Book Title: Jain_Satyaprakash 1937 08 SrNo 25
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पतिन्द्रय-से [34) व जिनागम में उल्लिखित जिन मूर्ति को नहीं माननेवाले के हिन्दी पाठको, और उसका उत्तर मांगते हैं पू० आ० श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी वगैरह से । पं० इन्द्रचन्द्रजी ने भी इन हिन्दी पाठ को पढकर अनेक प्रश्न उठाये हैं । जो प्रश्न वास्तव में आगम पर नहीं किन्तु उस भाषा-पाठ पर हैं। पं० इन्द्रचन्द्र जी ने शुरू में कुरगडु ऋषि की कथा पर आपत्ति की है; जो कथा तपमद के परिणाम और भावना के फल की बोधक है । किस जीव को कब कौन निमित्त से लाभ होगा उसमें एकांत नियम नहीं है । यदि स्वयं केवली भगवान् आहार लेते हैं तो, आहार लेनेवाले को शुभ भावना से केवलज्ञान हो उसमें आहार के प्रश्न को स्थान ही नहीं है । दिगम्बरीय समाज केवली-भुक्ति नहीं मानता है, अतः उसको अपने एकान्त आग्रह में यह वस्तु आश्चर्यजनक लगे यह स्वाभाविक है । जो समाज पांचों प्रकार के शरीर से भिन्न और किसी छठे शरीर में १३वे गुण स्थानक का अस्तित्व मानता है, कपडे के स्पर्श मात्र से केवलज्ञान का विलय मानता है और आहार से केवलज्ञान का दब जाना मानता है वह समाज १३ वें गुणस्थानक में चौदहवें गुणस्थानक किसी दशा मान ले तो उसे कौन रोक सकता है? क्योंकि दिगम्बरों का मत है कि---औदारिक, आहारक, वैक्रिय, तैजेस और कार्मण शरीर १३ वें गुणस्थान के लिए निरुपयोगी हैं । जब जीव १३ वें गुणस्थान में प्रवेश करता है तब उसका औदारिक शरीर छूट जाता है और उसे परमौदारिक शरीर प्राप्त होता है। उस शरीर में नख केश भी होते हैं जो औदारिक होते हैं। इस शरीर से लाभ यह होता है कि तीर्थकर भगवान् साक्षरी वाणी बोल सकते नहीं हैं, क्षुधा परिसह की उपस्थिति में आहार ले सकते नहीं हैं। ऐसी हालत में ही केवलज्ञान व केवलदर्शन टोक सकते हैं, ऐसा दिगम्बरीय ख्याल है । इसी ख्याल से पं० इन्द्रचन्द्रजी केवली के लिए बाह्य कार्य छोडकर आत्मध्यान में लीन होना ठीक मानते हैं। इन्द्र चन्द्रजी कुछ भी माने, किन्तु केवली भगवान् आत्मध्यान में लीन हैं और द्रव्य मन, द्रव्य वचन और द्रव्य शरीर से साध्य, प्रश्नों के उत्तर, उपदेश, विहार, आहार, निहार श्वासोश्वास इत्यादि सब काम करते हैं। एकान्त आग्रह को छोड कर देखा जाय तो दिगम्बर शास्त्र में भी तीर्थकर के लिए बाह्य कार्यों का सर्वथा निषेध नहीं है। हां उनके सब कार्य निरीह भाव से होते हैं, किन्तु जब तक मन, वचन और काया के योग हैं ----- सयोगी केवलीदशा है-- तब तक योग निमन कार्य जरूर होते हैं । पं० कैलाशवन्त जी लिखते हैं कि---- For Private And Personal Use Only

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