Book Title: Jinabhashita 2005 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ आचार्य समन्तभद्र और उनकी स्तुतिपरक रचनाएँ जैन शासन के प्रतिभाशाली आचार्यों में स्वामी समन्तभद्र का स्थान सर्वोपरि है। श्रमणवेलगोल के शिलालेख क्र. १०८ में आपको 'जिनशासन प्रणेता' लिखा गया । ये क्षत्रियवंश में उत्पन्न राजपुत्र थे । आपके पिता फणिमण्डलान्तर्गत ‘उरगपुर' के राजा थे, अस्तु उरगपुर को आपकी जन्मभूमि या बाल्यलीला भूमि होना चाहिए। 'राजावलीकथे' में आपकी जन्मभूमि' उत्कलिका' ग्राम लिखा है, जो उरगपुर के अन्तर्गत होगा । उरगपुर नगर काबेरी नदी पर बसा हुआ एक समृद्धशाली जनपद था । यदि कदम्बवंशी राजा शान्तिवर्मा और शान्तिवर्मा समन्तभद्र, दोनों एक ही व्यक्ति थे, तो आपने गृहस्थाश्रम को धारण किया था और विवाह भी कराया था । तथा आपके मृगेशवर्मा नाम का पुत्र था । दक्षिण में कदम्बवंशी राजा प्रायः सब जैनी हुए हैं। परन्तु दोनों की नाम साम्यता के पुष्ट प्रमाण नहीं हैं। आप ज्यादा दिन गृहस्थाश्रम में नहीं रहे और जल्दी ही मुनि दीक्षा धारण कर ली। आपकी असाधारण योग्यता इस बात को बताती है कि आप बाल्यावस्था से ही जैनधर्म और जिनेन्द्रदेव की सेवा के लिए अर्पित हो गए थे। सम्भव है पिता की मृत्यु के उपरान्त इनके बड़े भाई को राज्याधिकारी मनोनीत कर दिया गया हो और इन्होंने विवाह न कराकर, धार्मिक परिवेष में ढल जाने के कारण जल्दी ही दीक्षित होकर उरगपुर से बाहर चले गये हों । के आपकी शिक्षा उरगपुर के बाद, कांची अथवा मदुरा में हुई जान पड़ती है, क्योंकि ये तीनों स्थान उस समय विद्या मुख्य केन्द्र थे । 'कांच्यां नग्नाटकोऽहं' से ऐसा जान पड़ता है कि कांची (कांजीवरम्) आपका दीक्षा स्थान था । दीक्षा गुरु कौन थे यह किसी ग्रन्थ में उल्लेखित नहीं मिला, परन्तु इतना अवश्य है कि वे मूलसंघ के प्रधान आचार्यों में एक थे । श्रवणबेलगोल के शिलालेखों से ऐसा पता चलता है कि आप श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्त और उनके वंशज पद्यनन्दि और उमास्वाति आचार्यों की वंश परम्परा में हुए हैं। गुणादि परिचय 'गुणतोगणीश: ' विशेषण के द्वारा स्वामी समन्तभद्र को सूचित किया गया है। आप भद्र परिणामी, भद्रावलोकी और भद्रव्यवहारी थे, अतः आपका नाम दीक्षा के समय ही Jain Education International प्राचार्य पं. निहालचन्द्र जैन समन्तभद्र रक्खा गया हो। आपकी तेजपूर्ण दृष्टि और सारगर्भित उक्तियां, मदोन्मत्तों को नतमस्तक करने वाली थी। आप जैन सिद्धान्तों के मर्मज्ञ होने के साथ-साथ तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्य-कोषादि में पूर्णत: निष्णात थे 1 आपकी अलौकिक प्रतिभा ने तात्कालिक ज्ञान एवं विज्ञान के प्रायः सभी विषयों पर अधिकार जमा लिया था । आप संस्कृत, कन्नड़, प्राकृत और तमिल भाषा के पारंगत विद्वान थे । प्रायः सभी ग्रन्थ संस्कृत भाषा में विद्यमान हैं। संस्कृत भाषा की 'स्तुतिविद्या' ही आपके अद्वितीय शब्दाधिपत्य को सूचित करती है । कन्नड़ भाषा के काव्य जगत के आप एक उत्कृष्ट कवि के रूप में भूरि-भूरि प्रशंसा को प्राप्त हुए थे। आदि पुराण में भगवज्जिनसेनाचार्य ने आपके गुणों को रेखांकित करते हुए निम्नलिखित दो श्लोक लिखे जो प्रासंगिक हैं यद्वचो नमः समन्तभद्राय महते कवि वेधसे । यो वज्र पातेन निर्भिन्ना कुमताद्रय ॥ ४३ ॥ कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं, मूहिर्न चूडामणीयते ॥ ४४॥ आपकी असाधारण योग्यता इन चार गुणों के रूप में यशस्वी बनी : कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व | जिनकी वचन प्रवृत्ति विजय की ओर हो, वे वादी कहलाते हैं। जो अपनी वाक्पटुता तथा शब्दचातुरी से दूसरों को रंजायमान कर लेते हैं, वे वाग्मी कहलाते हैं । कवित्व में मौलिक रचनाएं करने में आप पूर्ण समर्थ थे। जो दूसरे विद्वानों की कृतियों के मर्म को समझने तथा उनकी तह तक पहुँचने में दक्ष हो वह 'गमक' संज्ञा पाता है। स्वामी समन्तभद्र में उक्त चारों गुण विद्यमान थे। वे अपने वचन रूपी वज्रपात से कुमत रूपी पर्वत को खण्ड-खण्ड करने वाले थे । 11 श्रवणवेलगोल शिलालेख (२५४ नया नं.) जो शक सम्वत् १३२० का है, में आपको "वादीभवज्रांकुशसूक्तिजाल' विशेषण से स्मरण किया गया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रधान आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने आपको 'अनेकान्त जयपताका' और 'वादिमुख्य' विशेषण दिया है । 'राजावलिकथे' से यह ज्ञात होता है कि समन्तभद्र कौशाम्बी (इलाहाबाद के निकट यमुना तट पर स्थित नगरी), लाम्बुश, पुण्डु (उ. बंगाल का पुण्ड्र नगर), दशपुर (आधुनिक मन्दसौर For Private & Personal Use Only अगस्त 2005 जिनभाषित 19 www.jainelibrary.org

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