Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 332
________________ ३०६ ७-स्याद्वाद ३-स्याद्वादाधिकार १३. शास्त्रों में तथा व्यवहार में ऐसा सर्वत्र किया तो नहीं जाता? जहां 'स्यात' पद बोला या लिखा नहीं है, वहां भी स्याद्वादी जन उस का उक्त रूप से ग्रहण कर लेते हैं। १४. सर्वत्र इस नियम का अनुसरण करने से सभी वाक्यों का एक ही अर्थ हो जायेगा? नहीं, क्योंकि ‘स्यात्' शब्द सामान्य है, इसलिये वह एक ही शब्द प्रकरणवश भिन्न भिन्न अर्थ का द्योतक बन जाता है। १५. एक स्यात् पद भिन्नार्थ द्योतक कैसे हो सकता है ? जैसा प्रकरण होता है वैसा ही वक्ता का अभिप्राय या अपेक्षा होती है। जैसा वक्ता का अभिप्राय या अपेक्षा होती है, उस समय उस स्थल पर 'स्यात्' पद का भी वही अर्थ समझा जाना स्वाभाविक है। जैसे-'स्यात् सत् एव' इस पहिले वाक्य में इस पद का अर्थ है ‘पदार्थ के स्वचतुष्टय या स्व स्वरूप की अपेक्षा' और 'स्यात् असत् एव' इस दूसरे वाक्य में उसी पद का अर्थ है 'पदार्थ से अन्य पर चतुष्टय या पर स्वरूप की अपेक्षा'। स्वचतुष्टय व परचतुष्टय की अपेक्षा क्या? विवक्षित पदार्थ का निज द्रव्य क्षेत्रकाल भाव उसका स्व चतुष्टय है, वही उसका अपना स्वरूप है। अन्य पदार्थों का द्रव्य क्षेत्र काल व भाव उस विवक्षित पदार्थ के लिये पर-चतुष्टय है, वही उसके लिये परस्वरूप है । जब वह विवक्षित पदार्थ अपने स्वरूप में खोजा जाता है तब तो वह वहां उपलब्ध होता है, इसलिये सत् प्रतीत होता है, परन्तु उसे ही यदि परस्वरूप में खोजने जाते हैं तब वह वहां उपलब्ध नहीं होता, इसलिये असत् प्रतीत होता है । जैसे कि घट की इच्छा वाले के लक्ष्य में पट है ही नहीं। १७. सत्ताभूत पदार्थ असत् कैसे प्रतीत हो सकता है ? जिस समय स्वरूप में खोजा जाता है, उस समय स्वरूप ही दृष्टि में होता है, पर रूप नहीं। और जिस समय पररूप

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