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दिगम्बर शास्त्र कैसे बने?
लेखक-मुनिराज श्री दर्शनविजयजी
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(गतांक से क्रमशः)
प्रकरण १४-आ० वीरसेन और आ० जयसेन
मैं सातवे प्रकरण में लिख चुका हूं कि-दि० आ० भूतवलि वगैरह ने बनाये कर्म प्राभृत और कषाय प्राभृत ही दिगम्बर संघ के आगम हैं। इनको आचायोगम मानो, जिनागम मानो या कुछ भी मानो, मगर सब से प्राचीन दिगम्बर शास्त्र ये ही हैं। पश्चात् कालीन दि० आचार्यों ने श्वे०आगमों के सहारे से इन दिगम्बरीय शास्त्रों को टीका एवं व्याख्याओं से अलंकृत किये हैं। उन सभी में आ० वीरसेन और आ० जयसेन का प्रयत्न चिरंजीव बना है। ये दोनों आचार्य गुरु शिष्य हैं । आपका परिचय इस प्रकार है :
आप दिगम्बरीय सेन संघ के आचार्य हैं। श्रीमान् नाशुरामजी प्रेमी लिखते हैं कि---सेनसंघ से दो शाखाएं चली; प्रथम शाखा में आ० समन्तभद्रसूरि, आ० शिवकोटि और आ० वीरसेन वगैरह हुए। यह कवि हस्तिमल्ल के विक्रान्तकौरवीय नाटक की प्रशस्ति से माना जाता है। दूसरी शाखा में हरिवंश पुराण के निर्माता आ० दूसरे जिनसेन हुए हैं, ( शक सं० ७०५) * जिनको प्रशस्ति हरिवंश पुराण में ही उपलब्ध है ।—विद्वद्रत्नमाला ।
आपके दीक्षागुरु का नाम मिलता नहीं है। आपके ज्ञानगुरु चित्रकूट निवासी पलाचार्य थे। आपको समय करिबन विक्रम की नवमी शताब्दी का उत्तरार्ध है, क्यों कि---जयधवला का समाप्तिकाल शक सं० ७५९ यानी विक्रमाब्द ८९५ है।
श्रीमान् प्रेमीजी ने विद्वदूरत्नमाला में हरिवंशपुराण का समाप्तिकाल श०सं०६७५ लिखा है।
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