Book Title: Jain_Satyaprakash 1937 08 SrNo 25
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 18
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म१] દિગબર શાસ્ત્ર કેસે બને? ४. दशरथ---आ० गुणभद्र ने इन्हीसे ज्ञान सम्पादन किया है। -( उत्तरपुराण, प्रशस्ति, श्लोक-१३ )। ५. श्रीपाल--- (2) विद्वदरत्नमाला पृ० १६ । आ० बोरसेन के पश्चात् पट्टानुक्रम इस प्रकार है-- आ० वीरसेन, तत्पट्टे आ० पद्मनंदी, तत्पट्टे आ० वीरसेन शिष्य आ० जिनसेन, त पट्टे वृद्ध गुरुभ्राता आ० विनयसेन, तत्पट्टे गुरुभ्राता के शिष्य आ० गुणभद्र ।। --आ० देवसेनकृत दर्शनसार, गाथा-३१, ३२ आ० वीरसेन ने दिगम्बर संघ को " धवल ग्रंथ '' नामक महान् सिद्धांत ग्रन्थ समर्पित किया है । इसका इतिहास आ० इन्द्रनन्दी आदि के लिखने के अनुसार निम्न प्रकार मिलता है: चित्रकुट निवासी एलाचार्य सिद्धांततत्त्व के ज्ञाता थे। आ० वीरसेन ने उनसे सब सिद्धांत का अध्ययन किया । बाद में ८ निबन्धनादि अधिकार लिखे । बाद में आप मटग्राम ( वटग्राम-मान्यखेट ) में पधारे । यहां आपने कषाय प्राभृत मूल गा० १८३, गुणधर मुनिकृत विवरण सूत्र श्लो० ५०३ और यतिवृषभ कृत चूर्णि श्लो० ६००० पर आ० बप्पदेव ने किये हुए वार्तिक ( व्याख्या प्रज्ञप्ति ) श्लो० ६०००० का अध्ययन कर लिया । और कर्म प्राभूत के छठे सत्कर्म खंड के बन्धनादि १८ अधिकार संक्षिप्त कर दिये, माने छठे खंड को छोटा कर दिया या तो सत्कर्म खंड नया बना लिया। और कर्मग्राभृत के ५ प्राचीन और छठा स्वकृत उन छे खंडों पर प्राकृत संस्कृत भाषा में ७२००० श्लोक प्रमाण धवला नामकी टीका बनाई । तत् पश्चात् आपने कपाय प्राभूत की ४ विभक्ति पर २०००० श्लोक प्रमाण जयधवला की रचना की और आपका स्वर्ग गमन हुआ । आपके ही शिष्य आ० जयसेन ने कर्म प्राभूत की शेष विभक्तियों का विवरण लिखने का प्रयत्न किया, और कषाय प्राभृत के शेष भाग पर ४०००० श्लोक प्रमाण टीका बनाकर उसे जयधवला के साथ में जोड़ दी । जयधवला की कुल जोड ६०००० श्लोक प्रमाण है । इसका दूसरा नाम महाधवला भी कहा जाता है। -----श्रुतावतार श्लोक १७६ से १८३ । सूअखंधो गा० ७०-८८ । स्वामी समन्तभद्र वगैरह । (क्रमशः). For Private And Personal Use Only

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