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बांस बैलों को हाँकने के काम आता है, वैसा लट्ठमार | वृद्धावस्था में अप्रमत्त होने की सीख हमें आचार्य ज्ञानसागर था में, एक समय पर। उस बांस में छेद डालकर बांसुरी | जी से प्राप्त होती। आज के इस दिन को आचार्य ज्ञानसागर बनाकर बजानेवाले वही थे। बांसुरी बजानेवाले कौन-से छेद जी की पुण्यतिथी के रूप में याद करते। सुनते हैं कि 32 वर्ष पर मध्यमा, कनिष्ठा, अनामिका लगाते। अंगुष्ठ भी कार्य | उन्हें इस पुनीतकार्य को किये हो गया है। ३२ वर्ष बहुत बड़ा * करता। पांचों अंगलियों के माध्यम से बजाना होता। समय | काल है। समझ नहीं आता इतना समय (काल) निकल पर क्रम से बजाया जाता। हवा पास होती तो एक लय बन गया, आगे भी निकलेगा। अध्यात्म के साथ गुरुकृपा ही जाती। वे स्वर सभी को कर्णप्रिय हो गये। वे स्वर कर्णप्रिय | महान मानी जाती। आचार्य गरु को बार-बार प्रणाम। शेष भले हों, स्वर को लानेवाले की बात अलग है। हम जैसे ठेठ | कार्य जो बचा, आपके परोक्ष आदेश से सम्पन्न हो। ऐसे बांस की ओर उनकी दृष्टि गई, यह उनका उपकार है। महान् आचार्य को एक-एक पल याद करूँ, देखता रहूँ, जानेवाले कैसे-कैसे कार्य कर जाते । दुनिया उनको पहचानती। | आगे भी देखें । हाथ और उंगलियों के स्पर्श से स्वर निकलता यहाँ शिल्पी
तरणि ज्ञानसागर गुरु,तारो मुझे ऋषीश। का ज्ञान काम करता। एक ऐसे शिल्पी का जिन्होने बांस को
करुणा कर करुणा करो, कर से दो आशीष ।। बांसुरी बना बजा दिया और प्रतिफल में कुछ भी नहीं मांगा। |
प्रस्तुति : जयकुमार'जलज'
असंजदं ण वंदे
धरम चन्द्र बाझल्य
जून 2005, जिनभाषित पत्रिका में पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया एवं पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन के लेख क्रमशः 'यशस्तिलक चम्पूकार' सोमदेव मूलसंघीय नहीं एवं 'साधु-धर्म' महत्त्वपूर्ण लेख हैं। कैसे मुनि वंदनीय हैं ? इस विषय पर दोनों विद्वानों की शास्त्रोक विवेचना में विरोध हैं।
एक ओर जहाँ कटारिया जी ने कुन्दकुन्द स्वामी के दर्शनपाहुड की 'असंजदं ण वंदे' इत्यादि गाथा (26) का उद्धरण देते हुए असंयमी मुनि की वंदना का निषेध किया है एवं सोमदेव सूरी के इस कथन को कि 'मुनि का वेष मात्र पूजनीय है, नाम निक्षेप से जो मुनि हैं वे वंदनीय हैं', को युक्तिपूर्वक आगमविरुद्ध सिद्ध किया है।
दूसरी ओर पं. नरेन्द्रप्रकाश जी लिखते हैं, 'यहाँ हमारा स्पष्ट मन है कि शिथिलाचार के बारे में साधुगण स्वहित की दृष्टि से स्वयं विचार करें। हम श्रावकों के लिए तो सभी साधु वंदनीय हैं। साधु का शिथिलाचार साधु के लिए अहितकर है श्रावकों के लिए नहीं। श्रावक तो यदि स्थापना निक्षेप से भी उनकी पूजा-वंदना करता है तो भी उसका कल्याण ही होता है' ये विचार गले नहीं उतरते हैं।
अब में परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज के उस प्रवचनांश का जो नवम्बर /दिसम्बर २००४ की 'वीतराग वाणी' में प्रकाशित हुये थे का उल्लेख करना नितांत आवश्यक समझता हूँ , 'दीन-हीन होकर किसी को नमोऽस्तु मत करो, इससे पाप का समर्थन हो जावेगा। विवेक रखकर प्रणाम करो। भेषमात्र, धर्म के अभाव में, गंधहीन फूल की तरह है। जो परम्परा धर्म की पुष्टि नहीं करती वह परम्परा नहीं मानी जाती। उसे दूर से ही त्याग कर देना चाहिए। आज धर्म का बचाव करना बहुत कठिन हो गया है । कर्तव्य की परिधि में रहकर यदि कुछ नहीं कहा गया, तो धर्म ड्रब जावेगा, धर्म स्वाश्रित है। जिसके पास धर्म नहीं है वह धर्म का संरक्षण क्या करेगा? क्योंकि स्वयं अंधकार में रहकर किसी को प्रकाश नहीं दिया जा सकता'
मझे आचार्य श्री विद्यासागर जी एवं पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया के विचार ही 'असंजदं ण वंदे' आ. कुन्दकुन्द स्वामी के उपदेश के अनुरुप उचित प्रतीत होते हैं।
ए-92, शाहपुरा, भोपाल
अगस्त 2005 जिनभाषित 1
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