशुओं का संहार हआ। | वाली प्रतिकूलतायें तो अत्यन्त हीन हैं। - अगस्त 2005 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता सती ने जीवन की अन्तिम परीक्षा के पहले जिनेन्द्र । तपस्या है, जिससे कर्मों की गुणश्रेणी क्रम से निर्जरा होती है। भगवान से सेठ सुदर्शन की तरह प्रार्थना एवं संकल्प किया होगा | अनुकूलता को भोगना तो पुण्य को ही भोगना है, जिससे कि कि परीक्षा में पूर्णांक से उत्तीर्ण हो जाने पर आर्यिका दीक्षा | पाप का ही बंध होता है। लेकर पुन: वनवास का ही जीवन स्वीकार करना है । राजमहल सीता सती ने अग्निपरीक्षा में सकुशलता से सफलता की पट्टरानी को जीवन के भोगोपभोगों से वितृष्णा हो गई थी। प्राप्त की। देव-मानवादि के द्वारा इस अभूतपूर्व घटना के लिए किसी के प्रति कोई राग द्वेष तो रंचमात्र भी नहीं था। पर यह तो | सीता माता वन्दित एवं अभिनन्दित हुईं। अब राजाधिराज आज सोचना पड़ता है कि असहाय अबला नारी पर पुरुष का | रामचन्द्रजी के एकान्त आन्तरिक अनुनय-विनय के प्रति जरा अत्याचार प्राचीन काल से होता आया है। भी दृष्टिपात नहीं करते हुए सीता जी ने आर्यिका दीक्षा ग्रहण संकल्प में शक्ति होती है, एक ऐसी शक्ति जो कि | कर ली। जिन राजा एवं स्वामी रामचन्द्रजी के चरण कमलों को असम्भव लगने जैसे कार्य को भी सहज ही सम्पादित कर | रानी सीता नमन करती थीं, उन्हीं पति रामचन्द्रजी ने आर्यिका सकती है। एक-दो बार प्राणों की बाजी लगाने पर ही ऐसी | सीता साध्वी माताजी के पादपदमों में अभिवन्दन किया। त्याग शक्ति का ज्ञान और श्रद्धान के द्वारा ही प्रादुर्भाव होता है। एक बार भी प्रयोग सफल हो गया तो मनुष्य मोक्ष जाने तक पथ में सीता आर्यिका माताजी ने कठोर तपस्या की। दीर्घकाल आनेवाली बाधा-विपत्तियों को सहज ही जय करता जाता है। तक वनवास का जीवन जीने का अभ्यास जो पूर्व में हुआ था इस विधि में प्राथमिक अवस्था में प्रतिकूलता में ही समतापूर्वक | वह अब काम आ रहा था। उस घोर तप के द्वारा स्त्रीपर्याय का अपनी साहिष्णुता बढ़ाते जाना पड़ता है। जैन सिद्धान्त में | छेद करके देवपर्याय में स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद को प्राप्त किया। अनुकूलता में भी २२ परिषहों को आह्वान करके जीतने का नाम | भविष्य में मनुष्य पर्याय से तपस्या करके उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा। ईमानदार इन्सान का इम्तिहान ब्र. शांति कुमार जैन करीब 20 वर्ष पहले की घटना है। असम के एक सुन्दर शहर तेजपुर में रात्रि ९ बजे मन्दिर में प्रवचन करके प्रतिदिन की भाँति पत्नी के साथ घर पैदल ही जा रहा था। दुकान में दिनभर की विक्री के रु. ४५००.०० एवं कुछ जरूरी कागजाद एक सफेद छोटी थैली में रखकर कमर में बाँयी ओर धोती के साथ खोंस लिये थे। आपस में बातें करते-करते आराम से जा रहे थे। घर थोड़ी दूर पर था। रास्ते में सन्नाटा था। रास्ते में बाँयी तरफ से चल रहे थे। घर पहुँचने से कुछ पहले ही अचानक कमर पर हाथ लगा तो मालूम हुआ कि थैली अपने स्थान पर नहीं है। रास्ते में थैली कब, कहाँ गिर गई कुछ पता नहीं। एकाएक सन्न से घबराहट से हाथ पैर सुन्न होने लगे। पत्नी ने धीरज बँधाया एवं खोजने वापस चलने को कहा। रास्ते में जिस तरफ से आये थे पुनः उसी आर से टार्च जलाकर देखते खोजते चले पर थैली कहीं नहीं मिली। रुपयों से भी अधिक मूल्यवान तो कागजाद थे। हताश भारी मन से घर लौटने लगे। लौटते में भी टार्च जलाकर रास्ते में खोजते ही जा रहे थे। तभी दो साइकिल के साथ चार व्यक्ति मिले। हमें रोककर उनमें से एक ने पूछा कि हम क्या खोज रहे हैं? हमन शोक सन्ताप के स्वर में थैली के गिर जाने की बात कही तो उन महानुभाव ने थैली हमें दिखाई तो हमने पहचान की स्वीकृति दी। थैली देखकर जान में जान तो आई पर अभी वह उन्हीं के हाथ में थी। शेष ३व्यक्ति कुछ नहीं बोल रहे थे, मात्र देख रहे थे। उस आसामी सज्जन ने हमें थैली दे दी और कहा कि रुपये गिनकर देख लेवें कि ठीक तो हैं न। हमने कहा कि क्या गिनना है, लेना ही होता, तो देते ही क्यों? हमने उन सबका धन्यवाद किया, आभार प्रकट किया। उस ईमानदार इन्सान ने बताया कि थैली तो जाते में ही मिल गई थी। थैली के मालिक की सही पहचान करने की खोज भी उनको थी। बातों से लगा कि जिनको थैली मिली थी वे ही उसे लौटाने की जिद करके वापस पैदल चल कर आ रहे थे। जी तो किया कि उस ईमानदार इन्सान के पैर छू लें। हमने पुरस्कार के रूप में कुछ देना चाहा, तो उन्होंने जो कहा वह आज भी दिल दिमाग में बैठा है। कहा कि लेना ही होता तो देते ही क्यों? यह तो एक इम्तिहान था जिसमें पूर्ण संख्या प्राप्त कर पाये, यही पर्याप्त है। धरती पर आज भी देवतुल्य मानव हैं पर संख्या भले ही अल्प हो। 18 अगस्त 2005 जिनभाषित - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य समन्तभद्र और उनकी स्तुतिपरक रचनाएँ जैन शासन के प्रतिभाशाली आचार्यों में स्वामी समन्तभद्र का स्थान सर्वोपरि है। श्रमणवेलगोल के शिलालेख क्र. १०८ में आपको 'जिनशासन प्रणेता' लिखा गया । ये क्षत्रियवंश में उत्पन्न राजपुत्र थे । आपके पिता फणिमण्डलान्तर्गत ‘उरगपुर' के राजा थे, अस्तु उरगपुर को आपकी जन्मभूमि या बाल्यलीला भूमि होना चाहिए। 'राजावलीकथे' में आपकी जन्मभूमि' उत्कलिका' ग्राम लिखा है, जो उरगपुर के अन्तर्गत होगा । उरगपुर नगर काबेरी नदी पर बसा हुआ एक समृद्धशाली जनपद था । यदि कदम्बवंशी राजा शान्तिवर्मा और शान्तिवर्मा समन्तभद्र, दोनों एक ही व्यक्ति थे, तो आपने गृहस्थाश्रम को धारण किया था और विवाह भी कराया था । तथा आपके मृगेशवर्मा नाम का पुत्र था । दक्षिण में कदम्बवंशी राजा प्रायः सब जैनी हुए हैं। परन्तु दोनों की नाम साम्यता के पुष्ट प्रमाण नहीं हैं। आप ज्यादा दिन गृहस्थाश्रम में नहीं रहे और जल्दी ही मुनि दीक्षा धारण कर ली। आपकी असाधारण योग्यता इस बात को बताती है कि आप बाल्यावस्था से ही जैनधर्म और जिनेन्द्रदेव की सेवा के लिए अर्पित हो गए थे। सम्भव है पिता की मृत्यु के उपरान्त इनके बड़े भाई को राज्याधिकारी मनोनीत कर दिया गया हो और इन्होंने विवाह न कराकर, धार्मिक परिवेष में ढल जाने के कारण जल्दी ही दीक्षित होकर उरगपुर से बाहर चले गये हों । के आपकी शिक्षा उरगपुर के बाद, कांची अथवा मदुरा में हुई जान पड़ती है, क्योंकि ये तीनों स्थान उस समय विद्या मुख्य केन्द्र थे । 'कांच्यां नग्नाटकोऽहं' से ऐसा जान पड़ता है कि कांची (कांजीवरम्) आपका दीक्षा स्थान था । दीक्षा गुरु कौन थे यह किसी ग्रन्थ में उल्लेखित नहीं मिला, परन्तु इतना अवश्य है कि वे मूलसंघ के प्रधान आचार्यों में एक थे । श्रवणबेलगोल के शिलालेखों से ऐसा पता चलता है कि आप श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्त और उनके वंशज पद्यनन्दि और उमास्वाति आचार्यों की वंश परम्परा में हुए हैं। गुणादि परिचय 'गुणतोगणीश: ' विशेषण के द्वारा स्वामी समन्तभद्र को सूचित किया गया है। आप भद्र परिणामी, भद्रावलोकी और भद्रव्यवहारी थे, अतः आपका नाम दीक्षा के समय ही प्राचार्य पं. निहालचन्द्र जैन समन्तभद्र रक्खा गया हो। आपकी तेजपूर्ण दृष्टि और सारगर्भित उक्तियां, मदोन्मत्तों को नतमस्तक करने वाली थी। आप जैन सिद्धान्तों के मर्मज्ञ होने के साथ-साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्य-कोषादि में पूर्णत: निष्णात थे 1 आपकी अलौकिक प्रतिभा ने तात्कालिक ज्ञान एवं विज्ञान के प्रायः सभी विषयों पर अधिकार जमा लिया था । आप संस्कृत, कन्नड़, प्राकृत और तमिल भाषा के पारंगत विद्वान थे । प्रायः सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में विद्यमान हैं। संस्कृत भाषा की 'स्तुतिविद्या' ही आपके अद्वितीय शब्दाधिपत्य को सूचित करती है । कन्नड़ भाषा के काव्य जगत के आप एक उत्कृष्ट कवि के रूप में भूरि-भूरि प्रशंसा को प्राप्त हुए थे। आदि पुराण में भगवज्जिनसेनाचार्य ने आपके गुणों को रेखांकित करते हुए निम्नलिखित दो श्लोक लिखे जो प्रासंगिक हैं यद्वचो नमः समन्तभद्राय महते कवि वेधसे । यो वज्र पातेन निर्भिन्ना कुमताद्रय ॥ ४३ ॥ कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं, मूहिर्न चूडामणीयते ॥ ४४॥ आपकी असाधारण योग्यता इन चार गुणों के रूप में यशस्वी बनी : कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व | जिनकी वचन प्रवृत्ति विजय की ओर हो, वे वादी कहलाते हैं। जो अपनी वाक्पटुता तथा शब्दचातुरी से दूसरों को रंजायमान कर लेते हैं, वे वाग्मी कहलाते हैं । कवित्व में मौलिक रचनाएं करने में आप पूर्ण समर्थ थे। जो दूसरे विद्वानों की कृतियों के मर्म को समझने तथा उनकी तह तक पहुँचने में दक्ष हो वह 'गमक' संज्ञा पाता है। स्वामी समन्तभद्र में उक्त चारों गुण विद्यमान थे। वे अपने वचन रूपी वज्रपात से कुमत रूपी पर्वत को खण्ड-खण्ड करने वाले थे । 11 श्रवणवेलगोल शिलालेख (२५४ नया नं.) जो शक सम्वत् १३२० का है, में आपको "वादीभवज्रांकुशसूक्तिजाल' विशेषण से स्मरण किया गया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रधान आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने आपको 'अनेकान्त जयपताका' और 'वादिमुख्य' विशेषण दिया है । 'राजावलिकथे' से यह ज्ञात होता है कि समन्तभद्र कौशाम्बी (इलाहाबाद के निकट यमुना तट पर स्थित नगरी), लाम्बुश, पुण्डु (उ. बंगाल का पुण्ड्र नगर), दशपुर (आधुनिक मन्दसौर अगस्त 2005 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालवा) और वाराणसी में कुछ-कुछ समय तक रहे। बनारस | करते थे। में वहाँ के राजा को सम्बोधन करके यह वाक्य कहा था : | पार्श्वनाथचरित के रचयिता श्री वादिराजसूरि ने "राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन | देवागम और रत्नकरण्ड नाम के दो ग्रन्थों का उल्लेख करते निर्ग्रन्थवादी" हुए स्वामी समन्तभद्र के चरित्र को आश्चर्यजनक बताया। ___अर्थात् हे राजन् ! मैं जैन निर्ग्रन्थवादी हूँ, जिस किसी | वे निश्चय से योगीन्द्र और त्यागी होते हुए भी भव्य जनों को की शक्ति मुझसे वाद करने की हो वह सन्मुख होकर वाद | अक्षय सुख का कारण रत्नों का पिटारा दान दिया। विश्व करे। वहाँ आपने मिथ्र्यकान्तवादियों को परास्त करके स्तुतिपात्र कुटुम्ब की भावना से वे अनुप्राणित रहे। उन्होंने महत्, नि:सीम बने थे। पुण्य को संचित कर भावी तीर्थंकर के रूप में धर्मतीर्थ को समन्तभद्र के संबंध में एक उल्लेख मिलता है कि वे | चलानेवाले होंगे, ऐसा कितने ही ग्रन्थों में उल्लेख पाया जाता चारणऋद्धि से युक्त थे अर्थात् तप के प्रभाव से चलने की | है। राजावलिक थे में “आ भावि तीर्थंकर न अप्प ऐसी शक्ति प्राप्त हो गयी थी, जिससे वे दूसरों को बाधा न | समन्तभद्रष्यामि गलु।" समन्तभद्र स्वामी महान अर्हद्भक्त पहुँचाते हुए शीघ्रता से सैकड़ों कोस चले जाते थे। इस प्रकार | थे। अत: उन्होने चरमोत्कर्ष अर्हत्सेवा के लिए, भावी तीर्थंकर आपको सुदूर देशों की यात्रा करना कठिन नहीं था। इसी से | होने के योग्य पुण्य संचय किया। आपके कुछ ग्रन्थों को वे भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में आसानी से घूम सके थे। | छोड़कर, शेष सब ग्रन्थ स्तोत्रों के रूप में ही हैं। समन्तभद्र समन्तभद्र के जीवन की सफलता का रहस्य उनके | स्तुति रचना के इतने प्रेमी क्यों थे और उन्होंने इस मार्ग को अन्त:करण की शुद्धता, चरित्र की निर्मलता और वाणी की | क्यों चुना? इसका कारण उनका भक्ति उद्रेक हो सकता है हितकामना थी। उनमें अपने अहंकार को दिखाने, लौकिक | परन्तु विशिष्ट कारण अपने स्वयम्भूस्तोत्र में लिखते हैं- "स्तुति स्वार्थ को सिद्ध करने और दूसरों को नीचा दिखाने की कतई | के समय, स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो, फल की प्राप्ति भावना नहीं थी। वे स्वयं सन्मार्ग पर आरूढ़ होकर, दूसरे | सीधी उसके द्वारा हो या न हो, परन्तु स्तोता की स्तुति, पुण्य कुमार्ग में फंसे लोगों को अपनी शक्ति भर उद्धार करके उन्हें | प्रसाधक परिणामों की कारण जरूर होती है, जिससे श्रेयसफल भी सन्मार्ग पर लगाने का प्रयास करते थे। वे स्वात्म हित | मिलता है, अत: विवेकीजन आपकी स्तुति जरूर करेगा। साधन के बाद दूसरों का हित साधन करने वाले महान् | समन्तभद्र ने अपने स्तोत्रों के द्वारा श्रेयोमार्ग को सुलभ और आचार्य थे। स्वाधीन मानते थे। जिनस्तुति शतक में इसे "जन्मारण्यशिखी समन्तभद्र के वचनों में खास विशेषता यह थी कि वे | स्तवः" कहकर, स्तुति को जन्म-मरण रूपी संसार वन को स्याद्वाद न्याय की तुला में तुले हुए वचन उद्भूत करते थे। वे | भस्म करनेवाली अग्नि कहा है। समन्तभद्र वास्तव में ज्ञानगंगा परीक्षा प्रधानी थे और पक्षपात को बिल्कुल पसंद नहीं करते | कर्मयोग और भक्तियोग तीनों के एकाकार रूप जीवन्त मूर्ति थे। उन्होंने महावीर तक की परीक्षा कर डाली और तभी | थे। उन्हें आप्त रूप से स्वीकार किया। वे समर्थ यक्तियों द्वारा | मनि जीवन अच्छी तरह से जाँच करते, गुण-दोषों का पता लगाते, तब | | आपका मुनि जीवन अनेक घटनाओं से भरा है। उसे स्वीकार करते थे। वे किसी वस्तु या विचार को जबरदस्ती | कांची के समीपस्थ 'मणुवकहल्ली' ग्राम में आनंदपूर्वक किसी के गले नहीं उतारते थे। वे विचारों का चिन्तन सब | मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे, तभी पूर्व संचित असातावेदनीय पहलओं से करते थे। उन्होंने अनेकान्त को अपने व्यावहारिक कर्म के तीव्र उदय से, आपके शरीर में 'भस्मक' नाम का जीवन में आत्मसात किया था। महारोग उत्पन्न हो गया। इस रोग के कारण आपका शरीर समन्तभद्र स्याद्वादविद्या के अद्वितीय अधिपति थे। | क्षीण होने लगा। प्रारम्भ में वे इसे अनशनादि तप के रूप में उनकी प्रत्येक क्रिया से अनेकानत की ध्वनि निकलती थी। क्षधा परिषह जानकर सहन करते रहे। लेकिन क्षुधा की उन्होंने स्याद्वाद की छत्रछाया में, अपने अज्ञान ताप को मिटाकर अतितीब्रता के कारण, उन्हें बडी वेदना होने लगी। दुबारा सुख का साम्राज्य भोगा। आप्तमीमांसा' उनका स्याद्वाद विद्या | भोजन करना या स्निग्ध, मधुर, शीतल, गरिष्ठ भोजन तैयार का कथन करनेवाला अपूर्व ग्रन्थ है। आपका प्रभाव अत्यन्त | करने की प्रेरणा मुनिधर्म के विरुद्ध था। अत: उत्कर्ष पर रहा, अत: विद्वान लोग आपको स्याद्वादविद्याग्रगुरु', | असाध्य जानकर सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण का विचार 'स्याद्वादविद्याधिपति' आदि विशेषणों के द्वारा आपको स्मरण | बनाया। परन्तु उनके अन्त:करण से एक दूसरी आवाज 20 अगस्त 2005 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आई-समन्तभद्र ! तू जैन शासन का उद्धार करने व उसका । डूब गया। उसने अगले दिन उत्तम भोग भेंट किया और प्रचार करने में समर्थ है अनेक लोकहित के कार्य, तेरे | शिवार्पण के लिए प्रार्थना की। इस तरह दिन गुजरते गये। कारण होंगे। अत: लोकहित के लिए तू कुछ समय के लिए | कुछ दिन बाद जठराग्नि उपशान्त होने लगी और भोग शेष मुनिपद छोड़ दे और भोजन के योग्य व्यवस्था द्वारा रोग को बचने लगा। समन्तभद्र ने आगत उपसर्ग को अनुभव किया शान्त करके पुनः मुनिपद धारण कर लेवे तो कौन सी हानि | और उसकी निवृत्तिपर्यन्त आहार त्याग करके शरीर से ममत्त्व है? त्यागकर भक्ति के साथ-वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों की इससे भीतर के श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र भाव में जरा | स्तुतिरूप 'स्वयम्भूस्तोत्र' के द्वारा गुणस्तवन करने लगे। राजा भी क्षति नहीं पहुँचेगी। वे एक सदगुणालंकृत गुरुदेव के | के समक्ष जब समन्तभद्र आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की स्तुति पास गये और सारी बातें गुरू के समक्ष रख दी। उन्होंने | करते हुए भीमलिंग की ओर दृष्टि की तो उस स्थान पर समन्तभद्र की सल्लेखना की बात को अस्वीकार करते हुए | दिव्य शक्ति के प्रताप से अर्हन्त भगवान का सुवर्णमय विशाल बड़े प्रेम पूर्वक समझाया कि अभी तेरी आयु के अन्त का | बिम्ब प्रकट होता हुआ दिखाई दिया, तभी उन्होंने दरवाजा समय नहीं आया है। तुम्हारे द्वारा धर्म का उद्धार होना है, | खोल दिया और शेष तीर्थंकरों की स्तुति में तल्लीन हो गए। अत: मेरी आज्ञा है कि अन्यत्र जाकर और इस मुनिपद को | शिवकोटि राजा यह सब माहात्म्य देखकर अत्यन्त त्यागकर रोगोपशमन के योग्य तृप्तिपर्यन्त भोजन प्राप्त करो। | प्रभावित हुए और उनके चरणों में गिर पड़े। इसके बाद फिर रोग के उपशान्त होने पर पुनः जैन मुनि दीक्षा धारण | समन्तभद्र के मुख से धर्म का विस्तृत स्वरूप सुनकर राजा कर लेना। गुरुजी के वचनों को सुनकर उन्होने सल्लेखना | संसार, देह और भोगों से विरक्त हो गया और अपने पुत्र का विचार छोड दिया और शरीर पर भस्म आच्छादित कर | 'श्रीकंठ' को राज्य देकर अपने छोटे भाई शिवायन सहित कांची पहुंचे। मुनि महाराज से जिनदीक्षा धारण कर ली। इस प्रकार कांची में शिवकोटि राजा के पास पहुँचकर वहाँ के | 'भस्मक' रोग शान्त होने पर समन्तभद्र का आपात्काल भीमलिंग शिवालय गये। राजा ने उनकी भद्राकृति देखकर | समाप्त हुआ और उन्होंने फिर से मुनि दीक्षा धारण कर ली। तथा शिवभक्त समझकर प्रणाम किया। भीमलिंग शिवालय उक्त सम्पूर्ण घटना आज से ८०० वर्ष पूर्व श्रवणवेलगोल में प्रतिदिन १२ खंडुग (४० सेर का एक खंड्ग) परिमाण | के एक शिलालेख पर लिखी है। 