Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 340
________________ ७-स्याद्वाद ४-सप्तभंगी अधिकार १३. 'अवक्तव्य' भंग का क्या अर्थ है तथा इससे क्या लाभ हैं ? तीसरे भंग को भी सुनकर श्रोता यह नहीं जान पाया कि सत् और असत् धर्मों का यह क्रम केवल कथन में ही है, पदार्थ के स्वरूप में नहीं । पदार्थ तो दोनों का एक रसात्मक पिण्ड है। वह तो जैसा है वैसा ही है, जो कहा नहीं जा सकता । यही बात स्पष्ट करने के लिये यह चौथा 'अवक्तव्य' नाम वाला भंग है। १४. पांचवें व छटे भंग से क्या लाभ ? अवक्तव्य सुनकर कदाचित श्रोता यह सोच बैठे कि पदार्थ तो कहने व सुनने की वस्तु ही नहीं है, इसके सम्बन्ध में पूछना, तर्क करना, विचारना आदि सर्व प्रयास विफल है; तो उसके इस भ्रम को निवारण करने के लिये ये दोनों भंग हैं । इनके द्वारा बताया जाता है कि अवक्तव्य होते हए भी पदार्थ की सत्ता स्वचतुष्टय अथवा परचतुष्टय के विकल्पों का आश्रय लेकर किंचित बताई अवश्य जा सकती है। जैसे घट को एक रसात्मक रूप से कहने लगे तो उसका अखण्ड रूप किसी भी शब्द द्वारा वक्तव्य नहीं है, फिर भी वह स्वरूप की अपेक्षा है ही और पर रूप से सदा व्यावत है । इन दोनों धर्मों की युगपत प्रवृति सम्भव न होने से अवक्तव्य है, पर पृथक-पृथक कहने से वक्तव्य हो सकता है। १५. 'अस्ति नास्ति अवक्तव्य' नाम के सातवें भंग का क्या लाभ ? स्वरूप का सद्भाव, पररूप का अभाव, अखण्ड रूप की अवक्तव्य, इन तीनों धर्मो या विकल्पों की एक साथता दर्शाने के लिये वह सातवां भंग है। इसका यह अर्थ है कि ये सब बातें विधि निषेध के क्रम से कहने के द्वारा अथवा युगपत देखने के द्वारा पदार्थ में प्रत्येक समय पाई जाती हैं, पृथक-पृथक नहीं । जैसे, घट नाम के पदार्थ में घट के स्वरूप का सद्भाव, पट आदि अन्य पदार्थों के स्वरूप का अभाव और उनकी युगपत अव

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