Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 343
________________ ७-स्याद्वाद ३२० ४-सप्तभंगी अधिकार समझ लिया जाता है कि अपने पिता की अपेक्षा पुत्र नहीं और पुत्र की अपेक्षा पिता नहीं। इसी प्रकार शेष भंगों का भी ग्रहण स्वतः हो जाता है। २४. सप्तभंगी कितने प्रकार की है? दो प्रकार की- नय सप्तभंगी और प्रमाण सप्त भंगी। २५. नय सप्तभंगी किसको कहते हैं ? एवकार सहित भंगों का प्रयोग करना नय सप्तभंगी है, क्योंकि इससे एकान्त का ग्रहण होता है, और एकान्त ग्रहण का नाम ही 'नय' है। २६. एवकार से एकान्त कैसे होता है ? क्योंकि एवकार के प्रयोग द्वारा स्वत: अपनी विधि के साथ साथ तद्वयतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध हो जाता है। एक धर्म को स्वीकार करके अन्य धर्मों का निषेध करना ही एकान्त है । परन्तु स्यात पदांकित होने से वह एकान्त सम्यक् है मिथ्या नहीं। २७. प्रमाण सप्तभंगी किसको कहते हैं ? प्रत्येक भंग के साथ 'एवकार या ही' के स्थान पर 'भी' का प्रयोग कर देने से वही प्रमाण सप्तभंगी बन जाती है, क्योंकि इस से अनेकान्त का ग्रहण होता है, और अनेकान्त का ग्रहण ही प्रमाण है। २८. 'भी' के प्रयोग से अनेकान्त कसे होता है ? । 'भी' पद द्वारा विवक्षित धर्म के साथ साथ अन्य धर्मों का भी गौण रूप से ग्रहण हो जाता है, उनका निषेध नहीं होता। जैसे-'वि.सी अपेक्षा देवदत्त पिता भी है' ऐसा कहने पर स्वतः यह ग्रहण हो जाता है कि अन्य अपेक्षा वह पुत्र भी अवश्य होगा। अनेक धर्मों का युगपत ग्रहण ही अनेकान्त है। परन्तु स्यात् पदांकित होने से यह अनेकान्त सम्यक् होता है मिथ्या नहीं।

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