'पद्मावती' दिव्य शक्ति के का तन्दुल आदि का भोग चढ़ाया जाता था। समन्तभद्र ने यह | द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति हुई और जिन्होंने अपने मन्त्रकहकर कि मैं तुम्हारा यह नैवेद्य शिवार्पण करूँगा। उन्होंने | वचनों से बिम्बरूप चन्द्रप्रभ को बुला लिया। इस प्रकार उस भोजन के साथ मंदिर में आसन ग्रहण किया और किवाड़ | कल्याणकारी जिनप्रभावना करके वे इस कलिकाल में बन्द करके सबको चले जाने की आज्ञा दी और स्वयं को | वन्दनीय हो गये। भोजन की आहुतियां देने लगे। जब पूरा भोग समाप्त हो गया क्रमशः... तो दरवाजा खोल दिया गया। राजा यह देखकर आश्चर्य में जवाहर वार्ड, बीना (म.प्र.) औलाद के दुश्मन श्रीमती सुशीला पाटनी जो माँ-बाप अपनी औलाद की गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं, ऐसे माँ-बाप औलाद के दुश्मन होते हैं। अगर संतान गलती करती है और उसे सही समय पर नहीं टोका जाता है, तो संतान का साहस दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है और एक दिन ऐसा आता है, जब वह संतान अपनी सारी हदें पार कर देती है और वही संतान उन माँ-बाप के लिए नासूर बन जाती है। संतान पर स्नेह होना स्वाभाविक है, किन्तु उस स्नेह में अन्धे हो जाना अकलमंदी नहीं, मूर्खता है। कई माँ-बाप तो अपनी संतान की बुराईयों को सुनना तक पसन्द नहीं करते, क्योंकि उनकी आँखों पर अपनी औलाद की अच्छाइयों का रंगीन चश्मा लगा होता है और एक दिन ऐसा आता है जब पछताने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता है। अत: माँ-बाप को चाहिए कि वे अपनी संतान की अच्छाइयों के साथ-साथ बुराइयों पर भी ध्यान दें, ताकि संतान गलत राह पर अग्रसर न हो सके। किसी कवि ने ठीक ही कहा है"अगर मर्ज बढ़ता गया तो दवा भी क्या असर करेगी, औलाद की गलतियों को अनदेखा करनेवाले एक दिन जरूर पछताएंगे।" आर.के. मार्बल प्रा.लि., मदनगंज-किशनगढ़ अगस्त 2005 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाकाहार : एक डॉ. चीरंजीलाल बगड़ा शाकाहार एक स्वाभाविक एवम् प्राकृतिक जीवन-शैली का नाम | मनुष्य के मूल अस्तित्व के साथ इसका सदैव से जुड़ाव रहा है। जीवाश्म विज्ञानी डॉ. एलन वॉकर (मैरीलैंड जान हापकिंस विश्वविद्यालय) की वर्षों की खोज का निष्कर्ष है कि मनुष्य का अस्तित्व पंद्रह करोड़ वर्ष प्राचीन है। तथा प्रारंभ चौदह करोड़ पचानवे लाख वर्ष तक मनुष्य ने फल-फूल, कंद-मूल, पत्ते, पौधे आदि खाकर ही अपनी उदर- पूर्ति की यह धर्म-निरपेक्ष जीवनशैली है। शाकाहार उस पवित्र भावना का शंखनाद है कि धरती का एक-एक तत्त्व पवित्र है । लता और उन पर खिलनेवाली कलियाँ हमारी बहनें हैं, पशु-पक्षी हमारे सहोदर हैं, मौसम की ठण्डक और मनुष्य की ऊष्मा हमारे कुटुम्बी हैं, धरती हमारी मां है तथा आकाश हमारा पिता । सहअस्तित्व को ऐसे आत्मीयभाव से जोड़नेवाली सौगात का नाम है शाकाहार - जीवनशैली। मांसाहारी भोजन ग्रहण करना है। उन्होंने अपनी शोध से शाकाहार के साथ अनेक नये आयाम जोड़े हैं तथा मांसाहार से मिट्टी की उर्वरता, पेट्रोल का रिजर्व, जल की बर्बादी, वृक्षों में कमी, खाद एवं कीटनाशक के दुष्प्रभाव तथा मातृ-दुग्ध तक में जहर होने के अनेक तथ्यपूर्ण आंकड़े संकलित किए हैं। यह पुस्तक बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक प्रभावशाली पुस्तक मानी गयी है । फलस्वरुप अमेरिका और यूरोप में आज शाकाहार एक सशक्त आन्दोलन बन चुका है। अमेरिका के एक करोड़ चालीस लाख व्यक्ति मांसाहार त्यागकर शाकाहारी जीवनशैली को सहर्ष स्वीकार कर चुके हैं। गार्जियन अखबार की भविष्यवाणी के अनुसार आगामी बीस वर्षों में अमेरिका की करीब आधी आबादी शाकाहारी बन जानी चाहिए। । वस्तुत: प्रकृति पर आधारित सहजीवी जीवन-विद्या में हिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा है। पूज्यपाद उमास्वामी के परस्परोपग्रहो जीवानाम् का मूलमंत्र शाकाहार में अन्तर्निहित है, जो हर प्राणी को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ता है। शाकाहार में हर धड़कते प्राण की सम्मान-भावना है और शाकाहार के प्रांगण में ही मैत्री और भ्रातृत्व फूल खिल सकते हैं। शाकाहार का शा शांति का, का कान्ति का, हा हार्द (स्नेह) का, और र रसा या रक्षा का परिचायक है। अर्थात् शाकाहार हमें शांति, कान्ति, स्नेह एवं रसों से परिपूर्ण कर हमारी मानवता की रक्षा करता है। आधुनिक भौतिकवाद एवं वैश्वीकरण की आपाधापी के इस युग ने वर्तमान विश्व के समक्ष कुछ विशेष समस्याएँ पैदा की हैं तथा अधिकांश आधुनिक वैज्ञानिकों का यह मत है कि उन सबका इलाज शाकाहार में ही निहित है । बिगड़ता पर्यावरण, गिरता मानव-स्वास्थ्य, नित नई बीमारियों का आतंक, कुपोषण आदि हमारी आज की कुछ प्रमुख बुनियादी समस्याएँ हैं । प्रसिद्ध वैज्ञानिक वी. विश्वनाथ ने अपनी शोध से यह स्थापित किया है कि स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से शाकाहार अधिक बेहतर एवं आदर्श आहार है। अमेरिका के सुप्रसिद्ध लेखक जॉन रॉबिन्स ने डाईट फॉर ए न्यू अमेरिका में अनेकों तथ्यों एवं शोधपूर्ण आंकड़ों से यह सिद्ध किया है कि किसी भी देश की सभ्यता के विनाश के मूल में वहां के निवासियों का | 22 अगस्त 2005 जिनभाषित जीवन्त आहार एक बहुत बड़ी भ्रान्ति है कि यदि तमाम मांसाहारी शाकाहारी बन जाएँ तो उनके लिए अनाज उपलब्ध नहीं होगा । तथ्य यह है कि शाकाहार संतुलित सामाजिक पर्यावरण हेतु एक अपरिहार्य शर्त है, क्योंकि इससे प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय रुकता है। जहां एक किलो गेहूं के लिए 50 गैलन जल की जरूरत होती है, वहीं एक किलो गौमांस के लिए 10,000 गैलन जल की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार जहाँ एक शाकाहारी 0.72 एकड़ भूमि से अपना जीवन यापन कर लेता है, वहीं मांसाहारी के लिए 1.63 एकड़ जमीन की आवश्यकता पड़ती है। अमेरिका के एक प्रकाशित आंकड़े के अनुसार एक एकड़ भूमि से लगभग 20,000 किलो आलू उत्पादन किया जा सकता है, जबकि उतनी ही भूमि से गौमांस सिर्फ 125 किलो ही मिल सकता है। समुद्रपारीय विकास परिषद के लीस्टर ब्राउन का कहना है कि यदि अकेले अमेरिका के लोग अपने मांसाहार में दस फीसदी की कटौती कर दें, तो इससे सालाना 120 लाख टन अनाज की बचत होगी, जिससे 6 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है, जो अन्यथा प्रतिवर्ष भूख से मर जाते हैं। अत: मांसाहार पूर्णरूप से पर्यावरण-विरोधी आहार है। सत्तर के दशक में रिओ द जेनेरो में आयोजित प्रसिद्ध पृथ्वी महासम्मेलन में यह बात बहुत अच्छी तरह स्वीकृत हो गई कि पर्यावरण संयोजित रखने में पशुओं की बहुत अहम भूमिका है। पशु एवं प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति वहाँ भारी चिन्ता व्यक्त की गई एवं हर कीमत पर उनको बचाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया। पाकिस्तान की भू. पू. प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो तक ने शाकाहार को स्वीकार करते हुए मांसाहार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को भूखे भेड़ियों का भोजन कहा। इसी रिओ सम्मेलन में तत्कालीन | एसिड कम होता है, जबकि मांसाहारी में यह दस गुणा अधिक भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जब प्रेस साक्षात्कार में | होता है। शाकाहारी की लार क्षारीय होती है और मांसाहारी की भारत के बैल-युग के बारे में पूछा तो उनका उत्तर था कि भारत | अम्लीय। अत: इस वैज्ञानिक संरचना से भी यह सुस्पष्ट है कि में लाखों करोड़ों के नियोजन से प्राप्त ऊर्जा से अधिक ऊर्जा .| मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी है। आज भी भारत में पशु ऊर्जा से प्राप्त होती है। पर्यावरण के | संसार के सर्वाधिक शक्तिशाली जानवर हाथी, शक्ति का दूषित होने की समस्या हिंसा से जुडी है। बिना दूसरे प्राणिओं मानक घोड़ा, बलिष्ठ पशु गैंडा सर्वाधिक उपयोगी एवं दूध के वध किए मांस प्राप्त नहीं हो सकता है। संसार का हर प्राणी देनेवाली गाय एवं भैंसें सब पूर्ण शाकाहारी पशु हैं। अमेरिका के जीना चाहता है। जब हम किसी को जीवन दे नहीं सकते हैं, तो हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डॉ. ए. वाचमैन एवं जीवन समाप्त करने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। डॉ.डी.एस.बर्नस्टीन ने अपनी खोजों से यह निष्कर्ष दिया है कि शाकाहार का अर्थ है- हर धड़कन का सम्मान। शाकाहार में जिनकी हड्डियाँ कमजोर हों, उन्हें मांसाहार छोड़कर शाकाहार, दसरों को द:ख पहँचाकर पेट भरने के लिए कोई स्थान नहीं है। | अधिक सब्जियाँ प्रोटीन एवं दध का सेवन करना चाहिए। तभी तो जार्ज बर्नाड शॉ ने कहा था, "मेरा पेट कब्रिस्तान नहीं चिकित्सकों का यह मानना है कि कैंसर, रक्तचाप, है, जहाँ मृत पशुओं को दफन किया जा सके।" वात, ह्रदय रोग, डायबिटीज तथा अधिकांश आधुनिक बीमारियाँ लम्बी आयु, निरोगी काया, शाकाहार की ऐसी माया। शाकाहारी की अपेक्षा मांसाहारी को होने की संभावना बहुत शाकाहार से ही मनुष्य पूर्ण एवं लम्बी आयु सरलता से पा अधिक रहती है। कारण, शाकाहार में कोलेस्ट्रॉल कम एवं वसा सकता है। जापान में किए गए अध्ययनों से ज्ञात होता है कि अधिक पाया जाता है, जबकि मांसाहार में कोलेस्ट्रॉल अधिक शाकाहारी न केवल स्वस्थ एवं निरोग रहते हैं अपितु दीर्घजीवी एवं रसा शून्य है। अत: अमेरिका,इग्लैंड में डाक्टर रोग से भी होते हैं और उनकी बुद्धि भी अपेक्षाकृत कुशाग्र होती है। छुटकारा पाने के लिए शाकाहारी भोजन अपनाने की सलाह देते बाइबिल में लिखा है- तुम यदि शाकाहार करोगे, तो तुम्हें | हैं। लंदन से बी.बी.सी. टेलीविजन द्वारा सप्ताह में एक अण्डे से जीवन-ऊर्जा प्राप्त होगी; किन्तु यदि तुम मांसाहार करते हो, तो अधिक सेवन न करने की जनता को सलाह दी जाती है। वह मृत आहार तुम्हें भी मृत बना देगा। इंग्लैड की वेजीटेरियन सोसायटी, जिसकी स्थापना 1847 रोगों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में फाइबर का बड़ा | में हुई थी तथा जिसकी सभाओं की शोभा जार्ज बर्नार्ड शॉ और महत्व है। मांसाहार में फाइबर बिल्कल नहीं (शन्य) होता है. | महात्मा गांधी जैसे विश्वविश्रुत महामानव बढ़ाते थे, यूरोप की जबकि शाकाहारी खाद्यान्न में फाइबर (दाल या अनाज का सर्वाधिक प्राचीन शाकाहारी संस्था है। इसने शाकाहार शब्द को ऊपरी छिलका) के साथ संतुलित आहार के सभी तत्व जैसे व्यापक अर्थ दिया। सम्पूर्ण, निर्दोष, स्वस्थ, ताजा और जीवन्त प्रोटीन, वसा,कार्बोहाइड्रेट, खनिज-लवण, विटामिन आदि भी आहार यानी शाकाहार एक निर्दोष एवं सम्पूर्ण आहार है, जो सुलभता से प्राप्त हो जाते हैं। वनस्पति, अनाज, दालें, दूध,फल व्यक्ति को स्वस्थ,ताजा और जीवन्त बनाए रखता है। .. एवं सब्जियों में प्रचुर मात्रा में इनका समावेश है। अपने दैनंदिन कार्य हेतु एक व्यक्ति को जितनी ऊर्जा जरूरी होती है, वह इस प्रकार शाकाहार मानवीय अस्मिता का दीप-स्तंभ शाकाहार में सहज ही सुलभ हो जाती है तथा वह भी काफी | है। शाकाहार मानव को प्रकृति का अनुपम उपहार है। यह किफायती कीमत पर। जीवन-मूल्यों का स्वर्ण-किरीट है। शाकाहार संयम का अमृत | पाथेय और सर्वमान्य, निरापद एवं समृद्ध आहार है। आज सम्पूर्ण सृष्टि में एक भी ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन है आवश्यकता है हमें जनमानस में इस विश्वास को गहरे बैठाने की जो मात्र मांसाहार पर जीवन-यापन करता हो, जबकि ऐसे कि ऐसी राजनीति जो मांस की खपत को बढ़ावा दे, मांसकरोडों व्यक्ति हैं जो जीवनपर्यंत सिर्फ शाकाहार पर स्वाभाविक निर्यात को प्रोत्साहन दे, एक विषकन्या की तरह है। ऐसे में रूप से जीवनयापन करते हैं। अर्थात् शाकाहार अपने में संपूर्ण आज मांसाहार की वीभत्सता एवं बहु-आयामी नुकसान को संतुलित आहार है। उजागर करने एवं शाकाहार को विश्वमंच पर पूर्ण स्थापित कर मानव की शारीरिक रचना भी शाकाहार के ही अनकल प्रमख आहार के रूप में महिमामण्डित करने हेत वैचारिक है। मानव के दांत,आंत, नाखून, जीभ, शक्ति सभी मांसाहारी क्रांति की परम आवश्यकता है। प्राणी से भिन्न हैं । शाकाहारी को पसीना आता है, मांसाहारी को 46,स्ट्रॉण्ड रोड, तीन तल्ला, कोलकाता-700007 नहीं आता है; क्योंकि शाकाहारी के अंगों में हाइड्रोक्लोरिक अगस्त 2005 जिनभाषित 23 मान Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा : सम्यग्दर्शन के 63 गुण कौन से होते हैं, , त्याग) निदान शल्य का त्याग(विषय सुख की अभिलाषा समझाईये? रुप निदान शल्य का त्याग) समाधान : कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 326 की टीका में | ____ (ऊ) अष्ट मूलगुण के धारण रुप आठ गुण (मद्य, इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है, उसी के अनसार यहाँ | मांस, मधु एवं पंच उदुम्बर फलों का त्याग) वर्णन कर रहे हैं। (ए) सप्तव्यसन के त्याग रुप सात गुण : जुआ (अ) सम्यक्त्व के 25 गुण : 3 मूढ़ता (लोकमूढ़ता, खेलना, माँस भक्षण करना, मदिरापान करना, वेश्यासेवन करना,शिकार करना, चोरी करना तथा परस्त्री सेवन करना देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता)आठ मद (ज्ञानमद, पूजामद, इन सात व्यसनों का त्याग करना। कुलमद, जातिमद, बलमद,ऋद्धिमद, तपमद, रुपमद) छह अनायतन (कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु तथा उनके सेवक) इसप्रकार 25+8+ 5 +7+ 3+8 + 7-63 गुण से तथा आठ शंकादि दोष (शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, विशिष्ट सम्यग्दृष्टि, विशेष पूजा का पात्र होता है। इनमें से अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना) इन 25 प्रथम 48 तो मूलगुण और अन्त के 15 को उत्तरगुण कहा दोषों को टालने से सम्यक्त्व के 25 गुण होते हैं। गया है। (आ) सम्यक्त्व के आठ गुण : संवेग (धर्म और | प्रश्नकर्ता : सौ. ज्योति लुहाड़े , कोपरगांव धर्म के फल में अनुराग होना) निर्वेद (संसार,शरीर और जिज्ञासा : कौन से निगोद से आया हुआ जीव कौन से विरक्ति) निन्दा (अपने दोषों को कहना) गर्दा (गरु | सा संयम धारण कर सकता है? की साक्षी में अपने दोष कहना)उपशम (कषायों की मन्दता समाधान : नित्यनिगोद तथा इतरनिगोद से निकले होना) भक्ति (रत्नत्रय और रत्नत्रय के धारकों की भक्ति | जीव सीधे मनुष्य बनकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। भगवती करना) अनुकम्पा (प्राणि मात्र पर दया करना) वात्सल्य आराधना गाथा 17 का अर्थ इसप्रकार है, 'अनादिकाल से (साधर्मियों से नि:स्वार्थ प्रीति करना)। मिथ्यात्व का तीव्र उदय होने से अनादिकालपर्यन्त जिन्होंने (इ) पाँच अतिचारों के त्याग रूप पाँच गुण : शंका | नित्य निगोद पर्याय का अनुभव लिया था ऐसे 923 जीव (सर्वज्ञ के वचनों में शंका होना)कांक्षा (इस लोक और निगोदपर्याय छोड़कर भरत चक्रवर्ती के भद्रविवर्धनादि नाम परलोक में भोगों की चाह होना) विचिकित्सा (निर्ग्रन्थ साधुओं धारक पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे इसी भव से त्रस पर्याय को प्राप्त के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि करना) अन्य दृष्टि प्रशंसा | हुए थे । भगवान आदिनाथ के समवशरण में द्वादशांग वाणी (मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान और चारित्र की मन से तारीफ करना) का सार सुनकर रत्नत्रय की आराधना से अल्पकाल में ही अन्य दृष्टि संस्तव (मिथ्यादृष्टियों के गुणों का वचन से कहना) मोक्ष प्राप्त किया है' इन पांच अतिचारों के टालने से पाँच गुण होते हैं। यह वर्णन वादर निगोदिया जीवों की अपेक्षा है। अर्थात् वादर निगोदिया जीव सीधे मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्ष गमन (ई) सप्त भय त्याग होने से सात गुण : इस लोक कर सकते हैं। परन्तु सूक्ष्म निगोदिया जीव सीधे मनुष्य पर्याय संबंधी भय का त्याग, परलोक संबंधी भय का त्याग, कोई प्राप्त कर पंचम गुणस्थान तक अर्थात् देशसंयम को प्राप्त पुरुष आदि मेरा रक्षक नहीं है, इसप्रकार अरक्षा भय का कर सकते हैं, इससे आगे नहीं। जैसा कि श्री धवला पुस्तक त्याग, आत्मरक्षा के उपायों के अभाव में अगुप्ती भय का 10 में कहा है, 'सुहमणिगोदेहितो अण्णत्थ अणुप्पजिय मणुस्सेसु त्याग, मरण भय का त्याग, वेदना भय का त्याग,बिजली उप्पण्णस्स संजमासंजम-सम्मत्ताणं चेव गिरने आदि रुप आकस्मिक भय का त्याग। गहणपाओग्गत्तुवलंभादो' अर्थ : सूक्ष्म निगोद जीवों में से (उ) तीन शल्यों के त्याग रुप तीन गुण : माया शल्य | अन्यत्र न उत्पन्न होकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव के त्याग (दूसरों को ठगने आदि का त्याग)मिथ्यात्व शल्य | संयमासंयम और सम्यक्त्व के ही ग्रहण की योग्यता पायी त्याग (तत्त्वार्थ श्रद्धान के अभाव रुप मिथ्यात्व शल्य का | जाती है। 