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जैनागम सिद्ध मूर्तिपूजा सम्मेतशिखर, गिरनार, पावापुरी, शत्रुजय, चंपापुरी इत्यादि पावन तीर्थभूमियों की रक्षा व उन्नति में कोई थोड़ा सा भी योगदान दिया है ।
हाँ, स्थानकवासी परंपरा के संतो ने खोटा-नुकसानकारी कार्य जरुर किये हैं - यथा -
(१) जिनमंदिर और जिनमूर्तियों का विरोध करने का, (२) जैनधर्म का इतिहास झूठा-असत्य लिखने का, (३) आगमसूत्रों के पाठ उलट-पुलट करने का, (४) आगम के सूत्रों का गलत अर्थ करने का ।
उक्त विषयों में स्थानकवासी संत न कुछ जानते हैं, न अपने व्याख्यानवांचणी मे कुछ कहते हैं एवं अपने भक्त स्थानकवासी जनों को जैनशासन के प्राचीन भव्य-प्रेरणादायी इतिहास से - स्थापत्य से अज्ञान के अंधकार में ही रखते हैं।
आश्चर्य तो यह है कि - स्थानकवासी संत जैनशासन की इस गौरवगाथा - गरिमा - से भी वैर-द्वैष और अरुचि रखते हैं ।। मूर्ति और मूर्तिपूजा - जैनागम और जैन इतिहास से सिद्ध है
अरिहंत तीर्थंकर की आत्मा की आकृति को जिनमूर्ति कहते हैं। और अरिहंत तीर्थंकर की वाणी की आकृति को जिनागम कहते हैं । अज्ञानी-मूढ़ के लिए ये दोनों जड है । ज्ञानी- श्रद्धावंत के लिए ये दोनों उपास्य-पूजनीय है ।
जिस प्रकार शास्त्र जड़ होते हुए भी ज्ञानदायक है, पर किस को ? अज्ञानी को नहीं, श्रद्धावान् ज्ञानी को ।
ठीक उसी प्रकार जिनमूर्ति जड़ होते हुए भी ज्ञानदायक-उपास्य है, पर किसको ? अज्ञानी-मूर्ख को नहीं, किन्तु ज्ञानी-सम्यगदृष्टि को ।
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