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अंक१]
सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र।
'धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशकु
सीधे साधे वचनोंको युक्तिशन्य और प्राकृतजनप्रिय वेतालभट्टघटखर्परकालिदासाः।
मात्र बतलानेके उद्योगका आरंभ किया। महर्षि गौख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां
तम उन्हीं मनस्वी ब्राम्हणों के नेता थे। बुद्धिमान रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य ॥'
भिक्षुओं (बौद्धश्रमणों) को जब इस उद्योगके रहइस श्लोको क्षपणक नामसे जिस व्याक्तिको विक्र- स्यका पता लग गया तब उन्होंने भी अपने आप्तके मराजाकी सभाके नौ रत्नोंमेंसे एक रत्न बतलाया नामधारी गौतममुनिक तर्कजालके फंदेमे न फंसहै वह सिद्धसेन दिवाकर ही होना चाहिए, ऐसा नेकी सावधानीका रास्ता ढूंढना शुरू किया। केवल अनुमान किया गया है। यहां पर हमें इस कथ- लोकहितकी दृष्टिसे, प्रचलित लोकभाषामें, आबालनकी ऐतिहासिक सत्यासत्यताका विचार नहीं कर- गोपालको बोध करनेके लिये रचे गये पाली पिटना है, इसलिये इस विषयमें हम अपना कुछ भी कोंके पारायणसे भिक्षकगणको जब, तार्किक ब्राह्मअभिप्राय प्रकट करना नहीं चाहते। हमारे इस णोंके तर्कप्रपञ्चका समाधान करने में समर्थ होते न लेखका उद्देश्य केवल सिद्धसेन और समन्तभद्रकी देखा तब, आर्य नागार्जन नामक प्रतिभाशाली महापरस्पर कुछ तुलना और उनके सामथ्येके बारेमें श्रमणने शन्यवादकी स्थापनाके लिये गृढ विचारकिञ्चित् वक्तव्य प्रकट करना है।
गार्भत मध्यमावतारका प्रणयन किया। जिस तर्कउपलब्ध जैनवाड्ययका सूक्ष्मता के साथ निरी- पद्धर्तिसे ब्राह्मण विद्वान् श्रमणोंके सरल विचारोंपर क्षण करनेसे पता लगता है कि सिद्धसेनसे पहले कठिन कटाक्ष किया करते थे, श्रमण विद्वान भी जैनदर्शनमें तर्कशास्त्रविषयक कोई स्वतंत्र सिद्धान्त अब उसी पद्धतिसे अपने ‘मायावाद ' के अदृश्य प्रचलित नहीं था। उनके पूर्वमें प्रमाण-शास्त्रविषयक बाण ब्राह्मणोंके ऊपर चलाने लगे। इस प्रकार बातें केवल आगम-ग्रन्याहीमें, अस्पष्ट रूपसे संकलित ब्राह्मण और बौद्ध विद्वानों में तर्कशास्त्रीय युद्ध थीं; और उस समयतक उन बातोंका कुछ अधिक बढता गया, और शनैः शनैः श्रमणसमूह इस विषय प्रयोजन भी नहीं था।सिद्धसेनसरिके पहलेका जमा- में आधिकाधिक उन्नति प्राप्त करता गया। उसमें ना तर्क-प्रधान नहीं था किन्तु आगम-प्रधान था। आचार्य दिग्नाग आदि बडे बडे न्यायवित् श्रमण आप्त-पुरुषका कथन मात्र ही तबतक सर्वथा शिरो- उत्पन्न हुए और उन्होंने शाक्यसून भगवान बुद्धके धार्य समझा जाता था। जैनधर्मके सहचर ब्राह्मण प्राकृतजनप्रिय सरल सिद्धान्तोंको विद्वानोंके लिये
और बौद्धधर्मकी भी यही अवस्था थी। परंतु महर्षि भी साधारणतः दुर्गम तथा गढ बना दिये और उगौतमके 'न्यायसूत्र के संकलनके बाद धीरे धीरे नकी गुत्थी सुलझानेके लिये अपने प्रतिपक्षियोंको तर्कका जोर बढने लगा और जुदा जुदा दर्शनोंके चिरकाल तक विवश किया। विचारों का समर्थन करने के लिये स्वतंत्र सिद्धान्तोंकी ब्राह्मणों और श्रमणोंके बीचमें होनेवाले इस वारचना होने लगी। लगभग उसी समयमें भगवान् ग्युद्धकी शब्दध्वनि निर्जनवनों में घूमनेवाले जैन गौतमबुद्धका साम्यवाद और मध्यममार्ग ब्राह्मणोंके निर्ग्रन्थोंके कानोंत्तक भी जा पहुँची ।ध्यानमग्न निम्रकर्मजालसे संत्रस्त हुए साधारण लोगोंमें अधिक न्थ इस ध्वनिके मतलबको समझनका प्रयत्न कर ही आदर पाने लगा था और थोडेही समयमें उसने रहे थे कि इतनेमें स्वयं ज्ञातपुत्र भगवान् महावीरके सम्राटके सिंहासन तकको भी अपना अनुयायी बना 'मोक्षमार्ग' का उपहास सूचित करनेवाले शब्द भी लेनेकी महत्ता प्राप्त कर ली थी।
उन्हें अस्फुट रीतिसे सुनाई देने लगे। इस स्थितिका __ इस प्रकार बौद्धधर्मके बढते जाते प्रभावको देख- विचार कर, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके ज्ञाता 'क्षपणक' कर कुछ मनस्वी ब्राह्मणोंने बुद्धदेवके सरल और (जैन श्रमण या निर्ग्रन्थ) भी अपनी 'शासनरक्षा' देखो, डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषणलिखित 'न्याया
का उपाय सोचने लगे। बौद्ध श्रमण 'शून्यवाद । बतार'की भूमिका तथा 'मध्यकालीन भारतीय न्यायशा- के सिद्धान्तको जिस तर्कपद्धति द्वारा प्रबल और स्त्रका इतिहास।'
व्यवस्थित बनाते हुए बुद्धदेवके शासनको स्थिर
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