24 अगस्त 2005 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त प्रकरण नित्यनिगोद तथा इतरनिगोद दोनों ही प्रकार के निगोदियाओं में सामान्य रूप से ग्रहण करना चाहिए। इतना विशेष और भी जानना चाहिए कि निगोद से सीधे मनुष्य पर्याय प्राप्त करने वाले जीव मोक्ष तो जा सकते हैं परन्तु 63 शलाका पुरुष नहीं बन सकते । जिज्ञासा : क्या सम्यग्दर्शन की पर्याय निश्चयव्यवहार दो रूप होती है? समाधान: आचार्यों ने सम्यग्दर्शन की पर्याय दो रूप ही मानी है। पंचास्तिकाय गाथा 107 की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने कहा है, 'यद्यपि क्वापि निर्विकल्प समाधि काले निर्विकार शुद्धात्मरुचिरूपं निश्चय सम्यक्त्वं स्पृशति तथापि प्रचुरेण बहिरंग पदार्थ रुचिरूपं यद्वव्यवहारसम्यक्त्वं तस्यैव तत्र मुख्यता ।' अर्थ : यद्यपि किसी निर्विकल्प समाधिकाल में निर्विकार शुद्ध आत्मरुचि रूप जो व्यवहार सम्यक्त्व है, उसकी ही वहाँ मुख्यता है । इस प्रकरण से स्पष्ट है कि निश्चय सम्यक्त्व तो कभी-कभी होता है जबकि व्यवहार सम्यक्त्व प्रचुरता से रहता है। आचार्यों ने व्यवहार सम्यक्त्व को सराग सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व कहा है। समयसार गाथा 211-12 की टीका में (परमाणुमित्तियं पिहू) • तीर्थंकर, भरत, सगर, राम व पाण्डव आदि को सराग सम्यग्दृष्टि माना है, वीतराग नहीं। इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन की निश्चय और व्यवहार रूप दो अवस्थाएं हैं। श्री परमात्मप्रकाश अध्याय-2, गाथा 17 की टीका में इसप्रकार कहा है, 'द्विधा सम्यक्त्वं भण्यते सरागवीतराग भेदेन । प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सराग सम्यक्त्वं भण्यते, तदेव व्यवहार सम्यक्त्वमिति तस्य विषय भूतानि षड्द्रव्याणीति । वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राबिनाभूतं तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति' 1 अर्थ : सराग और वीतराग के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य की प्रकटता जिसका लक्षण है वह सरागसम्यग्दर्शन है, वही व्यवहार सम्यग्दर्शन है । उसका विषय छह द्रव्य हैं। निज शुद्धात्मानुभूति जिसका लक्षण है वह वीतराग सम्यग्दर्शन है और वह वीतराग चारित्र के साथ ही रहता है, उसको निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है। उपरोक्त प्रमाण के अनुसार सम्यग्दर्शन की पर्याय रूप होना सिद्ध है। जिज्ञासा : हमारे निरन्तर कर्म का उदय होता रहता है और तद्नुसार नवीन बंध भी होता रहता है। तब मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा, अच्छी तरह समझाईये ? समाधान : उपरोक्त जिज्ञासा का समाधान वृहद्रव्य संग्रह गाथा 37 की टीका में बहुत अच्छे ढंग से किया गया। है, जिसका हिन्दी अर्थ इसप्रकार है, 'यहां शिष्य कहता हैसंसारी जीवों को निरन्तर कर्मों का बंध होता है उसीप्रकार कर्मों का उदय भी होता है, शुद्धात्मभावना का प्रसंग नहीं है, तो मोक्ष किसप्रकार हो ? उसका उत्तर : जिसप्रकार कोई बुद्धिमान मनुष्य शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर विचार करता है कि 'यह मेरा मारने का अवसर है, 'तत्पश्चात् पुरुषार्थ करके शत्रु को नष्ट करता है, उसी प्रकार कर्मों की भी एकरूप अवस्था नहीं रहती है। जब कर्म की स्थिति और अनुभाग हीन होने पर वह लघु और क्षीण होता है तब बुद्धिमान भव्य जीव आगमभाषा से 'खयउवसमियविसोही देसण पाउग्ग करणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्ते ।' अर्थ : क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि, इनमें से चार तो सामान्य हैं और करणलब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती है। इस गाथा में कथित पाँच लब्धि नामक ( निर्मलभावना विशेषरूप खड्ग से ) और अध्यात्म भाषा से निजशुद्धात्माभिमुख परिणाम नामक विशेष प्रकार की निर्मल भावनारूप खड्ग से पुरुषार्थ करके कर्मशत्रु को नष्ट करता है। अंत:कोटाकोटि (सागर) प्रमाण कर्म की स्थितिरूप तथा लता और काष्ठस्थानीय अनुभागरूप कर्म का लघुत्व होने पर भी यह जीव आगम भाषा से अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक और अध्यात्मभाषा से स्वशुद्धात्माभिमुख परिणतिरूप ऐसी कर्महननबुद्धि किसी भी काल में नहीं करे तो वह अभव्यत्व गुण का लक्षण जानना ।' भावार्थ : जैसे नदी में गिरा हुआ कोई व्यक्ति, नदी के तेज बहाव रहने पर पुरुषार्थ करे तो उसका पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं होता और वही पुरुषार्थ नदी के मन्द बहाव में कार्यकारी सिद्ध हो जाता है, उसीप्रकार कर्मों के मन्द उदय में यदि आत्मकल्याण के लिए योग्य पुरुषार्थ किया जाता है तो उससे मिथ्यात्वादि का उपशम आदि होने से मोक्षमार्ग में प्रवेश हो जाता है। प्रश्नकर्ता : श्री पी.सी. पहाड़िया, भीलवाड़ा जिज्ञासा : कृपया बताएं कि क्या कोई आर्यिका मुनिराज को आहार दे सकती है, तथा क्या मुनिराज क्षेत्रों पर खुली हुई दानशालाओं का आहार ग्रहण कर सकते हैं अथवा अगस्त 2005 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं, शास्त्रीय प्रमाण दीजिएगा? समाधान : मुनिराज 46 दोष टालकर आहार ग्रहण करते हैं। यदि कोई आर्यिका मुनिराज को आहार दे, और मुनिराज उसे ग्रहण करें तो उसमें दायक दोष लगता है, जैसा कि मूलाचार गाथा 468 में कहा गया है, अर्थ : धाय, मद्यपायी, रोगी, सूतकसहित, नपुंसक, पिशाचग्रस्त, नग्न, मलमूत्र करके आये हुए, मूर्च्छित, वमन करके आए हुए, रुधिर सहित, दासी, श्रमणी तथा तेलमालिस करने वाली स्त्री आदि यदि आहार देते हैं तो मुनि को उसे ग्रहण करने पर दायक दोष होता है । 468 ॥ इसकी टीका लिखते हुए 'श्रमणी 'शब्द का अर्थ आचार्य वसुनन्दी ने आर्यिका लिखा है। इससे स्पष्ट होता है कि आर्यिका के द्वारा दिया हुआ द्रव्य आहार में लेने से मुनिराज को 'एषणा समिति' के पालन में बाधा रूप, दायक दोष लगता है । अतः आर्यिका को चाहिए कि वह मुनिराज को आहार न दे। आजकल क्षेत्रों पर दानशालाएं खुलने लगी हैं, जिनमें आहार बनाने वाले रसोईये रखे जाते हैं। वे आहार बनाते भी हैं और देते भी हैं। इन दानशालाओं में दान लेकर पैसा १. २. ३. ४. ५. सूदी सुंडी रोगी मदयणपुंसय पिसायणग्गो य । उच्चारपडिदवंतरुहिरवेसी समणी अंगमक्खीया ॥ 468 ॥ ६. ७. ८. एकत्रित किया जाता है। आहारदान देने वाले कर्मचारियों में नवधाभक्ति का अभाव पाया जाता है, अतः इन दानशालाओं का आहार मुनिराज को कदापि नहीं ग्रहण करना चाहिए। शास्त्रीय प्रमाण इसप्रकार हैं। : 26 अगस्त 2005 जिनभाषित 1. उपर्युक्त गाथा नं. 468 में 'वेसी 'शब्द का अर्थ आचार्य वसुनन्दी महाराज ने दासी किया है, अर्थात् यदि नौकर या नौकरानी द्वारा दिये गये आहार को मुनि लेता है तो उसे दायक दोष लगता है । 2. आचार्य अकलंक स्वामी ने तो 'राजवार्तिक अध्याय 9 के छठे सूत्र की टीका में स्पष्ट लिखा है कि, 'दीनानाथदानशालाविवाहयजनगेहादिपरिवर्जनोऽपिलक्षिताः '... अर्थ : दीन, अनाथ, दानशाला, विवाह, यज्ञ, भोजन आदि का जिसमें परिहार होता है उसे भिक्षा शुद्धि कहते हैं । अर्थात् दानशाला का भोजन लेने पर भिक्षाशुद्धि नष्ट हो जाती है और 'ऐषणा समिति' नहीं पलती । उपरोक्त शास्त्रीय प्रमाणों के अनुसार दानशालाओं का भोजन लेना बिल्कुल उचित नहीं है। ऐसी दानशालाएं खोलना भी गलत है। श्रावकों को चाहिए कि ऐसी दानशालाओं में 'दान देकर, उनको प्रोत्साहित कर, उपरोक्त आगम आज्ञा का उल्लंघन न करें। सन्तान श्रीमती सुशीला पाटनी बुद्धिमान् सन्तति पैदा होने से बढ़कर संसार में दूसरा सुख नहीं । वह मनुष्य धन्य है, जिसके बच्चों का आचरण निष्कलंक है। सात जन्म तक उसे कोई बुराई छू नहीं सकती। सन्तान ही मनुष्य की सच्ची सम्पत्ति है, क्योंकि वह अपने संचित पुण्य को अपने कृत्यों द्वारा उसमें पहुँचाता है। बच्चों का स्पर्श शरीर का सुख है, और कानों का सुख है उनकी बोली को सुनना । वंशी की ध्वनि प्यारी और सितार का स्वर मीठा है, ऐसा वे ही लोग कहते हैं जिन्होंने अपने बच्चे की तुतलाती हुई बोली नहीं सुनी है। पुत्र के प्रति पिता का कर्तव्य यही है कि उसे सभा में प्रथम पंक्ति में बैठने योग्य बना दे । माता के हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहता, जब उसके गर्भ से लड़का उत्पन्न होता है। लेकिन उससे भी कहीं अधिक आनन्द उस समय होता है, जब लोगों के मुँह से उसकी प्रशंसा सुनती है। पिता के प्रति पुत्र का कर्तव्य क्या है? यही कि संसार उसे देखकर उसके पिता से पूछे, “किस तपस्या के बल से तुम्हें ऐसा सुपुत्र मिला है?" आर. के. मार्बल प्रा.