Book Title: Jinabhashita 2005 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ शाकाहार : एक डॉ. चीरंजीलाल बगड़ा शाकाहार एक स्वाभाविक एवम् प्राकृतिक जीवन-शैली का नाम | मनुष्य के मूल अस्तित्व के साथ इसका सदैव से जुड़ाव रहा है। जीवाश्म विज्ञानी डॉ. एलन वॉकर (मैरीलैंड जान हापकिंस विश्वविद्यालय) की वर्षों की खोज का निष्कर्ष है कि मनुष्य का अस्तित्व पंद्रह करोड़ वर्ष प्राचीन है। तथा प्रारंभ चौदह करोड़ पचानवे लाख वर्ष तक मनुष्य ने फल-फूल, कंद-मूल, पत्ते, पौधे आदि खाकर ही अपनी उदर- पूर्ति की यह धर्म-निरपेक्ष जीवनशैली है। शाकाहार उस पवित्र भावना का शंखनाद है कि धरती का एक-एक तत्त्व पवित्र है । लता और उन पर खिलनेवाली कलियाँ हमारी बहनें हैं, पशु-पक्षी हमारे सहोदर हैं, मौसम की ठण्डक और मनुष्य की ऊष्मा हमारे कुटुम्बी हैं, धरती हमारी मां है तथा आकाश हमारा पिता । सहअस्तित्व को ऐसे आत्मीयभाव से जोड़नेवाली सौगात का नाम है शाकाहार - जीवनशैली। मांसाहारी भोजन ग्रहण करना है। उन्होंने अपनी शोध से शाकाहार के साथ अनेक नये आयाम जोड़े हैं तथा मांसाहार से मिट्टी की उर्वरता, पेट्रोल का रिजर्व, जल की बर्बादी, वृक्षों में कमी, खाद एवं कीटनाशक के दुष्प्रभाव तथा मातृ-दुग्ध तक में जहर होने के अनेक तथ्यपूर्ण आंकड़े संकलित किए हैं। यह पुस्तक बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक प्रभावशाली पुस्तक मानी गयी है । फलस्वरुप अमेरिका और यूरोप में आज शाकाहार एक सशक्त आन्दोलन बन चुका है। अमेरिका के एक करोड़ चालीस लाख व्यक्ति मांसाहार त्यागकर शाकाहारी जीवनशैली को सहर्ष स्वीकार कर चुके हैं। गार्जियन अखबार की भविष्यवाणी के अनुसार आगामी बीस वर्षों में अमेरिका की करीब आधी आबादी शाकाहारी बन जानी चाहिए। । वस्तुत: प्रकृति पर आधारित सहजीवी जीवन-विद्या में हिंसा की पूर्ण प्रतिष्ठा है। पूज्यपाद उमास्वामी के परस्परोपग्रहो जीवानाम् का मूलमंत्र शाकाहार में अन्तर्निहित है, जो हर प्राणी को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ता है। शाकाहार में हर धड़कते प्राण की सम्मान-भावना है और शाकाहार के प्रांगण में ही मैत्री और भ्रातृत्व फूल खिल सकते हैं। शाकाहार का शा शांति का, का कान्ति का, हा हार्द (स्नेह) का, और र रसा या रक्षा का परिचायक है। अर्थात् शाकाहार हमें शांति, कान्ति, स्नेह एवं रसों से परिपूर्ण कर हमारी मानवता की रक्षा करता है। आधुनिक भौतिकवाद एवं वैश्वीकरण की आपाधापी के इस युग ने वर्तमान विश्व के समक्ष कुछ विशेष समस्याएँ पैदा की हैं तथा अधिकांश आधुनिक वैज्ञानिकों का यह मत है कि उन सबका इलाज शाकाहार में ही निहित है । बिगड़ता पर्यावरण, गिरता मानव-स्वास्थ्य, नित नई बीमारियों का आतंक, कुपोषण आदि हमारी आज की कुछ प्रमुख बुनियादी समस्याएँ हैं । प्रसिद्ध वैज्ञानिक वी. विश्वनाथ ने अपनी शोध से यह स्थापित किया है कि स्वास्थ्य और पर्यावरण की दृष्टि से शाकाहार अधिक बेहतर एवं आदर्श आहार है। अमेरिका के सुप्रसिद्ध लेखक जॉन रॉबिन्स ने डाईट फॉर ए न्यू अमेरिका में अनेकों तथ्यों एवं शोधपूर्ण आंकड़ों से यह सिद्ध किया है कि किसी भी देश की सभ्यता के विनाश के मूल में वहां के निवासियों का | 22 अगस्त 2005 जिनभाषित जीवन्त Jain Education International आहार एक बहुत बड़ी भ्रान्ति है कि यदि तमाम मांसाहारी शाकाहारी बन जाएँ तो उनके लिए अनाज उपलब्ध नहीं होगा । तथ्य यह है कि शाकाहार संतुलित सामाजिक पर्यावरण हेतु एक अपरिहार्य शर्त है, क्योंकि इससे प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय रुकता है। जहां एक किलो गेहूं के लिए 50 गैलन जल की जरूरत होती है, वहीं एक किलो गौमांस के लिए 10,000 गैलन जल की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार जहाँ एक शाकाहारी 0.72 एकड़ भूमि से अपना जीवन यापन कर लेता है, वहीं मांसाहारी के लिए 1.63 एकड़ जमीन की आवश्यकता पड़ती है। अमेरिका के एक प्रकाशित आंकड़े के अनुसार एक एकड़ भूमि से लगभग 20,000 किलो आलू उत्पादन किया जा सकता है, जबकि उतनी ही भूमि से गौमांस सिर्फ 125 किलो ही मिल सकता है। समुद्रपारीय विकास परिषद के लीस्टर ब्राउन का कहना है कि यदि अकेले अमेरिका के लोग अपने मांसाहार में दस फीसदी की कटौती कर दें, तो इससे सालाना 120 लाख टन अनाज की बचत होगी, जिससे 6 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है, जो अन्यथा प्रतिवर्ष भूख से मर जाते हैं। अत: मांसाहार पूर्णरूप से पर्यावरण-विरोधी आहार है। सत्तर के दशक में रिओ द जेनेरो में आयोजित प्रसिद्ध पृथ्वी महासम्मेलन में यह बात बहुत अच्छी तरह स्वीकृत हो गई कि पर्यावरण संयोजित रखने में पशुओं की बहुत अहम भूमिका है। पशु एवं प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति वहाँ भारी चिन्ता व्यक्त की गई एवं हर कीमत पर उनको बचाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया। पाकिस्तान की भू. पू. प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो तक ने शाकाहार को स्वीकार करते हुए मांसाहार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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