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________________ सामायिकदण्डक, त्थोस्सामिदण्डक, पंच-गुरु भक्ति और | द्वारा पंचगुरुभक्ति का कृत्य विज्ञापन किया गया है, इसलिए यथासम्भव समाधिभक्ति यथाविधि अवश्य पढ़ी जाती रही | इसके आगे पंचगुरुभक्ति करनी चाहिए, इसे कोई नहीं जानता। है। इस विषय की विस्तृत चर्चा श्री पं. पन्नालालजी सोनी ने | कृतिकर्म के अन्त में पहले समाधिभक्ति पढ़ी जाती थी, उसे 'क्रिया-कलाप' में की है। विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ से ज्ञान | पूजाविधि के अन्त में वर्तमान समय में भी यथास्थान पढ़ते प्राप्त करके अपने कृतिकर्म में संशोधन करने में उससे | हैं। जिसे आजकल शान्तिपाठ कहा जाता है, वह समाधिभक्ति सहायता लेनी चाहिए। ही है। अन्तर केवल इतना है कि समाधिभक्ति में 'प्रथम ५. वर्तमान पूजा-विधि करणं चरणं द्रव्यं नमः' यहाँ से लेकर आगे का पाठ पढ़ा वर्तमान में जो दर्शनविधि और पूजाविधि प्रचलित है, | जाता था और शान्तिपाठ में 'शान्तिजिनं शशि.....' इत्यादि उसमें वे सब गुण नहीं रहने पाये हैं जो 'षट्खण्डागम' आदि | पाठ भी सम्मिलित कर लिया गया है। इससे उद्देश्य में भी में प्रतिपादित क्रिया-कर्म में निर्दिष्ट किये गये हैं। अधिकतर | अन्तर आ गया है। श्रावक और त्यागी जन जिन्हें जितना अवकाश मिलता है, इतना सब लिखने का अभिप्राय इतना ही है कि उसके अनुसार इस विधि को सम्पन्न करते हैं। व्रती श्रावकों | | वर्तमान पूजाविधि में यद्यपि पुराने कृतिकर्म का समावेश में और साधुओं में त्रिकाल देववन्दना का नियम तो एक | किया गया है, पर कृत्यविज्ञापन, प्रतिक्रमण और आलोचनाप्रकार से उठ ही गया है, प्रतिक्रमण और आलोचना करने | पाठ छोड़ दिये गये हैं। विधि में जो एकरूपता थी, वह भी की विधि भी समाप्तप्राय ही है। यह क्रतिकर्म का आवश्यक | नहीं रहने पायी है। देववन्दना के समय हमें क्या कितना अंग है। फिर भी समग्र पूजाविधि को देखने से ऐसा अवश्य | करना चाहिए, यह कोई नहीं जानता। द्रव्य की बहुलता और प्रतीत होता है कि उसमें पूर्वोक्त देववन्दना (कृतिकर्म) का | प्रधानता हो जाने से कृतिकर्म देवदर्शन और देवपूजा इस समावेश अवश्य किया गया है। इतना अवश्य है कि कुछ | प्रकार दो भागों में विभक्त हो गया है। वस्तुत: इन दोनों में आवश्यक क्रियाएँ छूट गयी हैं और कुछ नयी आ मिली हैं। | कोई अन्तर नहीं है। गृहस्थ अपने साथ प्रासुक द्रव्य लाकर कृतिकर्म प्रारम्भ करने के पूर्व जो ईर्यापथशुद्धि करनी चाहिए, | यथास्थान उसका प्रयोग करे, यह बात अलग है, इसका 'उसे वर्तमान समय में व्रती श्रावक भी नहीं करते, अव्रती निषेध नहीं है। पण्डितप्रवर आशाधरजी ने श्रावक की दिनचर्या श्रावकों की बात तो अलग है। सामायिकदण्डक समग्र तो में त्रिकाल देववन्दना के समय दोनों प्रकार से पूजा करने का नहीं, पर उसका प्रारम्भिक भाग पंच नमस्कारमन्त्र और | विधान किया है। प्रात:कालीन देववन्दना का विधान करते चत्तारिदण्डक पूजाविधि में यथास्थान सम्मिलित कर लिया | हुए वे लिखते हैं कि श्री जिनमन्दिर में जाते समय गृहस्थ को गया है। मात्र उसे पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण कर देते हैं। चार हाथ भूमि शोधकर जाना चाहिए। मन्दिर में पहुंचकर त्थोस्सामिदण्डक के स्थान में 'श्रीवृषभो नः स्वस्ति' यह | और हाथ-पैर धोकर सर्वप्रथम 'जाव अरहंताणं.....' इत्यादि स्वस्तिपाठ और पंचगुरुभक्ति के स्थान में 'नित्याप्रकम्पा.....' | वचन बोलकर पहले ईर्यापथशुद्धि करनी चाहिए। अनन्तर यह स्वस्तिपाठ वर्तमान पजाविधि में सम्मिलित है. जो | 'जयन्ति निर्जिताशेष.....' इत्यादि पढ़कर या पूजाष्टक पढ़कर कृतिकर्म के अनुसार है । अर्थात् पहले 'श्रीवृषभो नः स्वस्ति' | देववन्दना करनी चाहिए। सर्वप्रथम जिनेन्द्रदेव की पूजा करे। यह पढ़कर बाद में पंचगुरुभक्ति पढ़ी जाती है। किन्तु इनके | उसके बाद श्रुत और सूरि की पूजा करे। इसे वे जघन्य बीच में चैत्यभक्ति नहीं पढ़ी जाती। प्राचीन चैत्यभक्ति दो | (साधारण) वन्दना-विधि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि अष्ट मिलती हैं- एक लघु चैत्यभक्ति और दूसरी बृहच्चैत्यभक्ति। | द्रव्य से यदि गृहस्थ देववन्दना करता है, तो सर्वोत्कृष्ट है इनमें से लघ चैत्यभक्ति पूजाविधि में अवश्य सम्मिलित की | और यदि अष्ट द्रव्य के बिना करता है, तो भी हानि नहीं है। गयी है. किन्त वह अपने स्थान पर न होकर देव-शास्त्र-गरु | मात्र देववन्दना यथाविधि होनी चाहिए। तथा बीस तीर्थंकर की पूजा के बाद में आती है। जिसे | पूजा-विधि का अन्य प्रकार वर्तमान में कृत्रिमाकृत्रिम जिनालय-पूजा कहते हैं, वह लघु साधारणत: देवपूजा का जो पुरातन प्रकार रहा है और चैत्यभक्ति ही है। इसे पढ़कर इसका आलोचना-पाठ भी | उसका वर्तमान समय में प्रचलित पूजा-विधि में जिस प्रकार पढ़ते हैं। और अन्त में 'अथ पौर्वाह्निक.....' इत्यादि पाठ | समावेश किया गया है, उसका हमने स्पष्टीकरण किया है। अगस्त 2005 जिनभाषित १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524299
Book TitleJinabhashita 2005 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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