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क्या ऋषिमंडल स्तोत्र दिगम्बर परम्परा का है ?
पं.मिलापचंद जी कटारिया करीब 25 वर्ष पहिले गुणनंदि कृत ऋषिमण्डल यंत्र | शिष्य लिखा है। प्रसिद्ध भट्टारक सकलकीर्ति के प्रशिष्य पूजा संस्कृत की भाषा टीका करके उसे पं. मनोहरलाल जी | ज्ञानभूषण विक्रम सं0 1550 के आसपास हुये हैं। शास्त्री ने मुंबई से प्रकाशित की थी । उसके बाद इसका | 'भट्टारकसम्प्रदाय'पुस्तक के पृष्ठ 154 में लिखा है कि इन दूसरा संस्करण जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय से प्रकाशित | ज्ञानभूषण के शिष्य नागचंद्र और गुणनंदि हुए, नागचन्द्र ने हुआ था जो आज भी मिलता है। इस दूसरे संस्करण में | 'विषापहारस्तोत्र' की टीका तथा गुणनन्दि ने ऋषिमण्डलपूजा' विद्याभूषण सूरि विरचित 'ऋषिमंडल कल्प' नामक संस्कृत | बनाई । पाठ भी साथ में दिया गया है जो प्रथम संस्करण में नहीं था। उक्त विद्याभूषण का समय तो गुणनंदि से भी बाद अब वही पुस्तक उन्हीं विद्याभूषण और गुणनन्दिकृत संस्कृत | का है। ये विक्रम सं0 1604 के करीब हुए हैं और काष्ठासंघ के उक्त दोनों पाठों के साथ ब्र. पं. श्रीलाल जी काव्यतीर्थ | की परंपरा में हुए हैं। इनके बनाये ऋषिमण्डलस्तोत्र, रचित हिंदी पद्यों सहित 'श्री शांतिसागर जैन सिद्धांत प्रकाशिनी
चिंतामणिपार्श्वनाथस्तवन आदि ग्रंथ देहली के पंचायती मंदिर संस्था महावीर जी' से वृहदाकार में प्रकाशित हई है। यह
| में हैं ऐसा वीरसेवामंदिर से प्रकाशित जैनग्रन्थ प्रशस्तिसंग्रह वही संस्था है जो पहिले कलकत्ते में 'भारतीय जैन सिद्धांत | की प्रस्तावना के पृष्ठ 49 में सूचित किया है। प्रकाशिनी संस्था' के नाम से चलती थी। अस्त
ऋषिमण्डलस्तोत्र का प्रचार श्वेतांबर, दिगम्बर दोनों ___हम पाठकों को प्रस्तुत लेख में यह बतलाना चाहते हैं
में है। देखना यह है कि दरअसल में दोनों में से प्रथम यह कि गुणनंदिकृत ऋषिमंडल यंत्र पूजा पुस्तक का आदि से
किस की चीज रही है। इस पर हम यहाँ कुछ ऊहापोह अंत तक सब अंश गुणनंदिकृत नहीं है। अथात: ऋषिमंडल
करना चाहते हैं। स्तोत्रं पठेत्' ऐसा लिखकर जो पुस्तक में ऋषिमण्डलस्तोत्र
1. दिगम्बर सम्प्रदाय में सिद्धचक्र, गणधरवलय पढ़ने की सूचना दी है उसके आगे 'आद्यंताक्षर संलक्ष्य' से
आदि कई तरह के बीसों यंत्रमण्डल मिलते हैं उनसे इसकी शुरु करके अंत में 'पदं प्राप्नोति विस्त्रस्तं परमादसंपदां।'
रचनाप्रणाली भिन्न जाति की प्रतीत होती है। लिखा गया है यह सब स्तोत्रपाठ गुणनंदि कृत नहीं है। गुणनंदि ने तो सिर्फ इसकी पूजा का भाग ही बनाया है।
2. इसका उल्लेख विद्यानुशासन के पूर्ववर्ती इसलिए इस स्तोत्र पाठ के श्लोकों के क्रमिक नम्बर भी
इंद्रनंदिसंहिता, एकसंधिसंहिता, पूजासार आदि क्रियाकाण्डी पुस्तक में अलग दिये गये हैं।
दिगम्बर साहित्य में नहीं मिलता। पूजासार में जहाँ बीसों चूँकि यह पाठ विद्यानुशासन में भी पाया जाता है वहाँ
यंत्रमंडल लिखे हैं वहाँ इसको कतई स्थान नहीं दिया गया । भी इसका केवल स्तोत्र पाठ ही लिखा हुआ है। पूजा भाग
3. आशाधर ने भी अपने प्रतिष्ठापाठ में जहाँ नहीं। अगर स्तोत्र व पूजा भाग दोनों अकेले गणनन्दि की | आचार्यादि की प्रतिष्ठाविधि लिखी है वहाँ वे गणधरवलय कृति होती तो विद्यानुशासन में वह सारा का सारा पाया जाना | का तो प्रयोग करते हैं पर इस ऋषिमण्डल का नहीं। चाहिये था। अलावा इसके विद्यानुशासन का संकलन संभवतः इससे कहा जा सकता है कि इस ऋषिमंडल का गुणनंदि से करीब एक शताब्दि पूर्व हो चुका था । परं च | आशाधर और उनके बाद आसपास होनेवाले हस्तिमल्ल, विद्याभूषण ने जो 'ऋषिमण्डल मंत्र कल्प' बनाया है जिसका | इंद्रनंदि, एकसंधि आदि के वक्त दिगंबर सम्प्रदाय में प्रवेश कि जिकर ऊपर हुआ है। ये विद्याभूषण गुणनंदि के बाद हुए | नहीं हो पाया था। यह दिगंबर आम्नाय का न होने की वजह हैं इन्होंने भी उक्त कल्प में सिर्फ स्तोत्र ही का रुपांतर किया | से ही नेमिचन्द्र प्रतिष्ठातिलक में भी कहीं इसका उपयोग है। इससे सहज ही यह जाना जा सकता है कि इसका स्तोत्र | नहीं किया गया है। भाग अलग है और पूजा भाग अलग है। पूजा भाग की रचना | इस ऋषिमण्डलस्तोत्र के श्वेताम्बर होने में खासप्रमाण गुणनंदि ने की है, स्तोत्र तो पहिले ही से चला आ रहा था | यह भी है कि -इसमें तीर्थंकरों का कायवर्ण श्वेताम्बरसम्मत जिसके निर्माता कोई और ही हैं।
लिखा हुआ है। पं. आशाधरजी ने तीर्थंकरों का कायवर्ण इस गणनंदि ने इसकी प्रशस्ति में अपने को ज्ञानभूषण का | प्रकार बताया है। 12 अगस्त 2005 जिनभाषित -
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