Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 377
________________ ८-नय-प्रमाण ३५४ ३- नय अधिकार पर पदार्थों से पृथकता है। एक के बिना दूसरा नहीं । जैसे अन्धकार का नाश ही प्रकाश है और प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है । इसलिये स्व के साथ अभेद करने वाले निश्चय सम्यग्ज्ञान और पर से पृथकता दर्शाने वाले व्यवहार सम्यग्ज्ञान में परस्पर अविनाभाव है । १२७. सम्यक्चारित में अविनाभाव दर्शाकर समन्वय करो । यथार्थ व्रतादि की पूर्णता के बिना आत्म स्वरूप में स्थिरता अथवा साम्यता नहीं होती, और आत्मस्थिरता व साम्यता के बिना यथार्थ व्रतों की पूर्णता नहीं होती। इसलिये अभेद प्रतिपादक निश्चय चारित्र और भेद प्रतिपादक व्यवहार चारित दोनों में परस्पर अविनाभाव है । १२८. व्रत में अविनाभाव दर्शाकर समन्वय करो । विषयों के त्याग के बिना यथार्थ विरक्ति नहीं होती और यथार्थ विरक्ति के बिना विषयों का यथार्थ त्याग नहीं होता । इसलिये निश्चय व्रत और व्यवहार व्रत में परस्पर अविनाभाव है । १२६. तप में अविनाभाव दर्शाकर समन्वय करो । उपसर्गों व बाधाओं के प्रति निर्भय हुए बिना आत्म वीर्य या आत्म प्रताप नहीं होता और आत्म प्रताप के बिना निर्भयता नहीं होती । इसलिये निश्चय तप व व्यवहार तप दोनों में परस्पर अविनाभाव है । १३०. मिथ्यादृष्टियों में वस्तु ज्ञान व व्यवहार रत्नत्वयादि होते हैं तहां निश्चय के साथ अविनाभाव कैसे है ? निश्चय के अभाव के कारण ही उसका पदार्थज्ञान, तथा ज्ञान दर्शन चारित्र व्रत आदि सब मिथ्या कहे गये हैं । निश्चय स्वरूपों के साथ रहने पर ही वे सम्यक् विशेषण को प्राप्त करते हैं ।

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