Book Title: Jain_Satyaprakash 1941 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 6 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'मालपुराना केटलाक शिलालेखो' शीर्षक लेखके विषय में संशोधन लेखक -- श्रीयुत पन्नालालजी दुगड " 'मालपुराना केटलाक शिलालेखे।' इस शीर्षक से एक लेख श्री जैन सत्य प्रकाश' क्रमांक ५८में पू. मु. श्री ज्ञानविजयजीका प्रकट हुआ है। मालपुरेमें ऐतिहासिक खोज हानेका मुझे बहुत ही ख्याल था, क्योंकि 'जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि' पुस्तकमें यह सब वर्णन सप्रमाण देनेके हैं। अतः जब पू. दर्शविजयजी आदि त्रिपुटी जयपुर पधारी तो मैंने उनका ध्यान इस ओर आकर्षित किया। हर्षका विषय है कि उन्होंने मालपुरे पधारकर वहांके लेख बड़े परिश्रम और कठिनाईसे ग्रहण किये (यदि वे इस दृढता, साहस और चतुराई से काम न लेते तो वहांके लेखोंका उतर आना सुलभ नहीं था ) उन लेखांके विवेचन में हुइ स्खलनाओं पर प्रकाश डालनेसे पहिले उपाध्याय श्री भानुचन्द्रजी और 'खुशफहम' व 'नादिरेजमा' बिरुदधारी श्रीसिद्धिचंद्रजी मालपुरा कब कब पधारे और क्या क्या कार्य किया उसका संक्षिप्त सप्रमाण इतिहास यहां देता हूं: (१) 'श्रीविजयतिलकसूरिरास' प्रथम अधिकार ( रचना सं. १६७९), कडी ४२८ से ४४६ तक उल्लेख है कि जिस समय (हिन्दी) सं. १६७० में श्री विजयसेनरिका चौमासा नवानगर में था उस समय जहांगीर वेषधारियोंपर कुपित हुआ था और उसने देशनिकालेका हुक्म दिया था । उस समय सुरत और खंभातके हाकिमोंकी दयालुताकी वजेहसे अनेकानेक साधुओंका बुलाकर उन्होंने आश्रय दिया था। उनमें से कुछके नाम भी दिए हैं। और तो क्या स्वयं रासकार श्री मुनिविजयवाचकके शिष्य श्री दर्शनवियजीका भी चोपडाले सुरत आना पडा था । अतः इससे यह वर्णन पूर्ण प्रामाणिक और विश्वसनीय है एवं उक्त घटनाके केवल ९ वर्ष पश्चात् ही यह रचा गया है । 'विजयप्रशस्ति' काव्य और उपाध्याय श्रीमेघविजयजीकी पट्टावलि आदि से यह प्रमाणित है कि उक्त समय में श्रीविजयसेनसूरिका चौमासा अवश्य ही नवा नगरमें था । अतः 'श्रीमानुचंद्रचरित' के उल्लेखानुसार श्रीसिद्धिचंद्रजी मालपुरेमें इस विपत्तिके समय (हिन्दी) सं. १९७०में आनकर रहे थे। ऊपरकी एक टिप्पनी में 'श्री भानुचंद्र चरित' में सं. १६६७ में जानेके बाद पांच चौमासे करनेका उल्लेख अवास्तविक होनेका एक और भी प्रमाण है कि इस रासमें गुजराती सं १६७२ वैशाख सुदि १३ (१०१६) * के पीछे इसी संवतकी घटनाओंक अन्यान्य * मुनिराज श्री विद्याविजयजीने इसके निरीक्षण पृ. २१ में जो भूल प्रदशित की है वह अवास्तविक है, क्योंकि यह उल्लेख गुजराती गणनासे लिखा है और इसी गणना से श्री विजयसेनसूरिका स्वर्गवास सं १६७१९ ज्येष्ठ सुदि (या वदि) ११ को हुआ है । For Private And Personal Use Only

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