Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 371
________________ -य-प्रमाण ३४८ ३-मय अधिकार १०३. सम्यकचारित्र पर निश्चय व्यवहार लागू करो। 'अन्य पदार्थों के त्याग रूप व्रत, वचन व काय आदि यत्राचारी प्रवृत्ति रूप समिति, तथा मन वचन काय के भावों व कार्यो में अत्यन्त विवेक रूप गुप्ति आदि सम्यक् चारित्र है' ऐसा पराश्रित व भेद रूप कथन व्यवहार है, और पदार्थों से विरक्ति रूप व्रत, अन्तरंग प्रवृत्ति रूप समिति तथा मन वचन काय की क्रियाओं से निवृत्ति रूप गुप्ति आदि सब एकमात्र आत्मरमणता में स्वयं गभित हैं' ऐसा स्वाश्रित अभेद कथन निश्चय १०४. व्रत पर निश्चय व्यवहार लागू करो। 'हिंसा आदि पराश्रित पापों व विषयों का त्याग करना व्रत है' ऐसा पराश्रित भेद कथन व्यवहार है, और 'विष आत्म रमणता में तृप्ति के कारण बाह्य विषयों के प्रति स्वाभाविक विरक्ति व्रत है' ऐसा स्वाश्रित अभेद कथन निश्चय है। १०५. तप पर निश्चय व्यवहार लागू करो। . .. 'अनशन व कायक्लेश आदि रूप बाह्य तप अथवा प्रायश्चितादि रूप अन्तरंग तप करना तप है' ऐसा पराश्रित भेद कथन व्यवहार है, और 'एकमाव आत्मस्वरूप में प्रतपन होने से बाह्य के विघ्न बाधायें सब असत् होकर रह जाती हैं, यही तप है' ऐसा स्वाश्रित अभेद कथन निश्चय है। १०६. उपरोक्त सर्व विषयों में व्यवहार व निश्चय के लक्षण कैसे घटित होते हैं ? जिस विषय का कथन भेद करके किया जाता है, वहां सद्भत व्यवहार नय घटित होता है । जिस विषय का कथन पर का आश्रय लेकर किया जाता है वहां असद्भूत व्यवहार नय घटित होता है। जिस विषय का कथन स्वाश्रित तथा अभेद रूप से किया जाता है, वहां निश्चय नय घटित होता है।

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