लि., मदनगंज-किशनगढ़ 1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, हरीपर्वत, आगरा 282002 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ९. जैन समाज के प्रमुख विद्वानों में अग्रगण्य श्रीमान् | पदाधिकारियों हेतु सुझाव प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से हम सब परिचित हैं। वे समय-समय पर समसामयिक परिस्थितियों एवं गतिविधियों पर एक पैनी नजर रखते हुए समाज को सावधान करते हुए उचित परामर्श प्रदान करते रहे हैं। सुनना, समझना और मानना यह उसे ही इष्ट होता है जो सोचता है। कि जो कुछ हो, जो कुछ हो रहा हो, वह अच्छा हो। इसी मानसिकता को ध्यान में रखते हुए श्रद्धेय प्राचार्य जी ने श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि परिषद् के प्रीति विहार, नई दिल्ली में दिनांक १० जून, २००५ को उपाध्याय श्री गुप्तिसागर जी महाराज के सानिध्य में आयोजित ८० वें अधिवेशन में परिषद के अध्यक्ष पद से निवृत्त होते हुए तथा नये अध्यक्ष डॉ. श्रेयांस कुमार जैन को कार्यभार सौंपते हुये संस्था की प्रगति एवं उसमें विश्वास बनाये रखने के लिये निम्नलिखित १५ सूत्रीय सुझाव दिये। परिषद के विकास हेतु सुझाव १. २. ३. ४. प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाशजी जैन के १५ सूत्रीय सुझाव ५. श्री अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रि परिषद की स्थापना सन् १९०४ की गई थी । अतः १०० वर्ष की शताब्दी विवरणिका प्रकाशित की जाये । पंडित लालबहादुर जी शास्त्री एवं पंडित बाबूलाल जमादार के कार्यकाल में जो ट्रेक्ट प्रकाशित होते थे, वह परंपरा पुनः प्रारंभ की जाये । शास्त्रि परिषद् के बुलेटिन का नियमित प्रकाशन सुनिश्चित किया जाये । प्रतिवर्ष कम से कम एक शोध ग्रन्थ का प्रकाशन हो, ताकि विद्वानों की सृजनात्मक रचनाधर्मिता को प्रोत्साहन मिले। विद्वानों के ज्ञानवर्धन हेतु मूल आगम ग्रन्थों की वाचना के आयोजन किये जायें। ७. ८. १०. संस्था के धन के मामले में पारदर्शिता बरती जाये। सब के लिए समान नियम हों । संस्था के द्वारा समूह हित में कार्य हो, व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं । १२. १३. १४. १५. अन्य विद्वत् संगठनों के साथ सद्भाव एवं सहयोग रखें। समाज में उठनेवाले विवादास्पद प्रकरणों पर आगमसम्मत एवं निष्पक्ष दृष्टि रखें। सदस्यों हेतु सुझाव ११. संस्था के प्रति समर्पण का भाव रखें। विघटन या अलग संगठन बनाकर दबाव न बनायें । शिकायत न करें, सुझाव I अपनी योग्यता बढ़ाते रहें, नियमित स्वाध्याय करें । आचरण की मर्यादा बनाये रखें 1 मानदेय / भेंट के लिये समाज से विवाद न करें। यदि तय ही करना हो तो पूर्व में ही तय कर लें। अच्छा तो यही है कि समाज जो सम्मान से दे उसे स्वीकार करें । इस तरह यदि शास्त्रि परिषद् या कोई भी अन्य सामाजिक संगठन इन १५ सूत्रों पर अमल करता है तो विवाद की अप्रिय स्थितियों से बचा जा सकता है। समाज में कार्य करना कठिन होता है, लेकिन जो लोग धन, पद और प्रतिष्ठा के मोहपाश से स्वयं को बचा लेते हैं, वे समाज में निरंतर सक्रिय रह सकते हैं और समाज को भी अपने प्रभाव एवं प्रयासों से प्रभावित कर सकते हैं । यह ध्यान रहे कि समाज हर उस व्यक्ति, विचार और संस्था का स्वागत करेगा जो समाज हितैषी हो । वीर देशना विद्वान मनुष्य मित्र उसी को बतलाते हैं, जो यहाँ उसे हितकारक पवित्र धर्म में प्रवृत्त करता है। The wise say that a friend is one who helps in following the path that takes to the sacred and beneficial charma. प्रस्तुतकर्ता : डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती' एल- ६५, न्यू इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.) मुनिश्री अजितसागरजी अगस्त 2005 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य मेरूभूषण जी का राजनेताओं को पत्र श्री मनमोहनसिंहजी प्रधानमंत्री फेक्स 011230-19334 श्रीमती सोनियागाँधी अध्यक्ष सप्रग फेक्स 011230-117824 श्रीमती मीरा कुमार समाज कल्याणमंत्री फेक्स श्रीशिवराज पाटिल गृह मंत्री फेक्स 23094221 श्री जयपाल रेड्डी सांस्कृतिक सूचना मंत्री फेक्स 01124369179 विषयः जैनों के सिद्ध क्षेद्ध गिरनारजी गुजरात पर चौथी पांचवी टोंक पर दत्तात्रय समर्थक असामाजिक पन्डों द्वारा अवैध कब्जे को नियमित कराने के उद्देश्य से गिरनार दत्तात्रय द्वार का सरकारी जगह में अवैध निर्माण गुजरात सरकार के इशारे पर जिलाधिकारी जूनागढ़ द्वारा उद्घाटन तथा तीसरी टोंक पर जैन धर्म के भगवान शम्भुकुमार के चरणों के समीप अवैध रूप से रखी गई गोरखनाथ एवं गुरूरामदेव पीर की मूर्ति । इसके विरोध में दिनांक 25 अक्टूबर 2004 से अन्न का त्याग दिनांक 12 जुलाई 2005 के स्थान पर दिनांक 26 जुलाई 2005 से अनिश्चितकालीन आमरण अनशन। उपसर्ग सल्लेखना समाधिमरण इन्दौर में। महोदय, नवीन घटनाओं को दष्टिगत रखते हये भारत सरकार को कार्यवाही करने हेत समचित समय देते हये दिनांक 12 जलाई 2005 के बजाए दिनांक 26 जलाई 2005 को 9 बजे इन्दौर में अनिश्चितकालीन आमरण अनशन/उपसर्ग सल्लेखना समाधिमरण पर बैलूंगा। यदि भारत सरकार ने समुचित सकारात्मक कदम नहीं उठाये और उन कदमों की सूचना मुझे एवं जैन समाज को नहीं दी। अभी हाल के बने कानून के अनुसार सरकार सूचना 1. गिरनार/दत्तात्रय द्वार को गिराया जाये, यह सरकारी भूमि पर अवैध अतिक्रमण को नियमित करने के उद्देश्य से किया गया अतिक्रमण है। 2. तीसरी टोंक पर विराजमान की गई गोरखनाथ एवं गुरु रामदेव की मूर्ति हटाई जाये, जैनसमाज के क्षेत्रों पर किया गया अतिक्रमण है। 3. जैनधर्म को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक घोषित किया जाये जब इस्लाम, बौद्ध, सिक्ख, पारसी राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक घोषित हो सकते हैं तो जैनधर्म क्यों नहीं? माननीय सर्वोच्च न्यायालय भी आदेश दे चुका है। उस पर टीका टिप्पणी कर लटकाये रखना न्यायालय की अवमानना है तथा जैनधर्म के तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा का भार केन्द्र सरकार उठाये चाहे इसके लिये संविधान में संशोधन करना पड़े तो भारत सरकार संविधान में संशोधन करे। स्वतंत्र भारत में सबसे ज्यादा जैन समाज के धार्मिक क्षेत्रों पर अतिक्रमण हुआ है क्योंकि हम अहिंसा के पुजारी हैं, और संख्या बल में कम हैं फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक नहीं? मेरे मांग पत्र दिनांक 25 अक्टूबर, 8 नवम्बर एवं 13 दिसम्बर 2004 पर भारत सरकार के महाधिवक्ता की राय लेकर जिन मांगों पर महाधिवक्ता कार्यवाही करने का परामर्श दे उन मांगों पर भारत सरकार आदेश पारित करें। 4. निम्न बिन्दुओं की जांच एक सप्ताह में सी.बी.आई. से कराकर अपराधी के विरुद्ध कार्यवाही की जाये। (क) जैन समाज ने कोई मूर्ति तीसरी टोंक से नहीं उठाई, बल्कि जैन समाज को बदनाम करने हेतु स्वयं ने उठाई। इसकी सी.बी.आई. से जांच कराई जाये। 28 अगस्त 2005 जिनभाषित - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ (ख) दिनांक 8 जून 2004 के उच्च न्यायालय के स्थगन आदेश को निष्प्रभावी बनाने को 2 जून 2004 बेक डेट में दत्तात्रय मंदिर बनाने की अनुमति गुजरात सरकार द्वारा दी गई है जो गम्भीर अपराध है कि सी.बी.आई. जांच कराई जाये। (ग) दिनांक 13 दिसम्बर 2004 को मेरे द्वारा प्रेषित घटना की सी.बी.आई. जांच कराई जाये। (घ) आज भी जहां भगवान नेमीनाथ के चरण बने हैं उन पर इन अवैध पण्डों ने कब्जा कर रखा है। जैनसमाज के लोगों को बिना पैसे लिये न तो दर्शन करने देते न जैनधर्म की जय बोलने देते, इन चरणों के माध्यम से धंधा चला रखा है। हथियार आदि रखते हैं। हमारे तीर्थ क्षेत्र पर शराब,गांजा, भांग,बीड़ी,सिगरेट,गुटका आदि का प्रयोग इन असामाजिक पण्डों द्वारा किया जाता है। सी.