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जैन साहित्य संशोधक ।
भारतके भाग्याकाशमें अब सौभाग्यके सूर्यका उदय होने लगा है और हजारों वर्षोंसे छाई हुई जडता (अंधकार) का नाश होने जा रहा है । भारतके सेंकडों ही सपूत आलस्यका त्याग कर कार्यक्षेत्रमें ऊठ खड़े हुए हैं और भावी अभ्युदयके साथ भूतकालीन गौरवके उद्घाटन में भी कई दत्तचित्त हो रहे हैं। अनेक सज्जन भारतीय इतिहास और साहित्यके क्षेत्रमें उत्साहपूर्वक कार्य करने लगे हैं और इनमें से कोई कोई विद्वान् जैन साहित्यका परिचय प्राप्त करने के लिये भी उत्सुकता दिखाने लगे हैं ।
इधर, जैन समाज भी कुछ कुछ जागृत हो रहा है और अपने साहित्यके संरक्षण और प्रकाशनकी तरफ लक्ष्य लगा रहा है । यद्यपि यह हर्षकी बात है; परंतु, जिनके नेतृत्व में यह कार्य हो रहा है, उनमें एक तो विचार-संकुचितताकी मात्रा अधिक है और दूसरी बात यह है कि जैन के सिवाय बाहरके जगत्को उन्हें किंचित् भी परिचय नहीं है— अथवा बहुत ही कम है। इसलिये वर्तमान में जो कुछ साहित्य जैसे वैसे छपकर प्रकट भी हो रहा है-और परिमाणमें वह है भी बहुत कुछ तो भी अन्य विद्वानोंको उसका दर्शनमात्र भी नहीं होने पाता है। और इस प्रकार विद्वानोंके लिये जैन साहित्यके परिचय करनेका द्वार अभी तक बिलकुल बन्ध ही सा है। ऐसी स्थिति होनेसे, अब ऐसे एक साधनकी बहुत आवश्यकता है कि, जिसके द्वारा जैन साहित्यका, जिज्ञासु विद्वानोंको यथेष्ट परिचय मिलने के साथ विस्तृत स्वरूपभी मालूम होता रहे; और जैन विद्वानोंको जगत् के अन्यान्य विद्वानोंके विचार, परिश्रम, अभ्यासार्दिक के साथ कर्तव्य की दिशाका उपयुक्त ज्ञान भी मिलता रहे । इसी आवश्यकताकी किञ्चित् पूर्तिक लिये इस 'जैन साहित्य संशोधक' को जन्म दिया गया है ।
इस
आशा है, कि विज्ञ लेखक और पाठकगण साहित्य, समाज और अंशतः देश-सेवाके पवित्र कार्य में सहभागी बन कर सबही यथाशक्ति अपने अपने योग्य कर्तव्य का पालन केरग । तथास्तु ।
सिद्धसेन दिवाकर
[भाग १
और. स्वामी समन्तभद्र ।
सिद्धसने दिवाकर, और आप्तकी मीमांसा - द्वारा जैनधर्मके प्रमाणशास्त्र के मूल प्रतिष्ठापक आचार्य स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद) का समर्थन करनेवाले
स्वामी समन्तभद्र, दोनों जैनधर्म के महान प्रभावक और समर्थ संरक्षक महात्मा हैं। इन दोनों महापुरुपोंकी कृतियोंके देखनेसे, इनके स्वभाव और प्रभाव में एक सविशेष समानता प्रतीत होती है । दोनोंहीने परमात्मा महावीरके सूक्ष्म सिद्धान्तों का उत्तम स्थिरीकरण किया और भविष्य में होनेवाले प्रतिपक्षियों के कर्कश तर्कप्रहारसे जैनदर्शनको अक्षुण्ण रखनेके लिये अमोघ शक्तिशाली प्रमाण-शास्त्रका सुदृढ संकलन किया ।
Aho ! Shrutgyanam
इन्हीं दोनों महावादियों द्वारा सुप्रतिष्ठित जैनतर्वकी मूल भित्तियों पर मल्लवादी, अजितयशा, हरिभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, अमृतचन्द्र, अनन्तवीर्य, अभयदेव, शान्तिसूरि, जिनेश्वर, वादी देवसूरि, हेमचन्द्रसूरि, मल्लिषेण, गुणरत्न, धर्मभूषण और यशोविजय आदि समर्थ जैन नैयायिकोंने बडे बडे तर्कयन्थों के विशाल और दुर्गम दुर्गोंका निर्माण कर जैनधर्मके तात्त्विक साम्राज्यको इतर वादीरूप परचक्रके लिये अजेय बनाया है।
हमें अभी तक यह पूर्णतया निश्चित ज्ञात नहीं हुआ है कि ये दोनों महापुरुष कब और किस संप्रदाय में हुए हैं, परंतु पूर्वपंरपरासे जो मान्यता चली आ रही है उसके आशयानुसार यह कह सकते हैं कि सिद्धसेन दिवाकर तो श्वेताम्बर - संप्रदायमें, विक्रमराजाके समय में, और स्वामी समन्तभद्र दिगम्बरसंप्रदाय में, विक्रमकी दूसरी शाताब्दी में हुए हैं।
- सिद्धेसन दिवाकर । २
दन्तकथाके कथनानुसार सिद्धसेन विक्रमराजाके - जिसके नामसे भारतवर्षका सुप्रसिद्ध सर्वत् चलता है— गुरु थे । ऐतिहासिकोंने भी इस कथनमें कुछ तथ्य स्वीकार किया है और 'ज्योतिर्विदाभरण' के