Book Title: Jain Satyaprakash 1940 03 SrNo 56
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જન સત્ય પ્રકાશ [[વર્ષ ૫ यस्यायमेति सुमुखे सुखेन लभता स सत्वरं सभ्यः । विद्वजनेषु विद्वान् सौभाग्यौघं कवित्वं च ॥ ५ ॥ यस्मिन् काव्येऽस्ति यन्नामव्यत्ययात् तस्य सत्वरम् । यथोक्तवर्ण्यस्य सद्वयाख्या तथा जायेत भो बुधाः ॥ ६ ॥ ३ चतुर्दश स्वरस्थापन वादस्थल-इस ग्रन्थ की पक प्रति बीकानेर में यतिवर श्री जयचन्द्रजी की निजी पोथियों में अवलोकन में आई थी। इसकी प्रतिलिपि कराने के लिये बुद्धिमुनिजी को सूरत मेजी गई थी। उन्हींके मार्फत एक नकल हमारे निजी संग्रह के लिये भी मिली थी जो कि हमारे अभय जैन पुस्तकालय में विद्यमान है । इसका आदि अन्त इस प्रकार है। आदि श्री सिद्धीभवतांतरां भगवती भास्वत्प्रसादोदयात् । वाचां वंचुरचातुरी स्फुरतु च प्रज्ञावदाश्चर्यदा । नव्यग्रन्थसमर्थनोद्यतमतिप्रत्यक्षवाचस्पतेः । विद्वत्पुंस इहास्तु शस्यमनसस्त च शो(?)नु कामस्य च ॥१॥ संति स्वराः के कति च प्रतीताः सारश्वतव्याकरणोक्तयुक्त्या । समस्तशास्त्रार्थविचारवेत्ता कश्चिद् विपश्चित् परिपृच्छतीति ॥२॥ पुरातनव्याकरणाद्यनेकग्रन्थानुसारेण सदादरेण । तदुत्तरं स्पष्टतया करोति श्रीवल्लभः पाठक उत्सवाय ॥ ३ ॥ अन्त श्री जिनराजसूरीन्द्र धर्मराज्यं विधातरि । अस्मिन खरतरे गच्छे धम्मराज्यविधातरि ॥ १॥ जगद्विख्यातसत्कीर्तिर्ज्ञानविमलपाठकः । योऽभवत् तस्य पादाब्जभ्रमरायितमानसः ॥२॥ श्रीवल्लभउपाध्यायः समाख्यातीति सूनृतं । चतुर्दशस्वराः एते सर्वशास्त्रानुसारतः ॥ ३ ॥ (त्रिभिर्विशेषकं ) इतिश्री श्रीवल्लभोपाध्यायविरचित सारश्वतमतानुगत सर्वशास्त्र सम्मत चतुर्दश स्वरस्थापन वादस्थल प्रशस्तिः समाप्तम् ॥ ( पत्र ४ हमारे संग्रह में) उपाध्याय श्रीवल्लभ की कृतियां उनके प्रगाढ़ पांडित्य की परिचायक हैं। व्याकरण, कोष एवं काव्य, तीनों विषयों में आपकी असाधारण गति थी। इस लेख में जिन तीन नवीन उपलब्ध ग्रन्थों का परिचय दिया गया है ये तीनों ही कतियां अत्यन्त महत्व की हैं, अतः इनके शीघ्र प्रकाशन की आवश्यक्ता है। For Private And Personal Use Only

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