Book Title: Jain_Satyaprakash 1937 08 SrNo 25
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ १३ प्रत्येक वनस्पति माने फल वगैरह निर्जीव है-अचित्त है । विशेष जिज्ञासुओं ने उन लेखों को पढना चाहिए। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि जैन और आजीविक में जो फरक था वही आज श्वे और दि० में है । आजीविक मत के कुछ अनुकुल दि० शास्त्र बने हेांगे । अत एव इन्द्रचन्द्रजी ने जैन समाज के दो विभाग होने में साधु और आगम को प्रधान कारण माने हैं। उनकी यह मान्यता हमें भी जचती है। पं० इन्द्रचन्द्रजी सम्राट चन्द्रगुप्त की कल्पित बातों का व श्रवण बेल्गुल के शिलालेख की पुनरावृत्ति करते हैं। मगर ऐसी " बाबावाक्यं प्रमाणम्" जैसी बातों में क्या धरा है ? दिगम्बर शास्त्र और शिलालेख ही चन्द्रगुप्त और उसकी दीक्षा के बारे में एकमत नहीं है जो "जैन सत्य प्रकाश" में सप्रमाण छप चुका है, और जिसके लिये म्वयं पं० अजितकुमारजी अब तक मौन हैं । तो उसकी पुनरावृत्ति करने से क्या लाभ ? सम्भवतः ऐसी दिगम्बरीय कथाओं की मखौल उड रही है। पं० इन्द्रचन्द्रजी को पुरुष, स्त्री वगैरह के मोक्षा गमन में बडा दुःख होता है। वे चाहते हैं कि स्त्री और अजैन (चाहे वह भाव जैन हो तो भी) मोक्ष में नहीं जाना चाहिए । मैं भी एक अपेक्षा से लेखक को सहमत हूं कि दिगम्बर मत की स्त्रियों का कतै मोक्ष नहीं होना चाहिए । कारण ? जो समाज, राज और योग से पर रहे हुए तीर्थंकर के अवेदित्व, निरीहता इत्यादि को जानता ही नहीं है, सिर्फ तीर्थंकर की मूर्ति के उपर रही हई माला, चक्षु या मुकुट को देखते ही ध्यान से विचलित हो उठता है वह समाज अपने देवगुरु इत्यादि की नितान्त नग्नता से, ध्यान विचलित होकर मोक्ष के लिए अयोग्य बना रहे यह भी स्वाभाविक है । वास्तव में दिगम्बरीय स्त्रियों के मोक्ष निषेध का कारण नग्नता का एकान्त आग्रह ही है । इसके भिन्न दिगम्बर शास्त्र में तो स्त्री मोक्ष के भी, २० स्त्री-सिद्ध बनें, इत्यादि प्रमाण मिलते हैं। दिगम्बरोय यापनीय संघ नग्नता का आग्रही है, किन्तु स्त्री-निर्वाण का भी वह पक्षपाती है। ___ भाव जैनत्व होने पर भी जैनेतर के निर्वाण में विरोध करना यह वास्तव में स्याद्वाद का ही विरोध करना है । संस्कृत प्राकृत से अनभिज्ञ किसी व्यक्ति से अनुवादित हिन्दी जिनागम बत्तीसी को पढकर ये दिगम्बर भाई श्वे० आगमों की चर्चा करने को निकल पडे हैं । आश्चर्य को बात तो यह है कि वे पढते हैं जिनागम की पंचांगी को For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62