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से निम्नलिखित दो श्लोकों को देखिये :
पलाशस्य समिन्मुख्या स्यादमुख्या पयस्तरोः । विधानमेतत्संग्राह्यं विशेषवचनाद्दते ॥ 30 ॥ सृक्सचा चांदनौ मुख्यौ पैप्पलौ तदसंभवे । तद्भावे पलाशस्य दलं वा पिप्पलस्य वा ॥31॥ इन दोनों श्लोकों का यथार्थ अर्थ ऐसा है : 'हवन क्रिया में पलाश (ढाक) की लकड़ी मुख्य मानी गई है और गौणरुप से क्षीर वृक्ष की भी। यह विधान विशेष सूचना के बिना सर्वत्र ग्राह्य है। सूची स्त्रवा (जिनमें रखकर हवनद्रव्य होमा जाता है) मुख्यता से चंदन के बने होने चाहिये । उनके अभाव में पीपल की लकड़ी के बने भी लिये जा सकते हैं। वे भी न हों तो पलाश या पीपल के पत्ते से काम लिया जा सकता है।'
इसमें से 31 वें श्लोक के दूसरे चरण का पाठ आपने ‘पैस्थलौ दलसंभवे' छापा है जो अशुद्ध है और इस श्लोक का अर्थ आपने किया है वह तो बड़ा ही विलक्षण है। इन दोनों श्लोकों का अर्थ आपने निम्न प्रकार किया है। 'होम में पलाश की लकड़ी मुख्य मानी गई है यदि
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अन्य कितना ही अप्रकाशित अनूठा जैन साहित्य भरा पड़ा है जिनके प्रकाशन की भारी आवश्यकता होते हुये भी न जाने उक्त संस्था ने इसका प्रकाशन क्या समझकर किया और क्यों इसमें समाज का प्रचुर द्रव्य खर्च किया गया ?
'जैन निबन्ध रत्नावली (भाग 1)' से साभार
मण्डला में आचार्य श्री विद्यासागर दि. जैन पाठशाला का शुभारम्भ
संत शिरोमणी आचार्य १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज के शुभ आशीर्वाद से उनके शिष्य मुनिश्री समतासागर जी, ऐलक श्री निश्चयसागर जी, क्षुल्लक श्री पूर्णसागर जी महाराज की प्रेरणा एवं सानिध्य में आचार्य श्री विद्यासागर दिगम्बर जैन पाठशाला का शुभारंभ आदिनाथ भगवान की जन्म जयंती (चैत्र बदी नवमी) के अवसर पर किया गया है।
उद्देश्य
वह न मिले तो दूध वाले वृक्ष पीपल आदि के वृक्ष की सूखी लकड़ी होनी चाहिये यह सामान्य रीति है। साथ में सफेद चंदन लालचंदन और शमी (अरणी) की लकड़ी भी होनी चाहिये और पत्ते पीपल व ढाक के होने चाहिये ।'
न मालूम आपने 'स्त्रु कृस्नु चौ चांदनौ' का अर्थ सूची स्त्रवा चंदन के बने हों इस ठीक अर्थ के स्थान में सफेद लालचंदन की समिधा अर्थ कैसे समझ लिया? और पैस्थल का अर्थ शमी लकड़ी कैसे किया- आपने द्विवचन पर भी ध्यान नहीं दिया। इसीतरह श्लोक 28 में 'हवन करने वाला रेशमी या सणी वस्त्र पहनकर हवन करें।' इस अर्थ ही को आप उड़ा गये हैं । अन्यत्र भी कहीं-कहीं भूले हैं जिनका विवेचन यहाँ लेख वृद्धि के भय से छोड़ा जाता T
पाठशाला का उद्देश्य जैन समाज के सभी बच्चों में धार्मिक संस्कार, चारित्रिक गुणों का विकास, बड़ों के प्रति आदरभाव, दिगम्बर जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण का भाव, जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों के प्रति अटूट विश्वास, मैत्री भावना का विकास अभिनय, प्रस्तुतीकरण एवं नेतृत्व के गुणों का विकास तथा जैन ग्रन्थों के पठन पाठन की रुचि एवं अनुशासन की शिक्षा देना है।
स्वरूप
पाठशाला में बालबोध भाग १ से भाग ४ तक एवं द्रव्य संग्रह, छहढाला, तत्वार्थसूत्र की शिक्षा स्थानीय शिक्षिकाओं द्वारा दी जा रही है। पाठशाला का प्रारम्भ सामूहिक प्रार्थना "जीवन हम आदर्श बनावें......" से एवं "हम वंदन करते हैं अभिनंदन करते हैं..... प्रभु सा बन जाने को प्रभु पूजन करते हैं, की सामूहिक भजन ध्वनि के साथ एवं जिनवाणी स्तुति पूर्वक कक्षा को विराम दिया जाता है। इस पाठशाला की विशेषता यह है कि बाहर से अध्यापन हेतु किसी व्यक्ति विशेष को बुलाने की अपेक्षा न रखकर नगर की उत्साहित सम्मानित शिक्षिकाएं एवं बहिनों द्वारा बच्चों को धर्मज्ञान देकर सुसंस्कारित किया जा रहा है। प्रतिदिन अच्छी संख्या में बच्चे उपस्थित हो रहे हैं । देवशास्त्र - गुरु के प्रति भक्ति भावना ही प्रथम माध्यम रही है। बच्चे पाठशाला में बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं।
14 अगस्त 2005 जिनभाषित
बच्चों को इस पाठशाला के प्रति मुनिश्री कितने गम्भीर हैं, इसका पता केवल इसी बात से चल जाता है कि, यह पाठशाला भविष्य में भी सुचारू चलती रहे, इसके लिए श्री शांतिनाथ दि. जैन मंदिर एवं श्री महावीर दि. जैन मंदिर व्यवस्था समिति का संरक्षण प्राप्त है । उसी के द्वारा नियुक्त एक संयोजक के साथ-साथ मुनिश्री ने पाठशाला के लिए संकल्पित समर्पित सक्रिय सहयोगी के रूप में एक 'पाठशाला सहयोगी समिति' गठित की है। इसमें संरक्षक बनाये गये एवं शिक्षक-शिक्षिकाओं की योग्यता परखते हुए उन्हें नियुक्त किया गया।
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अशोक कौछल
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