Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 369
________________ -भय-प्रमाण ३४६ ३-गय अधिकार लिये अभूतार्थ है । यद्यपि ये सब व्यवहार द्रव्य भी क्षण-क्षण परिणमनशील होने के कारण बदल रहे हैं, फिर भी इन्हें ध्रुव सत्ताधारीवत् कथन करता है, इसलिये अभू तार्थ है। ६५. सद्भूत व्यवहारनय मले सत्य रहा आवे, पर असद त व्य वहार नय तो सर्वथा असत्य है ही। नहीं; ऐसा नहीं है । असद्भूत व्यवहार को भी सर्वथा असत्य मानना योग्य नहीं; क्योंकि वह नय दो पदार्थों की किसी संयोगी-अवस्था-विशेष का परिचय देता है । यद्यपि सत्ताभूत मूल पदार्थ की ओर लक्ष्य ले जानेपर संयोगी पदार्थों की कोई सत्ता प्रतीत नहीं होती, न ही उनमें कोई सम्बन्ध प्रतीत होता है, परन्तु इस लोक में संयोगी पदार्थों की सत्ता बिल्कुल न हो अथवा उनमें कुछ सम्बन्ध भी देखा न जा रहा हो, ऐसा नहीं है। संयोग का नाम ही वास्तव में लोक है, इसका सर्वथा लोप कर देने पर तो भूतार्थ अभ तार्थ का निर्णय करने वाले आप भी कहां हो। अतः संयोगी दृष्टि से देखने पर वे सब पदार्थ तथा उनके सम्बन्ध भूतार्थ हैं। दूसरे प्रकार से यों कह लीजिये कि शुद्ध अध्यात्म दृष्टि में सर्वत्र त्रिकाली स्वभाव का ग्रहण होता है उसकी उपाधियों का अथवा औपाधिक भावों का नहीं। अतः उस दृष्टि में संयोगी पदार्थ असत् है और इसलिये उसका प्रतिपादन करने वाला यह नय भी अभू तार्थ है। (४ नय योजना विधि) ६६. नय का यह विषय क्यों पढ़ाया जा रहा है ? मोक्षमार्ग सम्बन्धी सर्व विषयों में लागू करके विवेक उत्पन्न कराने के लिये अथवा पदार्थ का विशद परिचय देने के लिये। ६७. नय किन-किन विषयों पर लागू होते हैं ? वस्तुस्वरूप, रत्नत्रय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, व्रत, तप आदि सर्व विषयों पर लागू होते हैं।

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