Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 348
________________ --नय प्रमाण ३२५ प-प्रमाणाधिकार या तो नयों के शब्दों का ज्ञान है, या पृथक धर्मों का, परन्तु सर्व धर्मों का एक रसात्मक अखण्ड भाव का ज्ञान नहीं है। ११. प्रमाणाभास कितने हैं ? तीन हैं—संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय । १२. संशय किसको कहते हैं ? विरुद्ध अनेक कोटी स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे यह सीप है या चान्दी। १३. प्रमाणाभास में संशय कैसे घटित होता है ? नयों का पृथक पृथक बोध हो जाने पर जिसे उनके एक रसात्मक अखण्ड भाव का पता नहीं है, वह यह निर्णय नहीं कर पाता कि आखिर पदार्थ है कैसा—इस नय रूप या उस नय रूप । जैसे—निश्चय नय को सच्ची समझो या व्यवहार नय को, ऐसा ज्ञान। (१४) विपर्यय किसको कहते हैं ? विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं-जैसे सीप को चान्दी कहना। १५. प्रमाणाभास में विपर्यय कैसे होता है ? नयों का पृथक पृथक बोध हो जाने पर जिसे उनके एक रसात्मक भाव का पता नहीं है, वही अपनी मर्जी या रुचि से किसी एक नय वाले ज्ञान को तो सत्यार्थ या पदार्थ के अनुरूप मान लेता है और दूसरी नयों वाले ज्ञान को अभूतार्थ या अप्रयोजनभूत । (१६) अनध्यवसाय किसको कहते हैं ? 'यह क्या है' ऐसे प्रतिभास को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे मार्ग में चलते हुए तृणस्पर्श वगैरह का ज्ञान । १७. प्रमाणाभास में अनध्यवसाय कैसे होता है ? नयों का पृथक पृथक बोध हो जाने पर जिसे उनके एक रसात्मक भाव का ग्रहण नहीं है, वह न तो पदार्थ को एक नय रूप ग्रहण कर पाता है, और न दूसरी नय रूप । केवल कहता

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