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પૂજાખમે જૈનધર્મ
[ २२७ ]
मान थे तब खंभात में साधुद्वेषी राय कल्याणमल और विट्ठलने जैन संघपर अत्याचार किया था । सम्राट्ने अमीपाल दोशी द्वारा इस बात का समाचार पाकर पंजाब की भूमि से फरमान भिजवाकर राय कल्याणमल वगैरेह को खूब डाटा और अत्याचार दूर करवाया ।
इसके पश्चात् आप उ. शांतिचंद्रजी और पं. भानुचंद्रजी को सम्राट् अकबर को उपदेश देनेका कार्य सुपुर्द करके राणा प्रताप के आमन्त्रण से उदयपुर होकर गुजरात में पधारे ।
यद्यपि आप पंजाब में विचरे नहीं है, किन्तु आपकी ही कृपा का फल है कि- मुगल दरबार में जैन श्रमणों का प्रवेश हुआ और जैन श्रमणोंने सम्राट् की धर्मसभा में नामी स्थान प्राप्त किया । आपने अभिरामाबाद से ही उ. शान्तिचन्द्रजी को नीलाब के किनारे और अटक की और विहार करवाया था । वास्तव में उस युग में कई आचार्य और साधुजी पंजाब में पधारे हैं उन सब का श्रेय आपको ही है ।
( देखो हर सौभाग्य काव्य, पट्टावली समुच्चय, जगद्गुरु काव्य, सूराश्वर और सम्राट्, आईन-इ-अकबरी, वो. १ पृ. ६१, ६२, वो. २ पृ. ५४७, Al, Badaoni Translated_ Vol. II P. 264-331., Jain Teachers of Akbar By Vincent A. Smith. )
उ० शान्तिचन्द्रजी (वि. सं. १६२९) उपाध्याय शांतिचन्द्र गणी ये जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के शिष्य उपाध्याय सकलचन्द्रजी के शिष्य थे । आपने कृपारसकोष श्लोक १२८, श्री ऋषभ - वीरस्तव, और जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति ग्रंथ बनाये हैं, आप शतावधानी थे । आपने सम्राट् अकबरके आग्रह से उसीके साथ पहल पहले वि. सं. १६४१-४२ में पंजाबमें विहार किया था । सम्राट् अकबर ने भी उस समय जैन संघपर गुजरते हुए राय कल्याणमल के अत्याचार को पंजाब से ही हुकुम निकालकर दबाया था । आचार्य महाराज के गुजरातमें जानेके बाद आपने अकबर को प्रतिबोध देना जारी रक्खा, और उनके द्वारा अहिंसा के विशेष फरमान निकलवाये । ईद के दिन हिंसा न करने के लिये सर्व प्रथम आशा लाहोरसे ही जारी हु थी, जो पंजाब के इतिहास में अभिमान लेने का प्रसंग है ।
( देखो - सूरीश्वर और सम्राट्, कृपारस कोश ) आ० जिनचन्द्रसूरि (वि. सं. १६४९ व ५१ ) आचार्य जिनचन्द्रसूरि ये खरतर गच्छ के क्रियोद्धारक आचार्य हैं। बीकानेर का मंत्री कर्मचंद्र बछावत आपका भक्त था। उसने आपका सत्कार सन्मान बढाने का भरसक प्रयत्न किया है । आप को लाहोर लाने के लिये भी उसका विशेष प्रयत्न था । आप खंभात से पालनपुर हो कर सीरोही में पर्युषणा पर्व की आराधनाकर के वि. सं १६४८ फा. शु. १२ के दिन लाहोर पधारे। आपने सम्राट् अकबर को धर्मोपदेश दिया और वह चतुर्मास वहीं किया ।
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