Book Title: Jain_Satyaprakash 1937 08 SrNo 25
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 50
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૧] - માંડવગઢ કે તારાપુર મંદિર કા શિલાલેખ [૪૭] गया है। ऊपर घूमट वगैरह जीर्ण हो गये हैं और बहुत हिस्सा टूट गया है। मंदिर के सामने दस फूट के करीब खुला चौक होकर उसके आगे एक मकान है, जिसकी दीवार टूटी फुटी हालत में खड़ी हुई हैं। ऊपर से वुला हो गया है। मकान के अंदर एक भायरा है। अंदर पत्थर का बांधकाम है। प्रतिमा विगैरह कुछ नहीं है खाली पड़ा है। इस मंदिर के आसपास मकानात के तमाम खंडहर पडे हुवे हैं जो उपासरे, धर्मशाला आदि व श्रावकों की बस्ती का भान कराते हैं। मंदिर के पास एक पानी का टांका बताते हैं उसमें अक्षय तृतीया को अंदर से श्वेत सर्प निकलता है, व पानी अपने आप ऊपर उभराकर शांत हो जाता है। यह बात हम शिलालेख की नकल लेकर वापिस आकर सूर्यकुंड की नकल ले रहे थे उस वक्त तागपुर के रहनेवाले दो चार मनुष्यों ने कही थी। सत्यासत्य ज्ञानीगम्यं । अक्षय तृतीया को वहां जाने पर हाल मालूम हो सकता है। थोडे रोज बाद फिर मांडवगढ जाने पर रा० पंडित विश्वनाथ शर्मा इतिहास प्रेमी के पास उक्त शिलालेख का फोटो उन्हेांने लेवाया था, वह देखा और वह "वाणी" मासिक पत्र खरगोन (नीमार) में प्रकाशित करने का जाहिर किया। हमने संपादक "वाणी' से ब्लोक प्राप्त करके इस पत्र में प्रकाशित कराया है। शर्माजी को काफी मदद मिली है और शिलालेख का संक्षिप्त अर्थ परमपूज्य धर्मसागरजी महाराज से करवाया है अतः हम उन सर्व के आभारी हैं। हमारा अभिमाय इस शिलालेख व सूर्य कुंड के शिलालेख देखने के पश्चात् ख्याल आया कि श्रीमान् स्वर्गीय रखबदास कृत एक चैत्यवंदन " आजदेव अरिहंत नमू, समरूं ताहरूं नाम । ज्यां ज्यां प्रतिमा जिनतणी, त्यां त्यां करुं प्रणाम" | इसके आखरी पद में "मांडवगढनो राजियो, नामे देव सुपास । षभ कहे जिन समरतां पहोंचे मननी आश ॥" इस पद के विचार करते यह अनुमान किया जा सकता है कि रिषभदासजी यात्रार्थ देशाटन करते मांडवगढ आये हेांगे, क्यों कि मांडवगढ उस वक्त खूब आबादी से बसा था और जैनियों की पुष्कल बस्ती थी। उस वक्त जैन संघ चैत्री, कार्तिकी पूर्णिमा १. रिषभदासजी का जीवन वृतान्त ठीक तौर से मुझे मालूम नहीं है, परंतु इतना मालूम हुवा है कि श्रीमान् रिषभदासजी अकब्बर बादशाह के वक्त में हुवे हैं, जो विक्रम की सोलहवीं शताब्दि का समय है। इन्होंने स्तवन, चैत्यवंदन, स्त्तियां, सज्झायों, श्लोंक वगैरह बहुत बनाये हैं और जैनाचार्यों ने उनको मान की दृष्टि से देखा है। For Private And Personal Use Only

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