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________________ उपरोक्त प्रकरण नित्यनिगोद तथा इतरनिगोद दोनों ही प्रकार के निगोदियाओं में सामान्य रूप से ग्रहण करना चाहिए। इतना विशेष और भी जानना चाहिए कि निगोद से सीधे मनुष्य पर्याय प्राप्त करने वाले जीव मोक्ष तो जा सकते हैं परन्तु 63 शलाका पुरुष नहीं बन सकते । जिज्ञासा : क्या सम्यग्दर्शन की पर्याय निश्चयव्यवहार दो रूप होती है? समाधान: आचार्यों ने सम्यग्दर्शन की पर्याय दो रूप ही मानी है। पंचास्तिकाय गाथा 107 की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने कहा है, 'यद्यपि क्वापि निर्विकल्प समाधि काले निर्विकार शुद्धात्मरुचिरूपं निश्चय सम्यक्त्वं स्पृशति तथापि प्रचुरेण बहिरंग पदार्थ रुचिरूपं यद्वव्यवहारसम्यक्त्वं तस्यैव तत्र मुख्यता ।' अर्थ : यद्यपि किसी निर्विकल्प समाधिकाल में निर्विकार शुद्ध आत्मरुचि रूप जो व्यवहार सम्यक्त्व है, उसकी ही वहाँ मुख्यता है । इस प्रकरण से स्पष्ट है कि निश्चय सम्यक्त्व तो कभी-कभी होता है जबकि व्यवहार सम्यक्त्व प्रचुरता से रहता है। आचार्यों ने व्यवहार सम्यक्त्व को सराग सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व कहा है। समयसार गाथा 211-12 की टीका में (परमाणुमित्तियं पिहू) • तीर्थंकर, भरत, सगर, राम व पाण्डव आदि को सराग सम्यग्दृष्टि माना है, वीतराग नहीं। इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन की निश्चय और व्यवहार रूप दो अवस्थाएं हैं। श्री परमात्मप्रकाश अध्याय-2, गाथा 17 की टीका में इसप्रकार कहा है, 'द्विधा सम्यक्त्वं भण्यते सरागवीतराग भेदेन । प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सराग सम्यक्त्वं भण्यते, तदेव व्यवहार सम्यक्त्वमिति तस्य विषय भूतानि षड्द्रव्याणीति । वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राबिनाभूतं तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति' 1 अर्थ : सराग और वीतराग के भेद से सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य की प्रकटता जिसका लक्षण है वह सरागसम्यग्दर्शन है, वही व्यवहार सम्यग्दर्शन है । उसका विषय छह द्रव्य हैं। निज शुद्धात्मानुभूति जिसका लक्षण है वह वीतराग सम्यग्दर्शन है और वह वीतराग चारित्र के साथ ही रहता है, उसको निश्चय सम्यग्दर्शन कहा है। उपरोक्त प्रमाण के अनुसार सम्यग्दर्शन की पर्याय रूप होना सिद्ध है। Jain Education International जिज्ञासा : हमारे निरन्तर कर्म का उदय होता रहता है और तद्नुसार नवीन बंध भी होता रहता है। तब मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकेगा, अच्छी तरह समझाईये ? समाधान : उपरोक्त जिज्ञासा का समाधान वृहद्रव्य संग्रह गाथा 37 की टीका में बहुत अच्छे ढंग से किया गया। है, जिसका हिन्दी अर्थ इसप्रकार है, 'यहां शिष्य कहता हैसंसारी जीवों को निरन्तर कर्मों का बंध होता है उसीप्रकार कर्मों का उदय भी होता है, शुद्धात्मभावना का प्रसंग नहीं है, तो मोक्ष किसप्रकार हो ? उसका उत्तर : जिसप्रकार कोई बुद्धिमान मनुष्य शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर विचार करता है कि 'यह मेरा मारने का अवसर है, 'तत्पश्चात् पुरुषार्थ करके शत्रु को नष्ट करता है, उसी प्रकार कर्मों की भी एकरूप अवस्था नहीं रहती है। जब कर्म की स्थिति और अनुभाग हीन होने पर वह लघु और क्षीण होता है तब बुद्धिमान भव्य जीव आगमभाषा से 'खयउवसमियविसोही देसण पाउग्ग करणलद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्ते ।' अर्थ : क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि, इनमें से चार तो सामान्य हैं और करणलब्धि सम्यक्त्व होने के समय होती है। इस गाथा में कथित पाँच लब्धि नामक ( निर्मलभावना विशेषरूप खड्ग से ) और अध्यात्म भाषा से निजशुद्धात्माभिमुख परिणाम नामक विशेष प्रकार की निर्मल भावनारूप खड्ग से पुरुषार्थ करके कर्मशत्रु को नष्ट करता है। अंत:कोटाकोटि (सागर) प्रमाण कर्म की स्थितिरूप तथा लता और काष्ठस्थानीय अनुभागरूप कर्म का लघुत्व होने पर भी यह जीव आगम भाषा से अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक और अध्यात्मभाषा से स्वशुद्धात्माभिमुख परिणतिरूप ऐसी कर्महननबुद्धि किसी भी काल में नहीं करे तो वह अभव्यत्व गुण का लक्षण जानना ।' भावार्थ : जैसे नदी में गिरा हुआ कोई व्यक्ति, नदी के तेज बहाव रहने पर पुरुषार्थ करे तो उसका पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं होता और वही पुरुषार्थ नदी के मन्द बहाव में कार्यकारी सिद्ध हो जाता है, उसीप्रकार कर्मों के मन्द उदय में यदि आत्मकल्याण के लिए योग्य पुरुषार्थ किया जाता है तो उससे मिथ्यात्वादि का उपशम आदि होने से मोक्षमार्ग में प्रवेश हो जाता है। प्रश्नकर्ता : श्री पी.सी. पहाड़िया, भीलवाड़ा जिज्ञासा : कृपया बताएं कि क्या कोई आर्यिका मुनिराज को आहार दे सकती है, तथा क्या मुनिराज क्षेत्रों पर खुली हुई दानशालाओं का आहार ग्रहण कर सकते हैं अथवा अगस्त 2005 जिनभाषित 25 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524299
Book TitleJinabhashita 2005 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2005
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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