बी.आई. से जांच कराकर बंद कराया जाये। (ड.) पुलिस के स्थान पर सेना या बी.एस.एफ. की टुकड़ी वहाँ तैनात की जाये। आशा है कि आप शीघ्र कार्यवाही कर जैनसमाज को धार्मिक उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने को कदम उठायेंगे। उत्तर की आशा में। दिनांक 27.6.2005 दिगम्बर जैन आचार्य मेरूभूषण महाराज समवशरण मंदिर, कंचनबाग रोड,इंदौर प्रतिलिपि : 1. महामहिम डा. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम साहब राष्ट्रपति फेक्स 01123017290 2. महामहिम श्री नवलकिशोर शर्मा राज्यपाल गाँधीनगर, गुजरात फेक्स 07923224268 3. श्री नरेन्द्र मोदी जी मुख्यमंत्री, गुजरात फेक्स 079 3222 2101 4. श्री अर्जुनसिंह जी केन्द्रीय मंत्री 5. श्री दिग्विजयसिंह जी महासचिव काँग्रेस आई 6. श्री मोतीलालवोरा जी कोषाध्यक्ष काँग्रेस आई. 7. श्री मुरलीमनोहर जोशी जी पूर्व केन्द्रीयमंत्री एवं वरिष्ठ भाजपा नेता 8. पद्मश्री बाबूलाल जैन पाटोदी अध्यक्ष, जैनसमाज,इन्दौर 9. संघर्ष समिति के 11 सदस्य 10. श्री डी.के.जैन एडवोकेट 11. समाचार पत्रों में प्रकाशन हेतु। 12. श्री बाबूलाल गौड़ मुख्यमंत्री जी, म.प्र. शासन भोपाल फेक्स 0755 2441781 13. जिलाधिकारी/पुलिस अधीक्षक, इन्दौर 14. गुप्तचर विभाग, इन्दौर आचार्य मेरूभूषण प्रस्तुति : निर्मलकुमार पाटोदी 22,जाय बिल्डर्स कॉलोनी, इन्दौर 452003 -अगस्त 2005 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार सांगानेर जैन मन्दिर पर लगी अवमानना | मन्दिर की पुनर्विचार याचिका में कहा गया है कि स्वयं राज्य याचिका खारिज सरकार ने मूल याचिका के जवाब में कहा है कि उक्त राजस्थान उच्चन्यायालय ने भी माना कि संरक्षण एवं सुरक्षा | मन्दिर एनिसियेन्ट मोनूमेन्ट्स प्रिजर्वेशन एक्ट 1904 एवं की दृष्टि से कराया गया जीर्णोद्धार कार्य न्यायोचित राज. मोनूमेन्ट्स एण्ड आर्कियोलोजिकल साईट्स एण्ड जयपुर, राजस्थान उच्च न्यायालय ने श्री दिगम्बर जैन एन्टीक्वीटीज एक्ट 1961 के अधिनियमों के तहत 'संरक्षित' मंदिर संघी जी, सांगानेर के संरक्षण एवं सुरक्षा के लिये नहीं है और राज्य सरकार द्वारा जारी गजट अधिसूचना दिनांक किये गये जीर्णोद्धार कार्य को उचित ठहराते हुए तय किया है 16.9.1968 में प्रकाशित संरक्षित इमारतों/स्थानों की सूची में भी इसका नाम शामिल नहीं है। अत: न्यायालय द्वारा सरकार कि मन्दिर के पुरातत्त्व स्वरूप को ध्यान में रखते हुये जीर्णोद्धार व पुरातत्त्व को किसी भी प्रकार का निर्देश दिया जाना कार्य कर इसका संरक्षण कर सकते हैं। अदालत में दायर उचित नहीं है और न्याय हित में ऐसा निर्देश निरस्त किया अवमानना याचिका में मा. न्यायाधीशगण शिवकुमारशर्मा तथा करणीसिंह राठौड़ की खण्डपीठ ने अपने निर्णय में जाना आवश्यक है। न्यायालय में यह पुनर्विचार याचिका कहा है कि अवमानना याचिका में वर्णित तथ्यों का आद्योपान्त विचाराधीन है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि न्यायालय अनुशीलन किया,जिनके अनुशीलन से ऐसा प्रतीत होता है से न्याय मिलेगा। कि प्रतिपक्षगण (प्रबन्धकारिणी कमेटी, मन्दिर संघी जी) ने | संघी जी मन्दिर सांगानेर के बारे में कछ लोग गमराह इस न्यायालय के आदेश की कोई अवमानना नहीं की है। | कर रहे हैं कि संघी जी मन्दिर के निर्माण कार्य को हाईकोर्ट परिणामतः प्रबन्धकारिणी कमेटी, मन्दिर संघीजी सांगानेर | ने रोक दिया है ऐसे दुष्प्रचार से समाज सावधान रहे। इस के सचिव व अन्य के खिलाफ दायर यह अवमानना याचिका | मन्दिर में जिस गति से निर्माण कार्य चल रहे थे उसी गति से निरस्त की जाती है। आज भी चल रहे हैं। एक भी दिन के लिये कोई भी निर्माण कार्य नहीं रुका है ना ही कोर्ट ने किसी प्रकार की पाबन्दी राजस्थान हाईकोर्ट के उक्त निर्णय से यह तय हो गया की है। है कि कमेटी के द्वारा किये गये जीर्णोद्धार एवं निर्माण कार्य न्यायोचित हैं तथा अब तक किये गये जीर्णोद्धार कार्यों पर निर्मल कासलीवाल, मानद मंत्री अदालत ने भी अपनी मोहर लगा दी है क्योंकि मन्दिर के 'अष्टापद कैलाश' का लोकार्पण सम्पूर्ण जीर्णोद्धार एवं निर्माण के कार्य पुरातत्त्व विभाग की राष्ट्रसंत प.पू. आचार्य विद्यासागर जी महाराज के सहमति से मन्दिर की मूल गरिमा एवं पुरातत्त्व को सुरक्षित | वरिष्ठ शिष्य महायोगी उपाध्यायरत्न प.पू. गुप्तिसागर जी रखते हुये किये गये हैं। मन्दिर में किये हुए किसी भी कार्य | महाराज के सानिध्य एवं प्रतिष्ठा महोत्सव समिति उत्तरी के लिये कोर्ट ने कोई आपत्ति अपने निर्णय में नहीं की तथा | पीतमपुरा दिल्ली के तत्वावधान में सम्पन्न समारोह के अंतर्गत जो आरोप आरोपियों द्वारा लगाये गये थे उनको भी कोर्ट ने | भगवान महावीर के ज्ञान कल्याणक की मंगलमयि छाव में स्वीकार नहीं किया है। देश के ख्यातिलब्ध संत चरित लेखक श्री सुरेश जैन सरल इसके साथ ही श्री दिगम्बर जैन मन्दिर संघी जी | की विचार प्रधान पुस्तक "अष्टापद कैलाश'' का विमोचन सांगानेर की ओर से राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायालय | राष्ट्रीय समाजसेवी श्री जगदीशराय, श्री बाबूराम, श्री सुखमाल, की उस टिप्पणी के संबंध में पनर्विचार याचिका भी दायर | श्री महेशचंद (कलकत्ता वालों) के द्वारा किया गया। उन्होंने की गई है, जिसमें मन्दिर में प्रबन्धकारिणी समिति द्वारा भविष्य | प्रस्तुत कृति को साहित्य और चिंतन की कालजयि कृति में किये जाने वाले जीर्णोद्धार करते वक्त मन्दिर के मूल एवं | निरूपित करते हुए बतलाया कि इसमें पू. महायोगी की तात्विक स्वरूप को यथावत् बनाये रखने के लिये राज्य | हरिद्वार से बद्रीनाथ (अष्टापद कैलाश) की करीब २५ सरकार एवं परातत्व विभाग को भी निर्देश दिये गये हैं। । दिवसीय "पदयात्रा" के साथ चित्त में चलते "सोच' को 30 अगस्त 2005 जिनभाषित - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनव ढंग से व्याख्यायित किया गया है। जो श्री सरल की वर्णी विचार का लोकार्पण अन्य कृतियों की तरह स्थायी महत्व प्राप्त कर लेने वाली सागर (म.प्र.), पूज्य गणेश प्रसाद वर्णी ऐसे संत थे, श्रेष्ठ कृति है। महोत्सव समिति ने श्री सरल का भावभीना | जिन्होंने अपने कल्याण के लिए तो साधना की ही परकल्याण सम्मान कर प्रतीक चिन्ह भेंट किया एवं पू. उपाध्याय श्री ने | और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए भी अपना आशीष प्रदान किया। जीवन समर्पित कर दिया।" उक्त उदगार अवधेश प्रताप भरतभूषण जैन, जबलपुर सिंह विश्वविद्यालय रीवा के कुलपति माननीय डॉ. ए.डी.एन. प्रतिभा स्थली के निर्माण हेतु विधानसभा अध्यक्ष द्वारा बाजपेयी ने 'वर्णी-विचार पुस्तक' का लोकार्पण करते हुए एक लाख का चेक प्रदान किया गया व्यक्त किये। डॉ. बाजपेयी श्री गणेश प्रसाद वर्णी, संस्कृत महाविद्यालय, मोराजी, सागर की स्थापना के १०० वर्ष पूरे जबलपुर, म.प्र. विधानसभा अध्यक्ष श्री ईश्वरदास होने पर आयोजित त्रिदिवसीय समारोह के समापन समारोह रोहाणी ने जैन समाज को तिलवाराघाट में ज्ञानोदय विद्यापीठ पर बोल रहे थे। पूज्य मुनि श्री अजितसागर जी महाराज एवं प्रतिभास्थली के निर्माण हेतु अपनी स्वेच्छानुदान निधि से १ ऐलक निर्भयसागर जी महाराज के सानिध्य में शताब्दी समारोह लाख रुपये की राशि प्रदान की। विधानसभा अध्यक्ष ने एवं अखिल भारतवर्षीय दिगंबर जैन विद्वतपरिषद का अपने निवास पर आयोजित एक सादे कार्यक्रम में राशि का अधिवेशन आयोजित किया गया। समारोह की अध्यक्षता चेक प्रतिभा स्थली ट्रस्ट के पदाधिकारियों को सौंपा। पूर्व सांसद श्रीमंत डालचन्द्र जैन ने एवं संचालन प्रो. उल्लेखनीय है कि प्रातः स्मरणीय राष्ट्रीय संत परम क्रान्तिकुमार सराफ ने किया। लोकार्पित कृति "वर्णी विचार" पूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज के सानिध्य में | का परिचय देते हुए डॉ. कपूरचन्द जैन खतौली ने कहा कि १८ फरवरी २००५ को दयोदय पशु संवर्धन केन्द्र, | वर्णी जी द्वारा रचित अधिकांश साहित्य का प्रकाशन हो तिलवाराघाट, जबलपुर में आयोजित प्रतिभा स्थली के भूमि | चका है, किन्तु उनकी डायरियों का प्रकाशन नहीं हआ है। पूजन समारोह में यह राशि देने की घोषणा विधानसभा अध्यक्ष | वर्णी जी ने अपनी डायरियों में अपने मन में आगत विचारों - श्री ईश्वरदास रोहाणी द्वारा की गई थी। जैन समाज द्वारा | को निःसंकोच व्यक्त किया है। वर्णी विचार में वर्णी जी की ज्ञानोदय विद्यापीठ प्रतिभा स्थली का निर्माण कन्याओं के १९३८ की डायरी प्रकाशित की गई है। अन्य वर्षों की शिक्षा के प्रसार हेतु किया जा रहा है जहां कन्याओं को डायरियों का प्रकाशन भी शीघ्र होगा, ऐसी आशा है। गुरुकुल पद्धति से आधुनिक शिक्षा दी जावेगी। पवन चौधरी मो. इब्राहीम कुरैशी द्वारा संस्थान का अवलोकन चेयरमेन म.