Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 338
________________ ३१५ ७-स्याद्वाद ४-सप्तभंगीअधिकार बदल जाता है, जैसे--- 'अस्ति' धर्म के साथ प्रयुक्त करने पर उसका अर्थ 'स्व चतुष्टय की अपेक्षा' ऐसा होता है, और 'नास्ति' धर्म के साथ प्रयुक्त करने पर उसी का अर्थ 'पर चतुष्टय की अपेक्षा' ऐसा हो जाता है । ६. 'स्यात् अस्ति एव' का क्या अर्थ है ? पदार्थ स्व-चतुष्टय की अपेक्षा अस्ति ही है, जैसे कि घट अपने स्वरूप की अपेक्षा सत् स्वरूप ही है। यह सैद्धान्तिक भाषा है, सरल भाषा में यों कहा जाता है कि घट की सत्ता घट रूप ही है। 'स्यात् नास्ति एव' का क्या अर्थ है ? पदार्थ पर-चतुष्टय की अपेक्षा नास्ति ही है, जैसे कि घट अन्य पट आदि पदार्थों के स्वरूप की अपेक्षा असत् स्वरूप ही है। यह सैद्धान्तिक भाषा है, सरल भाषा में यों कहा जाता है कि घट की सत्ता पट आदि अन्य पदार्थों रूप बिल्कुल नहीं है । 'स्यात् अस्तिनास्ति एव' का क्या अर्थ है ? पदार्थ को एक ही बार क्रम पूर्वक जब दोनों धर्मों को मुख्य करके कहा जाता है, तब यह संयोगी भंग प्रगट होता है। इसका अर्थ यह है कि स्वचतुष्टय की अपेक्षा पदार्थ अस्ति रूप होता हुआ भी परचतुष्टय की अपेक्षा नास्ति रूप ही है। और परचतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप होता हुआ भी वह स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति रूप ही है जैसे-घट की सत्ता घट रूप होते हुए भी घट आदि रूप नहीं ही है। और पट आदि रूप न होते हुए भी घट रूप तो है ही। ६. पहले दो भंगों के रहते इस तीसरे संयोगी भंग की क्या आव श्यकता? किसी के हृदय के प्रश्न को रोका नहीं जा सकता। पृथकपृथक अस्ति व नास्ति धर्मों के सुनने पर कदाचित किसी को पूर्वापर विरोध भासने लगे और वह कहने लगे कि कभी तो 'अस्ति' कहते हो कभी 'नास्ति', कुछ समझ में नहीं आता

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