Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 374
________________ ३५१ -नय-प्रमाण ३-नय अधिकार ... प्रारम्भिक भूमिकाओं में व्यवहार रूप विकल्यात्मक या भेद रत्नत्रय का आश्रय लेना ही पड़ता है, क्योंकि ऐसा करने से गुणस्थान परिपाटी के अनुसार क्रमपूर्वक ऊपर चढ़ते हुए अन्त में निश्वय रत्नत्रय रूप समाधि प्राप्त हो जाती है। इसलिये वहाँ व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चय रत्नत्रय साध्य है । यहां सद्भूत व्यवहार वाला साधन साध्य भाव समझना। ११८. सम्यग्दर्शन में निश्चय व्यवहार साध्य साधन भाव दिखाओ। यद्यपि सम्यग्दर्शन के विषयभून आत्मा में सातों तत्वों का कोई सत्ताभूत भेद नहीं है, फिर भी भेद किये बिना उसका कथन करना अथवा समझना व समझाना अथवा उसे साक्षात प्राप्त करना अशक्य है । ऐसे साधक को सर्वप्रथम सात तत्वों के यथार्थ स्वरूप का निर्णय पड़ता ही है क्योंकि ऐसा करने से ही उन सात तत्वों में अनुस्यूत एक चेतन अभेद आत्म तत्व का दर्शन होता है । इसलिये तहाँ व्यवहार सम्यग्दर्शन साधन है और निश्चय सम्यग्दर्शन साध्य है । 'तत्व' द्रव्य व भाव दोनों प्रकार से कहे जाने के कारण यहां भी सद्भूत व असद्भुत दोनों प्रकार का साधन साध्य भाव समझना। ११६. सम्यग्ज्ञान में निश्चय व्यवहार साध्य साधन भाव दिखाओ। यद्यपि सम्यग्ज्ञान के विषयभूत स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में स्व व पर का कोई सत्ताभ त पार्थक्य दृष्टिगत नहीं होता, फिर भी भेद किये बिना उसका कथन तथा समझना समझाना अथवा साक्षात प्राप्त करना शक्य न होने से साधक को सर्व प्रथम . बुद्धिपूर्वक स्व व पर का विकल्प जागृत करना पड़ता ही है, क्योंकि ऐसा करने से ही क्रमपूर्वक वह आगे जाकर उसे स्वसंवेदन उत्पन्न होता है । इसलिये तहां भी व्यवहार सम्यग्ज्ञान साधन है और निश्चय सम्यग्ज्ञान साध्य है। यहां 'पर' से पृथक विचारने या कहने के कारण असद्भुत और अपने अन्दर

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