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मालवा) और वाराणसी में कुछ-कुछ समय तक रहे। बनारस | करते थे। में वहाँ के राजा को सम्बोधन करके यह वाक्य कहा था : | पार्श्वनाथचरित के रचयिता श्री वादिराजसूरि ने
"राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैन | देवागम और रत्नकरण्ड नाम के दो ग्रन्थों का उल्लेख करते निर्ग्रन्थवादी"
हुए स्वामी समन्तभद्र के चरित्र को आश्चर्यजनक बताया। ___अर्थात् हे राजन् ! मैं जैन निर्ग्रन्थवादी हूँ, जिस किसी | वे निश्चय से योगीन्द्र और त्यागी होते हुए भी भव्य जनों को की शक्ति मुझसे वाद करने की हो वह सन्मुख होकर वाद | अक्षय सुख का कारण रत्नों का पिटारा दान दिया। विश्व करे। वहाँ आपने मिथ्र्यकान्तवादियों को परास्त करके स्तुतिपात्र कुटुम्ब की भावना से वे अनुप्राणित रहे। उन्होंने महत्, नि:सीम बने थे।
पुण्य को संचित कर भावी तीर्थंकर के रूप में धर्मतीर्थ को समन्तभद्र के संबंध में एक उल्लेख मिलता है कि वे | चलानेवाले होंगे, ऐसा कितने ही ग्रन्थों में उल्लेख पाया जाता चारणऋद्धि से युक्त थे अर्थात् तप के प्रभाव से चलने की | है। राजावलिक थे में “आ भावि तीर्थंकर न अप्प ऐसी शक्ति प्राप्त हो गयी थी, जिससे वे दूसरों को बाधा न | समन्तभद्रष्यामि गलु।" समन्तभद्र स्वामी महान अर्हद्भक्त पहुँचाते हुए शीघ्रता से सैकड़ों कोस चले जाते थे। इस प्रकार | थे। अत: उन्होने चरमोत्कर्ष अर्हत्सेवा के लिए, भावी तीर्थंकर आपको सुदूर देशों की यात्रा करना कठिन नहीं था। इसी से | होने के योग्य पुण्य संचय किया। आपके कुछ ग्रन्थों को वे भारत के प्रायः सभी प्रान्तों में आसानी से घूम सके थे। | छोड़कर, शेष सब ग्रन्थ स्तोत्रों के रूप में ही हैं। समन्तभद्र
समन्तभद्र के जीवन की सफलता का रहस्य उनके | स्तुति रचना के इतने प्रेमी क्यों थे और उन्होंने इस मार्ग को अन्त:करण की शुद्धता, चरित्र की निर्मलता और वाणी की | क्यों चुना? इसका कारण उनका भक्ति उद्रेक हो सकता है हितकामना थी। उनमें अपने अहंकार को दिखाने, लौकिक | परन्तु विशिष्ट कारण अपने स्वयम्भूस्तोत्र में लिखते हैं- "स्तुति स्वार्थ को सिद्ध करने और दूसरों को नीचा दिखाने की कतई | के समय, स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो, फल की प्राप्ति भावना नहीं थी। वे स्वयं सन्मार्ग पर आरूढ़ होकर, दूसरे | सीधी उसके द्वारा हो या न हो, परन्तु स्तोता की स्तुति, पुण्य कुमार्ग में फंसे लोगों को अपनी शक्ति भर उद्धार करके उन्हें | प्रसाधक परिणामों की कारण जरूर होती है, जिससे श्रेयसफल भी सन्मार्ग पर लगाने का प्रयास करते थे। वे स्वात्म हित | मिलता है, अत: विवेकीजन आपकी स्तुति जरूर करेगा। साधन के बाद दूसरों का हित साधन करने वाले महान् | समन्तभद्र ने अपने स्तोत्रों के द्वारा श्रेयोमार्ग को सुलभ और आचार्य थे।
स्वाधीन मानते थे। जिनस्तुति शतक में इसे "जन्मारण्यशिखी समन्तभद्र के वचनों में खास विशेषता यह थी कि वे | स्तवः" कहकर, स्तुति को जन्म-मरण रूपी संसार वन को स्याद्वाद न्याय की तुला में तुले हुए वचन उद्भूत करते थे। वे | भस्म करनेवाली अग्नि कहा है। समन्तभद्र वास्तव में ज्ञानगंगा परीक्षा प्रधानी थे और पक्षपात को बिल्कुल पसंद नहीं करते | कर्मयोग और भक्तियोग तीनों के एकाकार रूप जीवन्त मूर्ति थे। उन्होंने महावीर तक की परीक्षा कर डाली और तभी | थे। उन्हें आप्त रूप से स्वीकार किया। वे समर्थ यक्तियों द्वारा | मनि जीवन अच्छी तरह से जाँच करते, गुण-दोषों का पता लगाते, तब | | आपका मुनि जीवन अनेक घटनाओं से भरा है। उसे स्वीकार करते थे। वे किसी वस्तु या विचार को जबरदस्ती | कांची के समीपस्थ 'मणुवकहल्ली' ग्राम में आनंदपूर्वक किसी के गले नहीं उतारते थे। वे विचारों का चिन्तन सब | मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे, तभी पूर्व संचित असातावेदनीय पहलओं से करते थे। उन्होंने अनेकान्त को अपने व्यावहारिक कर्म के तीव्र उदय से, आपके शरीर में 'भस्मक' नाम का जीवन में आत्मसात किया था।
महारोग उत्पन्न हो गया। इस रोग के कारण आपका शरीर समन्तभद्र स्याद्वादविद्या के अद्वितीय अधिपति थे। | क्षीण होने लगा। प्रारम्भ में वे इसे अनशनादि तप के रूप में उनकी प्रत्येक क्रिया से अनेकानत की ध्वनि निकलती थी। क्षधा परिषह जानकर सहन करते रहे। लेकिन क्षुधा की उन्होंने स्याद्वाद की छत्रछाया में, अपने अज्ञान ताप को मिटाकर अतितीब्रता के कारण, उन्हें बडी वेदना होने लगी। दुबारा सुख का साम्राज्य भोगा। आप्तमीमांसा' उनका स्याद्वाद विद्या | भोजन करना या स्निग्ध, मधुर, शीतल, गरिष्ठ भोजन तैयार का कथन करनेवाला अपूर्व ग्रन्थ है। आपका प्रभाव अत्यन्त | करने की प्रेरणा मुनिधर्म के विरुद्ध था। अत: उत्कर्ष पर रहा, अत: विद्वान लोग आपको स्याद्वादविद्याग्रगुरु', | असाध्य जानकर सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण का विचार 'स्याद्वादविद्याधिपति' आदि विशेषणों के द्वारा आपको स्मरण | बनाया। परन्तु उनके अन्त:करण से एक दूसरी आवाज 20 अगस्त 2005 जिनभाषित
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