Book Title: Jain_Satyaprakash 1941 01 Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१८] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१६ नकल करने में सफाईसे काम नहीं लिया गया । क्यों कि आगे आ० नि० गा० १०९४ व मू० ष० गा० ६९ में भी आ० च० सू० ६की ही अर्थयोजना है। (३) मूलाचार परि० १ गा० २५ में तो तीसरे आवश्यक (कृतिकर्म-वंदन) से अरिहंत वगैरह को वन्दन करना माना है । ब्र० हेमचन्द्रने भी सूअखंधामें तीसरे आवश्यकसे जिनेश्वर आगम धर्म चैत्य और गुरुको वन्दन करना बताया है। किन्तु मृलाचार प. ७ षडा० गा०९४में तो तीसरे आवश्यक आचार्यादि मुनिऑको ही वन्दन करना स्वीकार किया है। यह कथन आवश्यक नियुक्ति गा० ११९५ से असली रूप में ही लिया गया है, अतः यहां श्वेतांबर और दिगम्बर दोनोंकी एक मान्यता हो जाती है। (४) मृ० १० गा० ९८में उत्तरार्ध बदल दिया है मगर “धीरं" शब्दसे छंद ऐसा विगड गया है कि कृत्रिमता आप ही आप दीखती है । (५) मृ० षडावश्यकाधिकार गा० ३६, ३७, ३८, १२९, १३०, १३१, १३२ व १३३में जो वर्णन है वह और किसी दिगम्बर ग्रन्थमें नहीं है । यह वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र व आवश्यकनियुक्ति में ही विशदरूप से पाया जाता है। इसीसे सिद्ध है कि श्रीमद वेडरक आचार्यने उत्तराध्ययन सूत्रका भी अध्ययन किया । और उत्त० अ० २३ के आधारपर दिगम्बर मतसे विरुद्ध कथनको छोड कर सामायिक व प्रतिक्रमण का विभिन्न किन्तु अपनेको अनुकुल पाठ रच लिया। (६) इसके अलावा मूलाचार में और भी विचारणीय बातें मिलती है जैसा कि मूला० परि० १ गा० १४ में मुनियोंको ज्ञानोपधि संयमोपधि शौचोपधि व और और उपधिका फरमान है । परि०३गा० (गाथा १९४) में उत्तमार्थ के समय उपधि आहार व शरीर के त्यागकी विधि है। परि० गा० १३८ में उपधि ब आहार का प्रत्याख्यान करना यानी मर्यादा करना लिखा है और परि० १० गा० २५ व ४५ में उपधि व शय्याकी विशुद्धि बताई है । वनरहितपनेमें धर्म माननेवाले दिगम्बर शास्त्रोंमें इस प्रकार उपधिके उल्लेख पाये जाते हैं वह जिनागम व जिनागमानुसार शास्त्रोंके अनुकरणसे। हालांकि संयमोपधि (वस्त्र) शौचोपधि (पात्र) एवं और और उपधि रखना दिगम्बर मान्यतासे विरुद्ध है। (७) आ० नि० सामायिक अध्ययन व गा० १२४६ की वृत्ति में १० करूप बतलाये हैं आचेलुक्कोहेसिय सिजातररायपिंडकिइकम्मै । वयजिपडिक्कमणे मासं पन्जोसवणकप्पे ॥ १ ॥ . मूला० परि० १ गा० १८ में भी यही पाठ है सिर्फ प्रारम्भमें “ अखेलक" व अन्तमें “मासं पजोसमणकप्पो” इतना भेद है। भगवान पार्श्वनाथ व For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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