Book Title: Jain_Satyaprakash 1941 01 Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad View full book textPage 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म ५] મૂલાચાર [१८७] भगवान महावीरके श्रमणमें इन १० कल्पों के बारेमें कुछ कुछ विचित्रता थी। असलमें अ-चेलक के जरिये ही विशिष्ट भेद था। सारांश-जैन श्रमणोमें वस्त्र के लिए एकान्त व्यवस्था नहीं है। दिगम्बर समाजमें वस्त्रके लिए एकांत नियम है, तो भी वह उक्त गाथा से स्वतंत्र निर्दिष्ट आचेलक्य विधानको अपनाता है। यदि पांचवें महाव्रतसे बस्त्रोंका निषेध हो जाता तो यहां भिन्न कल्प बनानेकी आवश्यकता नहीं थी। यह अचेलकताका स्वतंत्र विधान ही पांचवें महाव्रतमें वस्त्रोंका निषेध नहीं होनेकी गवाही देता है, याने सचेलकपनसे व्रतघात नहीं होता है, इस वस्तुको स्पष्ट कर देता है। चौवीश तीर्थंकरोंके श्रमणो में जो स्थित कल्प और अस्थित कल्पकी व्यवस्था है यह इन दश कल्पोंके आधार पर है। श्री दशवैकालिक सू० अ० ४की ७ व ८ गाथाएं मूला० परि० १० समयसाराधिकार के नम्बर १२१ व १२२ में दाखिल कर दी है। दशवकालिक सूत्र जिनागम है-आप्तसमय है। उसकी गाथा समय-सार में ली जाए वह उचित ही है। (९) श्री जिनागममें बतलाया है कि तीर्थकरोंमें अज्ञान आदि १८ दोष नहीं होते है। जब दिगम्बर शास्त्र में लिखा है किः क्षुधा इत्यादि १८ दोष नहीं होते हैं। मू० में तीर्थंकरों के वर्णन में दि० सम्मत १८ दोषों का इशारा भी नही किया है। मगर परिच्छेद ११ शीलगुणाधिकार गा० ८ व १० में जो गुणक्रमके निमित्त हिंसादि २१ दोष गिनाए हैं वे जिनागमोक्त १८ दोष ही है । अस्तु ! दि० सम्मत १८ दोष में मृत्युका भी नाम है। सारांश दि० शास्त्रों में तीर्थकर भगवान की मृत्यु नहीं मानी है। मगर मू० परि० २ व ३ की गाथाएं ५९, ७७, ९०, ११७ में केवली भगवानका पंडित मरण बतलाया है। गाथा १०७ और ११६ में भी इस कथनका ही प्रतिध्वनि है। मूलाचार भाग २-दूसरा इस दूसरे भाग में पांच परिच्छेद है:परिच्छेद ८ द्वादशानुप्रेक्षाधिकार गाथा ७६ ,, ९ अनगारभावनाधिकार , १२५ , १० समयसाराधिकार , १२४ ११ . शोलगुणप्रस्ताराधिकार (शीलांगरथ) गा० २६ , १२ पर्याप्तिनामाधिकार गा० २०६ इस दूसरे भागकी विचारणा यथावकाश फिर कभी की जायगी। (समाप्त) For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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