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साथ ही उसमें न्यूनाधिकता हुई है, उस पर भी हम विचार | प्रकट करनेवाली मृति के न रहने पर अक्षत आदि में भी कर आये हैं। यहाँ हम पूजा के उस प्रकार का भी उल्लेख | स्थापना करने का विधान किया है। किन्तु जहाँ साक्षात् कर देना चाहते हैं, जिसे सोमदेवसूरि ने 'यशस्तिलकचम्पू' | जिनप्रतिमा विराजमान है और उसके आलम्बन में पंचपरमेष्ठी (कल्प.३६) में निबद्ध किया है, क्योंकि वर्तमान पूजाविधि | | और चौबीस तीर्थंकर आदि की पूजा की जा सकती है, वहाँ पर इसका विशेष प्रभाव दिखलाई देता है। वे लिखते हैं- पर आह्वान आदि क्रिया का किया जाना उपयुक्त है? देववन्दना
प्रस्तावना पुराकर्म स्थापना सन्निधापनम्। की जो प्राचीन विधि उपलब्ध होती है, उसमें इसके लिए
पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम्॥ | स्थान नहीं है। यह बात उस विधि के देखने से स्पष्टतः लक्ष्य देवपूजा छह प्रकार की है- प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, | में आ जाती है। सन्निधापन, पूजा और पूजा-फल। इन छह कर्मों का विस्तृत दूसरी बात विसर्जन के सम्बन्ध में कहनी है। विसर्जन विवेचन करते हुए वे लिखते हैं- जिनेन्द्रदेव का गुणानुवाद | आनेवाले तथा पूजा को स्वीकार करनेवाले का किया जाता करते हुए अभिषेकविधि करने की प्रस्तावना करना प्रस्तावना | है। किन्तु जैनधर्म के अनुसार न कोई आता है और न पूजा है। पीठ के चारों कोणों पर जल से भरे हुए चार कलशों की | में अर्पण किये गये भाग को स्वीकार करता है, अत: विसर्जन स्थापना करना पुराकर्म है। पीठ पर यथाविधि जिनेन्द्रदेव को | की मान्यता को रंचमात्र भी स्थान नहीं है। पाँच परमेष्ठी के स्थापित करना स्थापनाकर्म है। ये जिनेन्द्रदेव हैं, यह पीठ | स्वरूप का विचार करने से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती मेरुपर्वत है, जलपूर्ण ये कलश क्षीरोदधि के जल से पूर्ण | है। आगम में देववन्दना की जो विधि बतलायी है, उसके कलश हैं और मैं इन्द्र हूँ जो इस समय अभिषेक के लिए | अनुसार देववन्दना सम्बन्धी कृतिकर्म अन्त में समाधि भक्ति उद्यत हुआ हूँ, ऐसा विचार करना सन्निधापन है। | | करने पर सम्पन्न हो जाता है, इसलिए मन में यह प्रश्न अभिषेकपूर्वक पूजा करना पूजा है और सबके कल्याण की उठता है कि पूजा के अन्त में क्या विसर्जन करना आवश्यक भावना करना पूजाफल है।
है? इस समय जो विसर्जन पढ़ा जाता है, उसके स्वरूप पर श्रीसोमदेव सरि द्वारा प्रतिपादित यह पजाविधि वही | भी हमने विचार किया है। उससे मिलते-जुलते श्लोक है जो वर्तमान समय में प्रचलित है। मात्र इसमें न तो वर्तमान | ब्राह्मणधर्म के अनुसार किये जानेवाले क्रियाकाण्ड में भी समय में प्रत्येक पूजा के प्रारम्भ में किये जानेवाले आह्वान, | पाये जाते हैं। तुलना कीजिएस्थापना और सन्निधीकरण का कोई विधान किया है और न
आह्वानं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम्। विसर्जन-विधि का ही निर्देश किया है। यद्यपि यहाँ पर
विसर्जनं न च जानामि क्षमस्व परमेश्वर॥ जिन-प्रतिमा के स्थापित करने को स्थापना और उसमें साक्षात
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। जिनेन्द्रदेव की कल्पना करने को सन्निधापन कहा है, इसलिए तत्सर्वं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ इससे आह्वानन. स्थापना और सन्निधीकरण का भाव अवश्य | इनके स्थान में ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते लिया जा सकता है। जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि इस | हैंविधि में उस आचार का पूरी तरह से समावेश नहीं होता,
आह्वान न जानामि न जानामि विसर्जनम्। जिसका निर्देश हम पहले कर आये हैं।
पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥ विचारणीय विषय
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन। इतना लिखने के बाद हमें वर्तमान पूजाविधि में प्रचलित यत्पूजितं मया देव परिपूर्णं तदस्तु मे॥ दो-तीन बातों का संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। 'ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि' इत्यादि श्लोक भी ब्राह्मण प्रथम बात आह्वान, स्थापना और सन्निधीकरण के विषय में | क्रियाविधि में कुछ हेर-फेर से होना चाहिए, ऐसा हमारा कहनी है। वर्तमान समय में जितनी पूजाएँ की जाती हैं, | ख्याल है। किन्तु तत्काल उपलब्ध न होने से वह नहीं दिया उनको प्रारम्भ करते समय सर्वप्रथम यह क्रिया की जाती है। | गया है। जैन परम्परा में स्थापना निक्षेप का बहुत अधिक महत्त्व है;
. 'आहूता ये पुरा देवाः' इत्यादि श्लोक प्रतिष्ठापाठ का इसमें सन्देह नहीं। पण्डितप्रवर आशाधरजी ने जिनाकार को 10 अगस्त 2005 जिनभाषित
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