Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 349
________________ ८-नय-प्रमाण ३२६ १--प्रमाणाधिकार रहता है कि पदार्थ इस नय से ऐसा है और उस नय से ऐसा है। जैसे-निश्चय से ऐसा है व्यवहार से ऐसा है इत्यादि । १८. प्रमाण में संशय विपर्यय अनध्यवसाय क्यों नहीं होता ? नयों के एक रसात्मक भाव का ग्रहण हो जाने पर, वह सम्यगज्ञानी व्यक्ति जो कुछ भी पढ़ता या सुनता है उसका ठीक ठीक समन्वय कर लेता है, इसलिये उसे संशय आदि नहीं हो पाते। अथवा तब वह न तो इतना मात्र कहकर सन्तुष्टि का अनुभव करता है, कि 'निश्चय नय से ठीक है, या व्यवहार नय से' और न एक नय को सत्यार्थ कहकर दूसरी नय का लोप करने का प्रयत्न करता है । न 'इस नय से ऐसा है इस नय से ऐसा है' इत्यादि प्रकार का वाग्विलास मान करके सन्तुष्ट होता है। १६. समन्वय करना किसको कहते हैं ? पदार्थं में जिस प्रकार से उसके वे वे विरोधी धर्म परस्पर मैत्री से यथास्थान जड़े हुए हैं, उसी प्रकार नयों के ज्ञान को अन्तरंग में यथास्थान फिर बैठा लेने को समन्वय करना कहते हैं। जैसेनिश्चय नय से जीव सदा मुक्त है सो ठीक है, क्योंकि स्वभाव से वैसा ही है तथा व्यवहार नय से जीव बद्ध है सो ठीक है, क्योंकि शरीरादि के संयोगवश वैसा ही है ।

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