Book Title: Jain_Satyaprakash 1941 01
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 41
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org એક પ સશાધન [२१] इतना स्पष्ट उल्लेख होनेपर भी मुनिश्रीका यह विकल्प करैना कि- "सं. १६७२म मूलनायकजीकी मूर्तिको प्रतिष्ठा न भी हुई हो ( श्री जैन सत्य प्रकाश वर्ष ५ पृ. ३५९ ) अथवा सं. १६७८में चन्द्रप्रभ जिनप्रासाद में श्री चन्द्रप्रभुजीकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई उसकी खात्री इस (परिकर के) लेखसे होती है (पृ. ३६१) " ठीक नही है । क्योंकि यदि यह परिकर बादमें न बनवाकर प्रतिष्ठत कराया गया होता तो इसमें - " श्री चन्द्रप्रभमूर्तिमुख्यपरिकरः कारितः " यह शब्द न होते, बल्कि 'सपरिकर' शब्द होता जैसाकि खास श्रीविजयदेवसूरिके ही अन्य लेखों में मिलता है:-- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (अ) "... स्वश्रेयसे स्वकारितरंगदुतंगशिखरबद्ध श्री ऋषभदेवविहारमंडन सपरिकरं श्रीआदिनाथबिंबं कारितं प्रतिष्ठापितं च... । [ मेडतामें डानियोंके मुहल्ले में श्री आदिनाथ के मंदिरके मूलनायकजीका सं. १६७७ वैशाख सुदि ३ का लेखा ] יי [आ] "... स्वद्रव्यकारितनवलाख्यप्रासादोपरि श्रीपार्श्वनाथबिंबं सपरिकरा । [ पाली में नवलखा मंदिरके मूलनायक श्री पार्श्वनाथजोका सं. १६८६ वैशाख सुदि ८ का लेख । ] - ( देखो श्रीमान् जिनविजयजीका लेखसंग्रह भा. २ तथा बाबू पूरणचन्द्रजी नाहरका जैन लेख संग्रह प्रथम खण्ड ले. ७५० -८२५ ) । इन उदाहरणोंसे सिद्ध है कि उपाध्यायजीने सं. १६७२ में अवश्य ही मूलनायक श्री चंद्रप्रभुजीकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा की थी, जैसा कि 'श्रीहीरविजयरिरास' के उद्धृत अवतरणमें साफ लिखा है । परिकरके प्रतिष्ठापक पं. श्रीजय सागरजी, श्री आनन्दविमलसूरि के उपाध्याय श्रीविद्यासागरजीके शिष्य पं. सहजसागरजी के शिष्य थे जैसा कि उन लेखोंसे प्रकट है जो ' श्री जैन सत्य प्रकाश क्रमांक ६० पृ० ३४९-४४० में भी अब प्रगट हो गए हैंx | (३) तीसरा लेख जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरिजी की मूर्तिका सं १६९० जेठ वदि ११ गुरुवारका है । इस मूर्तिके विराजमान करनेसे प्रगट होता है कि उक्त सूरिजीकी उपासना स्थान स्थान पर बढती जाती थी । (४) चौथा लेख वर्तमान में मूलनायक श्री मुनिसुव्रतस्वामीका सं. १६९१ वैशाखसुदि १२ गुरुवारका गुजराती गणनाका है। इससे यह तो प्रगट ही है कि प्राचीन मूलनायकजीके अभावमें अथवा उन्हें बदलाकर यह भवोन For Private And Personal Use Only * मेरे पास पूज्य मुनिराज श्रीदर्शन विजयजी आदि त्रिपुटीने माल. पुरेके लेखोंको सक्षिप्त नोटें गत एप्रिल मासमें भेजी थी उसके उत्तर में मैंने इन्हीं लेखोंके आधारसे उन्हें भी यह लिख दिया था । ●

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