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संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्य और जैनधर्म
लेखक:-पं. ईश्वरलाल जैन, स्नातक, न्यायतीर्थ, विद्याभूषण, विशारद
[ श्री. आत्मानन्द जैन गुरुकुल गुजरांवाला, पंजाब. ]
. भारतवर्ष तथा जैनधर्मके इतिहासमें विक्रमसंवत्को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । हमारे देशमें जितने संवत् प्रचलित हुए उनमें सबसे अधिक व्यापक रूप और चिरस्थायित्व विक्रमसंवत्को ही प्राप्त है। यही एक संवत् अधिकांश प्रचलित होकर भारतके एक कोनेसे लेकर दूसरे कोनेतक सर्वप्रिय एवं व्यापक हो सका और यही आज दो हजार वर्षके दीर्घ कालके पश्चात् भी आदरपूर्वक प्रयोगमें लाया जा रहा है। धार्मिक और व्यावहारिक कार्योंमें दृष्टि डालो या मूर्तियों व शिलालेखोंका निरीक्षण करो, व्यापारियों के हिसावकिताबमें देखो या चिट्ठी-पत्रीका अवलोकन करो, सब जगह इसी विक्रमसंवत्का प्रयोग हुआ उपलब्ध होगा। इस संवत्को यदि हम भारतीय एकताका प्रतीक एवं राष्ट्रीयसंवत् भी कहदें तो कोई अत्युक्ति नहीं। परन्तु इस संवत्का प्रवर्तक कौन था ? संवत्का प्रारम्भ कैसे हुआ ? संवत्प्रवर्तककी राजधानी कहां थी? वह किस धर्मका अनुयायो था? और वह किस कालमें हुआ ! इत्यादि तत्सम्बन्धी बातोका कोई व्यवस्थित इतिहास उपलब्ध नहीं होता, इसके अधिकांश ज्ञातव्य विषय अन्धकारमें हैं, अतः ऐतिहासिक विद्वानोंकी तत्सबन्धी भिन्न भिन्न मान्यतायें हैं।
___ पाश्चत्य विद्वान् आजसे दो हज़ार वर्ष पूर्व विक्रमसंवत्के संचालक किसी विक्रमादित्यको सत्ताको स्वीकार ही नहीं करते, परन्तु जैन और ब्राह्मण साहित्यमें जिसका वर्णन भलीभांति उपलब्ध है और जिसके नामका संवत् दो हजार वर्षके पश्चात् भी आदर सहित चल रहा है ऐसे व्यक्तिका सर्वथा अभाव मानना न्यायसंगत प्रतीत नहीं होता।
भारतीय ऐतिहासिक विद्वानों से कोई गुप्तवंशी समुद्रगुप्तको,कोई चन्द्रगुप्त द्वितीयको, कोई बलमित्र-भानुमित्रको, कोई गौतमीपुत्र सातकर्णिको और दूसरा किसी औरको मानता
१ देखो 'गुप्तवंशका इतिहास' ।
२ नागरीप्रचारिणीपत्रिका भाग १० पु. ४ पृष्ठ ६४०, ६४२ आदि पर पू. मुनि कल्याणविजयजीका लेख ।
३ श्रीयुत काशीप्रसादजी जायसवालने विहार-उड़ीसा रिसर्च सोसायटीके (सितम्बर-दिसम्बर १९३०) जर्नलमें लेखद्वारा सिद्ध किया है कि गौतमीपुत्र सातकर्णि ही सुप्रसिद्ध विक्रमादित्य थे ।
-(जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५५०)
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