Book Title: Jain Satyaprakash 1940 03 SrNo 56
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 31
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4' ] શ્રીવલ્લભકે તીન નવીન ગ્રંથ [२४७] भूरयः सूरयस्संति संसारे नामतः परे । श्रीजिनराजसुरीन्द्रः सूरिरूपोऽर्थयुग्मतः ॥ २ ॥ श्रीजिनराजसूरीन्द्रः खरतरगणेश्वरः ।। स राजेव चिरं नंद्यात् साधयन् द्विषतो जनान् ॥ ३ ॥ यो स्फुटीति लमस्तेषु साधुलोकेषु सर्वदा । यदीयसुप्रसादश्रीबहुरूपा नवा नवा ॥ ४ ॥ (युग्मम् ) तो प्रणाम लसद्भक्त्या सुगुरुं च विशेषतः । श्रीवल्लभउपाध्यायः करोति ज्ञानवृद्धये ॥ ५ ॥ सारस्वतप्रयोगानां लिंगमेदार्थनिर्णय॑म् । नाममालादिशास्त्राणि विलोक्य च विचार्य च ॥ ६ ॥ [२] २. विद्वत् प्रबोध-इस ग्रन्थ की तत्कालीन लिखित ६ पत्रों की प्रति हमारे संग्रह में है जिसमें से ३ पत्रो में पदार्थ-टिप्पणी सूक्ष्म अक्षरों में पंचपाठ रूप से लिखी गई है। मूलपाठ ५ पत्रों में १५-१५ लाइनों में और छठे पत्र में ८ लाइन में लिखा हुवा है। प्रत्येक पंक्ति में ४६ से ५० तक अक्षर हैं। अक्षर साफ और पाठ शुद्ध है। ग्रन्थ तीन परिच्छेदों में समाप्त हुवा है। सारा ग्रन्थ वर्णनात्मक है । प्रथम परिच्छेद में गज, अश्व, वृष, सिंह और उष्ट्र आदि का ५६ श्लोकों में वर्णन है । दूसरे में शुकादि दो चरणवाले पक्षियों का वर्णन ५९ श्लोकों में है । तीसरे में यति पंडितादि का २१ श्लोकों में वर्णन है । इसके पश्चात् ६ प्रलोकों में ग्रन्थकर्त्ताने प्रशस्ति दी है । ग्रन्थ का आदि अन्त इस प्रकार है । आदि सारदां शारदा देवी, श्रीगुरुं स्वगुरुं पुनः । प्रणम्य क्रियते शास्त्र विद्वत्प्रबोधनामकम् ॥ १ ॥ तत्र संयोगिवर्नोधैर्वर्ण्यते वस्तुवर्णना। सकर्णलब्धवर्णानां प्रबोधाय प्रबोधदा ॥२॥ अन्त श्री शानविमलोपाध्यायानां शिष्यविनिर्ममे । वाचनाचार्यधुर्यश्री श्रीवल्लभगणीश्वरैः ॥ १ ॥ विद्वत्प्रबोधनामाय ग्रन्थो विद्वत्प्रबोधकृत् । स्फूर्जच्छोबलभद्रे श्री बलभद्रपुरे परे ॥ २ ॥ विद्वगोष्ठयां विशिष्टायां संजातायां प्रयोजनम् । एतद्ग्रंथस्य मेघाव्यऽभिमानोन्मथनायकैः ॥ ३ ॥ संयोगिवर्ण निगृणांति विद्वान् यो यं तमादौ च विधाय विद्वान् । दिव्येषु पादेषु चतुर्श्वशंके सद्यः सुपद्यः विदधातु हृद्यम् ॥ ४ ॥ For Private And Personal Use Only

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