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६-तत्वार्थ
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२-रत्नत्रयाधिकार (घ) स्वानुभव या आत्म प्रतीति । १६. सम्यग्दर्शन के चारों लक्षणों का समन्वय करो।
सच्चा देव शुद्ध क्षायिक भाव होने से मोक्ष स्वरूप है, सच्चे गुरु आस्रव बन्ध का निरोध तथा संवर निर्जराकी प्रतिमूर्ति हैं। शस्त्र रत्नत्रयरूप सच्चे धर्म का अधिष्ठान है। 'सच्चा धर्म' अजीव, आस्रव, बन्धन इन तत्वों से हटकर, जीव संवर निर्जरा इन तीन तत्वों की ओर झुकने का नाम है। उसका फल मोक्ष है । अत: सच्चे देव शास्त्र व गुरु की श्रद्धा व सात तत्वों की श्रद्धा एक ही बात है। सात तत्वों में जीव, संवर, निर्जरा व मोक्ष ये चार तत्व आत्म स्वभाव के अनुकूल तथा अन्तर्प्रकाश वर्धक होने से स्वतत्व हैं,
और अजीव, आस्रव व बन्ध ये तीन तत्व आत्मस्वभाव से विपरीत तथा अन्दर में अन्धकार वर्धक होने से पर-तत्व हैं। अतः सप्रतत्व श्रद्धा व स्व-पर भेद विज्ञान एक ही है। स्व-पर भेद विज्ञान का प्रयोजन पर से हटकर स्व में लगना है। वही स्वानुभव का साक्षात उपाय है । अतः ये दोनों भी
एक ही हैं। २०. सम्यग्दर्शन की व्याख्या में कितने शब्दों का प्रयोग किया
जाता है ?
पांच शब्दों का-दृष्टि, अभिप्राय, रुचि, प्रतीति, श्रद्धा । २१. दृष्टि किसको कहते हैं ?
व्यक्ति के लक्ष्य विशेष को दृष्टि कहते हैं । जिस प्रकार बम्बई जाने वाले का लक्ष्य 'बम्बई' है, बीच के स्टेशन नहीं; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि का लक्ष्य नित्य टंकोत्कीर्ण शुद्धात्मा रूप एक मात्र ज्ञायक भाव है, शरीर अथवा अन्य कोई भी प्रयोजन
नहीं । इसके अतिरिक्त उसकी दृष्टि में सब कुछ असत् है। २२. अभिप्राय किसको कहते हैं ?
कोई कार्य करने में व्यक्ति का जो प्रयोजन होता है, उसे अभि