Book Title: Jinabhashita 2005 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 15
________________ सितौ चंद्रांकसुविधी श्यामलौ नेमिसुव्रतौ । पद्मप्रभवासुपूज्यौ च रक्तौ मरकतप्रभौ ॥ 8 ॥ सुपार्श्वपाश्र्वस्वर्णाभान् शेषांश्चालेखयेत स्मरेत् । प्रतिष्ठासारोद्धार, अध्याय 1 अर्थ : चंद्रप्रभ, पुष्पदंत का रंग सफेद, नेमिनाथ, मुनिसुव्रत का श्याम, पद्मप्रभ, वासुपूज्य का लाल और सुपार्श्वनाथ व पार्श्वनाथ का रंग मरकत यानि पन्ना जैसा हरा है । शेष तीर्थंकरों का सुवर्ण के जैसा रंग है। ऐसा ही तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4, गाथा 588-589 में कहा है। यह तो हुई दिगम्बर मान्यता । अब श्वेतांबर मान्यता के लिये हेमचन्द्राचार्य का लिखा देखिये : रक्तौ च पद्मप्रभवासुपूज्यौ शुल्कौ तु चंद्रप्रभपुष्पदंतौ । कृष्णौ पुन नैमिनी विनीलौ श्रीमल्लिपाश्र्वौ कनकत्विषो न्ये ॥ 49 ॥ अभिधानचिंतामणिकोश प्र.कांड यहाँ मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ का रंग 'विनील' गहरे नीले रंग का व सुपार्श्वनाथ का कनकवर्ण लिखा है। जबकि दिगम्बरमत में मल्लिनाथ को कनकवर्ण के और पार्श्वनाथ सुपार्श्वनाथ को हरे रंग के बताये हैं। इसप्रकार तीर्थंकरों के कायवर्ण को लेकर दोनों मतों में अन्तर मालूम पड़ता है। अब देखना यह है कि इस ऋषिमण्डलस्तोत्र में तीर्थंकरों का के विषय में भी थोड़ा सा लिख देना चाहते हैं । कायवर्ण किस मत का लिखा गया है। ऋषिमण्डलस्तोत्र के श्लोक नं. 13 में लिखा है कि 'ह्रीं' इस बीजाक्षर की ईकारमात्रा का रंग विनील (विशेष नीला) किया जावे और इस पर इसी रंग के तीर्थंकर के नाम के अक्षर लिखे जावें' ऐसा निर्देश करके आगे श्लोक नं. 15 में ईकार में पार्श्वनाथ और मल्लिनाथ के नाम लिखने को कहा गया है। इस अर्थ के सूचक वाक्य ये हैं : 'शिर ई स्थित संलीनौ पार्श्वमल्ली जिनोत्तमौ यहाँ स्पष्ट तौर पर मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ का रंग हेमचन्द्राचार्य के लिखे अनुसार विनील बतलाया गया है जो श्वेतांबरमत का द्योतक है। ज्ञात हो कि जब यहाँ का कथन दिगम्बरमत के अनुकूल नहीं दीखा तो यहाँ के पाठ को बदल दिया है यानि 'पार्श्वमल्ली जिनोत्तमौ' के स्थान में 'पार्श्वपाश्र्व जिनोत्तमौ ' पाठ बना दिया है किंतु बदले हुए पाठ में डबल नाम पार्श्वनाथ का हो गया है। होना चाहिए सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के नाम, ऐसा करने के लिये 'सुपार्श्वपाश्र्व जिनोत्तमौ' पाठ बनता तो छंदभंग हो जाता इसलिये लाचार बेतुका पाठ 1 'पार्श्वपाश्र्व जिनोत्तमौ' बनाना पड़ा है। इससे निःसंकोच कहा जा सकता है कि वास्तविक पाठ इसका Jain Education International अवश्य ही श्वेतांबरसम्मत रहा है। आश्चर्य है कि विद्यानुशासन में भी इस स्तोत्र का वही श्वेतांबरसम्मत पाठ 'पार्श्वमल्ली जिनोत्तमौ ' ही पाया जाता है और पाठ चर्चासागर में है। और तो क्या स्वयं विद्याभूषण भी इस पाठ में तब्दीली करना नहीं चाहते अतः वे स्वरचित ऋषिमण्डलस्तोत्र के 27वें श्लोक में 'ह्रीं' की ईकार मात्रा में पार्श्वनाथ, मल्लिनाथ ही की स्थापना का कथन करते हैं । इत्यादि कारणों से यह ऋषिमण्डलस्तोत्र निःसंदेह श्वेताम्बरकृति जान पड़ता है 1 विद्यानुशासन में जिन प्रकरणों का संग्रह किया गया है उसकी शैली को देखते हुये यह समझना भूल होगी कि ऋषिमण्डलस्तोत्र का विद्यानुशासन में लिखा मिलने से ही उसे दिगंबर कृति मान लिया जावे। विद्यानुशासन तो ऐसा खिचड़ी ग्रन्थ है जिसमें रावणकृत बालग्रह चिकित्सा आदि जैनेतर प्रकरणों का भी संकलन किया है तो ऐसी हालत में उसमें किसी श्वेतांबर कृति का मिल जाना कौन बड़ी बात है । यहाँ हम महावीरजी से प्रकाशित 'ऋषिमण्डल' पुस्तक हम समझते थे कि संस्कृत टीकाओं सहित गोम्मटसार आदि जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को प्रकाशित करके जिस संस्था ने अच्छी ख्याति प्राप्त की है उसके यहाँ से यह मंत्रविषयक ग्रन्थ भी अपूर्व और कई विशेषताओं से युक्त निकला होगा। जब हमने इसे मंगवाकर देखा तो हमारी आशा पर पानी फिर गया। इसकी पूजा की रचना हिंदी पद्यों में श्री ब्रह्मचारी पं. श्रीलालजी काव्यतीर्थ ने ऐसी की है कि जिसमें कई जगह भाषा छंदों की खासी मट्टीपलीद की गई है जो विज्ञपाठकों को देखने पर स्वयं विदित हो जाता है। हम नहीं चाहते कि उनका विवरण देकर निरर्थक लेखवृद्धि की जावे। इसके पृष्ठ 64 में तो जलमण्डल 'शुद्धियन्त्र' का चित्र दिया है वह भी अशुद्ध है। उसके बीचोंबीच आपने 'झं' लिखा है जबकि इस विषय के सभी शास्त्रों में 'झंठं' लिखने का आदेश दिया है। पं. आशाधर जी ने भी 'झंठं स्वरावृतं तोयमण्डलद्वयवेष्ठितं । ' वाक्यों से 'झंठ' को स्वरों से आवृत करके उसे दो जलमण्डल से घेरने को कहा है। इस ग्रन्थ में आपने मंत्रसाधन विषय के कोई 59 श्लोक विद्यानुशासन के उद्धृत किये हैं जिनका हिन्दी अर्थ भी आपने साथ में दे दिया है। किंतु उनके अर्थ करने में आपने कहीं-कहीं भूल की है। उदाहरण के तौर पर उनमें अगस्त 2005 जिनभाषित 13 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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