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आई-समन्तभद्र ! तू जैन शासन का उद्धार करने व उसका । डूब गया। उसने अगले दिन उत्तम भोग भेंट किया और प्रचार करने में समर्थ है अनेक लोकहित के कार्य, तेरे | शिवार्पण के लिए प्रार्थना की। इस तरह दिन गुजरते गये। कारण होंगे। अत: लोकहित के लिए तू कुछ समय के लिए | कुछ दिन बाद जठराग्नि उपशान्त होने लगी और भोग शेष मुनिपद छोड़ दे और भोजन के योग्य व्यवस्था द्वारा रोग को बचने लगा। समन्तभद्र ने आगत उपसर्ग को अनुभव किया शान्त करके पुनः मुनिपद धारण कर लेवे तो कौन सी हानि | और उसकी निवृत्तिपर्यन्त आहार त्याग करके शरीर से ममत्त्व है?
त्यागकर भक्ति के साथ-वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों की इससे भीतर के श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र भाव में जरा | स्तुतिरूप 'स्वयम्भूस्तोत्र' के द्वारा गुणस्तवन करने लगे। राजा भी क्षति नहीं पहुँचेगी। वे एक सदगुणालंकृत गुरुदेव के | के समक्ष जब समन्तभद्र आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की स्तुति पास गये और सारी बातें गुरू के समक्ष रख दी। उन्होंने | करते हुए भीमलिंग की ओर दृष्टि की तो उस स्थान पर समन्तभद्र की सल्लेखना की बात को अस्वीकार करते हुए | दिव्य शक्ति के प्रताप से अर्हन्त भगवान का सुवर्णमय विशाल बड़े प्रेम पूर्वक समझाया कि अभी तेरी आयु के अन्त का | बिम्ब प्रकट होता हुआ दिखाई दिया, तभी उन्होंने दरवाजा समय नहीं आया है। तुम्हारे द्वारा धर्म का उद्धार होना है, | खोल दिया और शेष तीर्थंकरों की स्तुति में तल्लीन हो गए। अत: मेरी आज्ञा है कि अन्यत्र जाकर और इस मुनिपद को | शिवकोटि राजा यह सब माहात्म्य देखकर अत्यन्त त्यागकर रोगोपशमन के योग्य तृप्तिपर्यन्त भोजन प्राप्त करो। | प्रभावित हुए और उनके चरणों में गिर पड़े। इसके बाद फिर रोग के उपशान्त होने पर पुनः जैन मुनि दीक्षा धारण | समन्तभद्र के मुख से धर्म का विस्तृत स्वरूप सुनकर राजा कर लेना। गुरुजी के वचनों को सुनकर उन्होने सल्लेखना | संसार, देह और भोगों से विरक्त हो गया और अपने पुत्र का विचार छोड दिया और शरीर पर भस्म आच्छादित कर | 'श्रीकंठ' को राज्य देकर अपने छोटे भाई शिवायन सहित कांची पहुंचे।
मुनि महाराज से जिनदीक्षा धारण कर ली। इस प्रकार कांची में शिवकोटि राजा के पास पहुँचकर वहाँ के | 'भस्मक' रोग शान्त होने पर समन्तभद्र का आपात्काल भीमलिंग शिवालय गये। राजा ने उनकी भद्राकृति देखकर | समाप्त हुआ और उन्होंने फिर से मुनि दीक्षा धारण कर ली। तथा शिवभक्त समझकर प्रणाम किया। भीमलिंग शिवालय उक्त सम्पूर्ण घटना आज से ८०० वर्ष पूर्व श्रवणवेलगोल में प्रतिदिन १२ खंडुग (४० सेर का एक खंड्ग) परिमाण | के एक शिलालेख पर लिखी है। 'पद्मावती' दिव्य शक्ति के का तन्दुल आदि का भोग चढ़ाया जाता था। समन्तभद्र ने यह | द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति हुई और जिन्होंने अपने मन्त्रकहकर कि मैं तुम्हारा यह नैवेद्य शिवार्पण करूँगा। उन्होंने | वचनों से बिम्बरूप चन्द्रप्रभ को बुला लिया। इस प्रकार उस भोजन के साथ मंदिर में आसन ग्रहण किया और किवाड़ | कल्याणकारी जिनप्रभावना करके वे इस कलिकाल में बन्द करके सबको चले जाने की आज्ञा दी और स्वयं को | वन्दनीय हो गये। भोजन की आहुतियां देने लगे। जब पूरा भोग समाप्त हो गया
क्रमशः... तो दरवाजा खोल दिया गया। राजा यह देखकर आश्चर्य में
जवाहर वार्ड, बीना (म.प्र.)
औलाद के दुश्मन
श्रीमती सुशीला पाटनी जो माँ-बाप अपनी औलाद की गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं, ऐसे माँ-बाप औलाद के दुश्मन होते हैं। अगर संतान गलती करती है और उसे सही समय पर नहीं टोका जाता है, तो संतान का साहस दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है और एक दिन ऐसा आता है, जब वह संतान अपनी सारी हदें पार कर देती है और वही संतान उन माँ-बाप के लिए नासूर बन जाती है। संतान पर स्नेह होना स्वाभाविक है, किन्तु उस स्नेह में अन्धे हो जाना अकलमंदी नहीं, मूर्खता है। कई माँ-बाप तो अपनी संतान की बुराईयों को सुनना तक पसन्द नहीं करते, क्योंकि उनकी आँखों पर अपनी औलाद की अच्छाइयों का रंगीन चश्मा लगा होता है और एक दिन ऐसा आता है जब पछताने के सिवाय कोई चारा नहीं बचता है। अत: माँ-बाप को चाहिए कि वे अपनी संतान की अच्छाइयों के साथ-साथ बुराइयों पर भी ध्यान दें, ताकि संतान गलत राह पर अग्रसर न हो सके। किसी कवि ने ठीक ही कहा है"अगर मर्ज बढ़ता गया तो दवा भी क्या असर करेगी, औलाद की गलतियों को अनदेखा करनेवाले एक दिन जरूर पछताएंगे।"
आर.के. मार्बल प्रा.लि., मदनगंज-किशनगढ़
अगस्त 2005 जिनभाषित 21
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