Book Title: Jain_Satyaprakash 1941 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 5
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूलाचार (दिगम्बर मुनि ओंका एक प्राचीन व प्रधान आचारशास्त्र) लेखक-- मुनिराज श्री दर्शन विजयजी [ क्रमांक ६३से क्रमशः ] आवश्यकनियुक्तिकी गाथाएं किस प्रकार ली गई है उसका नमूना भी देखिए: सामाइयनिजुत्तं वुच्छं उवासियं गुरुजणेणं । आयरियपरंपरएण आगयं आणुपुबीए ॥ आ० ८७... आवसयणिजुत्ती वोच्छामि जहाकम समासेण || मू० २॥ आयरियपरंपराए जहागदा आणुपुवीए ॥ मू० २, १६॥ सामाइयणिजुत्ती वोच्छामि जहाकम समासेण ॥ मू० १६ ।। पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पभासंता । आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चति ॥ आ०.९९४ । आयारो नाणाइं तस्सायरणा पभासणाओ वा । जे ते भावायरिया भावायारो व उत्ता य ॥ आ० ९९५ ॥ जम्हा पंचविधाचारं आचरंतो पभासदि । आयरियाणि देसंती आयरिओ तेण वुच्चदे ॥ मू० ९ ॥ सदा आयारविदण्हू सदा आयरिय चरे । अयारमायारवंतो आयरियो तेण उच्चदे ॥ मृ०८॥ निव्वाणसहिए जोए जम्हा साहति साहुणो । ममा य सव्वभूएसु तम्हा ते भावसाहुणो || आ० १००२ ॥ चौथे चरणमें विशेष अन्तर है-तम्हा ते सव्व साधवो ॥ मू० ११ ।। जो समो सवभूरुसु तसेसु थावरेसु य । तस्य सामाइयं होइ इइ केवलिभासियं ॥ आ० ७९८ ॥ मू० २५ ॥ सामाइयं मि* उ कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एपण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुजा ॥ आ० ८१ ।। मू० ३४ ॥ * सामायिकमें बैठा हुआ श्रमणोपासक, श्रमण के समान होता है। यानि सावधरहित बन जाता है । यह उपमा तब ही सच्ची हो सकती है जब कि साधु और श्रमणोपासक ये दोनों यदि उपकरण सहित-सवन माने आएं। इस उपमाको देखकर यह मानना अनिवार्य हो जाता है कि श्रमण वस्त्रका धारक होता है और सावध योगसे रहित होता है। वैसे सामायिकवाला श्रावक भी वस्त्रका धारक व सावध योगसे रहित होता है। दोनों में अन्तर मात्र अनुमतिका ही रहता है । श्रमणोपासकको श्रमण नहीं किन्तु श्रमणोपासक कहनेका यही कारण है। मूलाचारकी आवश्यकनियुक्ति For Private And Personal Use Only

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