प्र. अल्पसंख्यक आयोग मो. इब्राहिम उपाध्याय वरिष्ठ परीक्षा में प्रथम स्थान कुरैशी द्वारा विगत दिवस भारतवर्षीय दिगम्बर जैन प्रशा. श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय, मनिहारों प्रशि. संस्थान की कार्यालयीन व्यवस्था, ग्रंथालय एवं प्रशिक्षण का रास्ता जयपुर में अध्ययनरत छात्र नितिनकुमार जैन सुपुत्र कार्य का अवलोकन किया गया। माननीय श्री कुरैशी जी ने श्री चन्द्रप्रकाश जैन, सेमारी (उदयपुर, राजस्थान) ने संस्थान की समस्त क्रियाकलापों के प्रति भाव-विभोर होकर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर (राज.) द्वारा संचालित कहा कि 'मेरे देखे प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रशिक्षण हेतु ऐसी उपाध्याय वरिष्ठ (१२वीं) की परीक्षा में ८३ प्रतिशत अंक सुव्यवस्था कहीं नहीं पायी जाती है।' आपने आचार्य श्री प्राप्त कर सम्पूर्ण राजस्थान में वरीयता सूची में प्रथम स्थान | विद्यासागर जी मनि महाराज की असीम अनकम्पा को तरुणाई प्राप्त किया। महाविद्यालय का परिणाम भा शत-प्रतिशत रहा। | के लिये सगम पथ का एक प्रयास बताया। आपने अतः श्री दिगम्बर जैन संस्कृत शिक्षा समिति एवं | अल्पसंख्यक आयोग के माध्यम से विधि सम्मत सहयोग महाविद्यालय परिवार की ओर से हार्दिक बधाई। प्रदान करने का आश्वासन दिया। डॉ. शीतल चन्द्र जैन, प्राचार्य अजित जैन, डायरेक्टर अगस्त 2005 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल, एलोरा के छात्रों का बोर्ड परीक्षा में शत प्रतिशत सुयश सन 1962 में स्थापित श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम एलोरा संचालित 'गुरूदेव समंतभद्र विद्या मंदिर' एलोरा इस विद्यालय में कक्षा 5 वीं तक 1100 छात्र अध्ययन करते हैं। विद्यालय परिणाम 85.71 प्रतिशत रहा। इनमें चि. कमलेश कचरूदास वैष्णव इस छात्र ने 86.80 प्रतिशत अंक प्राप्त कर औरंगाबाद विभाग में अपंग छात्रों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। कु. पहाडे मितुषा महावीर ने 85.86 प्रतिशत अंक लेकर द्वितीय स्थान प्राप्त किया। तहसील में भी इन छात्रों ने प्रथम, द्वितीय स्थान प्राप्त किया है । श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल के २५ में से २५ छात्र उत्तीर्ण हुए। इस तरह गुरूकुल का रिजल्ट शत प्रति गुलाबचंद बोराळकर, एलोरा आष्टा (म.प्र.) में कलशारोहण महोत्सव सम्पन्न शत रहा । देवाधिदेव १००८ पार्श्वनाथ भगवान की असीम अनुकम्पा से संत शिरोमणि १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के मंगल आशीर्वाद से परम विदुषी आज्ञानुवर्ती परम पूज्य आर्यिकारत्न १०५ मृदुमती माताजी ससंघ आर्यिका श्री निर्णयमती माताजी, प्रसन्नमती माताजी एवम् परमश्रद्धेय परमविदुषी प्रवचनमणि पुष्पा दीदी रहली, बा.ब्र. सुनीता दीदी पिपरई के सान्निध्य में दिनांक ९ जून २००५ से १२ जून २००५ तक श्री मज्जिनेन्द्र कलशारोहण महोत्सव एवं विश्व शान्तिमहायज्ञ का भव्य आयोजन शतकाधिक इन्द्र - इन्द्राणियों द्वारा प्रतिष्ठाचार्य बा.ब्र. अनिल भैया जी भोपाल के निर्देशन में सम्पन्न हुआ। यशपाल जैन स्मृति पुरस्कार एवं निबन्ध प्रतियोगिता प्रख्यात गांधीवादी चिन्तक और विचारक पद्मश्री यशपाल जैन की पांचवी पुण्य तिथि के अवसर पर उनकी स्मृति में दो ऐसे महानुभावों का सम्मान करने की योजना है जो भारतीय परम्पराओं, जीवन मूल्यों की रक्षा और उनकी पुनर्स्थापना में विभिन्न प्रकार से ( लेखन, सम्पादन, समाज सेवा, शिक्षा या अन्य कोई ) सतत् प्रयत्नशील हैं । पुरस्कार के लिए दो आयु वर्ग निर्धारित किए गए हैं- ४० वर्ष से कम, ४० वर्ष से अधिक। पुरस्कार के लिए चयनित दोनों महानुभावों 32 अगस्त 2005 जिनभाषित को २१ - २१ हजार रू. नकद, स्मृति चिन्ह, शॉल व श्रीफल से सम्मानित किया जायेगा। 'यशपाल जैन स्मृति' की ओर से इन पुरस्कारों के लिए उपयुक्त महानुभावों के प्रस्ताव आमंत्रित किए जाते हैं । प्रस्ताव भेजते समय सम्बन्धित व्यक्तितत्व, कृतित्व और उपलब्धियों का पूर्ण ब्यौरा संलग्न होना आवश्यक है । प्रस्ताव निर्धारित आवेदन-पत्र पर ही स्वीकार किए जाएँगे जो निम्नलिखित पते से मंगाया जा सकता है। इस अवसर पर एक निबन्ध प्रतियोगिता का भी आयोजन किया गया है जिसका विषय है, 'भारतीय परम्पराओं और जीवन मूल्यों की रक्षा कैसे हो ।' इस प्रतियोगिता के लिए २ वर्ग निर्धारित किए गए हैं 1. स्कूल स्तर : कक्षा 12 तक, 2. कॉलेज स्तर : स्नातकोत्तर तक । प्रत्येक वर्ग में निम्न प्रकार पुरस्कार प्रदान किए जाएंगे :- प्रथम 3000/, द्वितीय 2000 /, दो सांत्वना पुरस्कार 500-500 रुपये प्रत्येक । 'यशपाल जैन स्मृति पुरस्कार', हेतु प्रविष्टि तथा निबन्ध प्रतियोगिता हेतु निबन्ध हमारे कार्यालय से प्राप्त होने की अंतिम तिथि 31 अगस्त, 2005 रहेगी। पुरस्कार अक्टूबर 2005 माह में नई दिल्ली में एक गरिमापूर्ण समारोह में प्रदान किए जाएंगे। वीरेन्द्र प्रभाकर शुभ-विवाह सम्पन्न आगरा निवासी श्री अशोक जैन गोधा के सुपुत्र चि. आशीष जैन एवं अलीगढ़ निवासी श्री प्रकाशचंद जैन पहाड़िया की सुपुत्री सौ. कां. खुशबू जैन का शुभ-विवाह दिनांक १० जुलाई २००५ को सानंद सम्पन्न हुआ। जिनभाषित के लिए ५०१ रु. प्राप्त हुये । जरूर सुनें सन्त - शिरोमणि आचार्यरत्न श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के आध्यात्मिक एवं सारगर्भित प्रवचनों का प्रसारण 'साधना चैनल' पर प्रतिदिन रात्रि 9.30 से 10.00 बजे तक किया जा रहा है, अवश्य सुनें । नोट: यदि आपके शहर में 'साधना चैनल' न आता हो तो कृपया मोबाइल नं. 09312214382 पर अवश्य सूचित करें । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरज तुम एकान्त चाहते हो क्या तुम्हारा प्रकाश में रहने देगा? अकेले तुम भले भीड़ से दूर रहो पर भीड़ तुम्हें दूर न रहने देगी क्योंकि सूरज कविता लोग पूछते हैं तुम्हें जाना कहाँ है, क्या पाना है, ० तुम्हारा पुण्य तुम्हारे करीब आया है इसलिए भीड़ तुम्हारे करीब है करीब है। ( आचार्य श्री विद्यासागर जी के शिष्य) ० मुनिश्री चन्द्रसागर जी क्या कुछ करना - धरना नहीं है? मैं सोचता हूँ कहीं तो जाना नहीं है हाँ पाना अवश्य है उसको, जो मेरा अपना है उसके लिये कुछ करने धरने की आवश्यकता नहीं है । उसे तो विराम से ही आराम से ही अपने को अपने में समा लेने से ही पाया जा सकता है। इंजी. जिनेन्द्र कुमार जैन पद्मनाभ नगर, भोपाल ज्ञान सूर्य वह गुरु महान् अस्त हो रहे ज्ञान सूर्य ने सोचा था इक दिन की शाम । मेरे ढल जाने के बाद कौन करेगा मेरा काम ॥ • ० मुनि श्री प्रणम्यसागर जी महाराज अंधकार मय मोह जगत में, ज्ञान प्रकाश भरेगा कौन? मेरे जीवन की बुझती, ज्योति को और जलाये कौन? सब अयोग्य कातर दिखते हैं कोई न दिखता है निष्काम ॥ १ ॥ मेरे ढल जाने...... धर्म महा है पाथ कठिन है, किसको इसका रहस कहें? निष्ठा का जो दीप जलाये, ज्ञान चरित में लीन रहे । तभी एक विद्याधर आया दूर कहीं से गुरु के धाम ॥ २ ॥ फिर गुरु ने शिक्षा दीक्षा दे, इच्छा - जल को जला दिया। स्वयं शिष्य के चरणों में आ, बैठ अहं को गला दिया। खूब जले विद्या के दीपक, दुआ ज्ञान की आठों याम ॥ ३ ॥ मेरे ढल जाने...... तुम प्रकाश के पुंज बनो, अरु तुम्हीं बनो सूरज श्रीमान । तुम्हीं चलाओ सबको पथ पे। और चलो खुद हे धीमान । मैं निश्चिन्त हुआ विद्या मुनि, जीवन सफल बना वरदान ॥ ४ ॥ मेरे ढल जाने..... गुरुकुल बना के कुल गुरु बनना वचन नहीं प्रवचन देना छोटा बड़ा भेद को तज के तुम सबको अपना लेना । तुम सबको अपना लेना यूँ कहकर फिर विदा हो गया ज्ञान सूर्य वह गुरु महान् ॥ ५ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05 श्री दिगम्बर जैन मंदिर वसंत कुंज, नई दिल्ली स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, Jan Education interभोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। www.jainelibrary.ora