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सीता सती ने जीवन की अन्तिम परीक्षा के पहले जिनेन्द्र । तपस्या है, जिससे कर्मों की गुणश्रेणी क्रम से निर्जरा होती है। भगवान से सेठ सुदर्शन की तरह प्रार्थना एवं संकल्प किया होगा | अनुकूलता को भोगना तो पुण्य को ही भोगना है, जिससे कि कि परीक्षा में पूर्णांक से उत्तीर्ण हो जाने पर आर्यिका दीक्षा | पाप का ही बंध होता है। लेकर पुन: वनवास का ही जीवन स्वीकार करना है । राजमहल सीता सती ने अग्निपरीक्षा में सकुशलता से सफलता की पट्टरानी को जीवन के भोगोपभोगों से वितृष्णा हो गई थी। प्राप्त की। देव-मानवादि के द्वारा इस अभूतपूर्व घटना के लिए किसी के प्रति कोई राग द्वेष तो रंचमात्र भी नहीं था। पर यह तो | सीता माता वन्दित एवं अभिनन्दित हुईं। अब राजाधिराज आज सोचना पड़ता है कि असहाय अबला नारी पर पुरुष का | रामचन्द्रजी के एकान्त आन्तरिक अनुनय-विनय के प्रति जरा अत्याचार प्राचीन काल से होता आया है।
भी दृष्टिपात नहीं करते हुए सीता जी ने आर्यिका दीक्षा ग्रहण संकल्प में शक्ति होती है, एक ऐसी शक्ति जो कि | कर ली। जिन राजा एवं स्वामी रामचन्द्रजी के चरण कमलों को असम्भव लगने जैसे कार्य को भी सहज ही सम्पादित कर | रानी सीता नमन करती थीं, उन्हीं पति रामचन्द्रजी ने आर्यिका सकती है। एक-दो बार प्राणों की बाजी लगाने पर ही ऐसी | सीता साध्वी माताजी के पादपदमों में अभिवन्दन किया। त्याग शक्ति का ज्ञान और श्रद्धान के द्वारा ही प्रादुर्भाव होता है। एक बार भी प्रयोग सफल हो गया तो मनुष्य मोक्ष जाने तक पथ में सीता आर्यिका माताजी ने कठोर तपस्या की। दीर्घकाल आनेवाली बाधा-विपत्तियों को सहज ही जय करता जाता है। तक वनवास का जीवन जीने का अभ्यास जो पूर्व में हुआ था इस विधि में प्राथमिक अवस्था में प्रतिकूलता में ही समतापूर्वक | वह अब काम आ रहा था। उस घोर तप के द्वारा स्त्रीपर्याय का अपनी साहिष्णुता बढ़ाते जाना पड़ता है। जैन सिद्धान्त में | छेद करके देवपर्याय में स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद को प्राप्त किया। अनुकूलता में भी २२ परिषहों को आह्वान करके जीतने का नाम | भविष्य में मनुष्य पर्याय से तपस्या करके उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा।
ईमानदार इन्सान का इम्तिहान
ब्र. शांति कुमार जैन करीब 20 वर्ष पहले की घटना है। असम के एक सुन्दर शहर तेजपुर में रात्रि ९ बजे मन्दिर में प्रवचन करके प्रतिदिन की भाँति पत्नी के साथ घर पैदल ही जा रहा था। दुकान में दिनभर की विक्री के रु. ४५००.०० एवं कुछ जरूरी कागजाद एक सफेद छोटी थैली में रखकर कमर में बाँयी ओर धोती के साथ खोंस लिये थे। आपस में बातें करते-करते आराम से जा रहे थे। घर थोड़ी दूर पर था। रास्ते में सन्नाटा था। रास्ते में बाँयी तरफ से चल रहे थे। घर पहुँचने से कुछ पहले ही अचानक कमर पर हाथ लगा तो मालूम हुआ कि थैली अपने स्थान पर नहीं है। रास्ते में थैली कब, कहाँ गिर गई कुछ पता नहीं। एकाएक सन्न से घबराहट से हाथ पैर सुन्न होने लगे। पत्नी ने धीरज बँधाया एवं खोजने वापस चलने को कहा। रास्ते में जिस तरफ से आये थे पुनः उसी आर से टार्च जलाकर देखते खोजते चले पर थैली कहीं नहीं मिली। रुपयों से भी अधिक मूल्यवान तो कागजाद थे। हताश भारी मन से घर लौटने लगे। लौटते में भी टार्च जलाकर रास्ते में खोजते ही जा रहे थे।
तभी दो साइकिल के साथ चार व्यक्ति मिले। हमें रोककर उनमें से एक ने पूछा कि हम क्या खोज रहे हैं? हमन शोक सन्ताप के स्वर में थैली के गिर जाने की बात कही तो उन महानुभाव ने थैली हमें दिखाई तो हमने पहचान की स्वीकृति दी। थैली देखकर जान में जान तो आई पर अभी वह उन्हीं के हाथ में थी। शेष ३व्यक्ति कुछ नहीं बोल रहे थे, मात्र देख रहे थे।
उस आसामी सज्जन ने हमें थैली दे दी और कहा कि रुपये गिनकर देख लेवें कि ठीक तो हैं न। हमने कहा कि क्या गिनना है, लेना ही होता, तो देते ही क्यों? हमने उन सबका धन्यवाद किया, आभार प्रकट किया। उस ईमानदार इन्सान ने बताया कि थैली तो जाते में ही मिल गई थी। थैली के मालिक की सही पहचान करने की खोज भी उनको थी। बातों से लगा कि जिनको थैली मिली थी वे ही उसे लौटाने की जिद करके वापस पैदल चल कर आ रहे थे।
जी तो किया कि उस ईमानदार इन्सान के पैर छू लें। हमने पुरस्कार के रूप में कुछ देना चाहा, तो उन्होंने जो कहा वह आज भी दिल दिमाग में बैठा है। कहा कि लेना ही होता तो देते ही क्यों? यह तो एक इम्तिहान था जिसमें पूर्ण संख्या प्राप्त कर पाये, यही पर्याप्त है। धरती पर आज भी देवतुल्य मानव हैं पर संख्या भले ही अल्प हो।
18 अगस्त 2005 जिनभाषित -
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