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गुरुकृपा से बाँसुरी बना,
मैं तो ठेठ बाँस था
• आचार्य श्री विद्यासागर जी
पानी, बिन कुछ भी लिए। चौथे दिन १० बजकर ५० मिनिट पर दिन में वह समय आया, इस प्रकार का, जिसप्रकार दीपक
में तेल धीरे-धीरे करके जलता है। उन्हें इस बात की कोई अतिशय क्षेत्र
बाधा नहीं। आपकी जागृति कैसी है, हम जानना चाहते हैं? कुण्डलपुर (म.प्र.) में आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज के
योग उपयोग में भेद बताते हुये कहा कि योग अपने आश्रित 32वें समाधि दिवस समारोह में अपने गुरु के प्रति मार्मिक नहीं. उसमें चंचलता है. उपयोग स्थिर है. दढ है। आयर्वेद का उद्गार व्यक्त करते हुये परमपूज्य संतशिरोमणि आचार्य
ज्ञान उन्हें था। वात-पित्त के विषय में जानकारी रखते थे। श्री विद्यासागर जी महाराज ने कहा- भारतवर्ष में
समयसार आदि ग्रन्थों का अध्ययन पठन-पाठन, अनुभूति राजस्थान ऐसा प्रदेश है जहाँ रेत के टीले गगन को चूमते
प्रतिपल का कार्यक्रम था। चोटी के विद्वान आयें या बालक, हैं। आँधी चल जाय तो ये टीले यात्रा भी करते हैं । सौ-सौ कठिन से कठिन विषय को सहज सरल भाषा में अभिव्यक्त फोट केटीले एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाते हैं, कर देना वायें हाथ का खेल था। वर्षों की समस्याओं का कहीं-कहीं अच्छी वर्षा होती, तो कुछ क्षेत्रों मिनटों में समाधान दे देना उनकी खबी रही। उन्हें विकल्प था जैसलमेर,बाडमेर, बीकानेर में कम (अल्प) वर्षा होती।
कि ज्ञानीजन, आत्मतत्त्व बतानेवालों की कमी होती जा रही कॅए की ओर पानी भरने, दो लोगों को साथ जाना होता, है। आना-जाना लगा है। ये काया हमेशा बनी नहीं रहती. जिसमें एक तो भारी लम्बी रस्सी लेकर चलता, क्योंकि इसकी यात्रा चलती रहती है। तेल की भाँति आयकर्म का 100-200 फुट गहराई तक पानी निकालते-निकालते
क्षरण होना अनिवार्य है। आयुकर्म की पहचान सिद्धान्त ग्रंथों बदन का पानी निकल जाता। जिसके यहाँ टाँका बना
में बताई है। श्वास और उच्छवास पुद्गल की परिणति है। होता. छत का पानी संग्रहित करके नीचे स्थान पर संग्रहित आयकर्म तेल की भाँति जलता. मनन प्रवचन आदि चलते हो जाता। वर्ष भर उसी का उपयोग करते । गुरुजी के साथ रहते। भीतर खर्च होता. बाहर के कार्य सम्पादित होते जाते। विहार (पदयात्रा) करने का आनंद ही अलग था। वे राग-द्वेष से प्रेरित होकर सांसारिक प्राणी जन्मा। जैसे किसी जल्दी नहीं चल पाते थे, उन्हीं के साथ चलना पड़ता था। यंत्र में चाक चलना प्रारम्भ करता. वैसे ही ये पाँचों इन्द्रियाँ भीषण गर्मी के दिन थे। चार वर्षों से वर्षा न के बराबर
अपने कर्म में लग जातीं। शरीर के माध्यम से तप किया जाता। (अल्प वर्षा) हुई। उन्हीं दिनों ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या इसके माध्यम से आयकर्म के थपेडे पडते। आग पर रखने पर (1 जून 1973) को नसीराबाद (राज.) में सल्लेखना हुई। भगोने का दध जल्दी तपता, उबलने लगता। भगोना नहीं ग्रीष्मकाल में, जिसे सल्लेखना हेत जघन्यकाल कहा
उबलता, दूध उबलता है। बाहरी प्रकृति का प्रकोप अंतिम जाता है। दीवारें प्रात: 8बजे ऐसी लगती जैसे सिगड़ी के समय तक उन्हें डिगाने में समर्थ नहीं रहा। सावधानीपर्वक पास रखी गईं हों। दीवारों से टिककर नहीं बैठ सकते । प्रभु। साधना चलती रही। महिनों-महिनों ऐसे व्यतीत हो जाते, से प्रार्थना करता था, गुरुजी की सल्लेखना होना निश्चित उनके चरणों में कभी घडी. घंटों के समान नहीं लगी। उन्होंने है. टल नहीं सकती। उनका शरीर कोमल काया, अपने जीवन में कितनों को पढाया और संयमित जीवन प्रदान वृद्धावस्था, हड्डी-हड्डी दिखाई देती। पूरे शरीर में झुरियाँ कराया। मेरा नम्बर अंतिम था। जीवन में कौन से पुण्य का आ चकी, पेट और पीठ की मैत्री हो चुकी थी। शरीर पूरा अंश (टकडा) मिल गया और वह फल गया. उन्होंने अपना अस्थि-पंजर के समान। आयुकर्म अपनी गति से चलता
काम कर दिया। है। इतनी भीषण गर्मी में आहार के लिये निकलते । आहार
शब्दों की भाषा और भावों की भाषा में बहुत अन्तर है। में मात्र पेय (रस), अन्न त्याग तो ८-९ माह पूर्व हो गया।
जिस तरह संगीत को कोई भी भाषा जाननेवाले समझ लेते हैं, था। भावना भाते कछ पेय (रस) अन्दर पहुँच जाय। उठ
इसी तरह अध्यात्मनिष्ठ व्यक्ति के पास भी कोई भी कन्नड़, जायें, तो बैठने की हिम्मत नहीं। इतने पर भी वाणी खिर ।
बुन्देलखण्डी, मराठी भाषी आ जावे, वे उसे अध्यात्म से जाती, तो अमृत की झड़ी लग जाती। कवि तो वे थे ही।
ओतप्रोत कर देते। उनको तो जिनवाणी की सेवा का प्रतिफल मिल चुका था। रात-दिन आराधना चलती।३ दिन यू ही निकल गये बिना
"गुरुकृपा से बाँसुरी बना, मैं तो ठेठ बाँस था।"
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