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अ०८ / प्र० २
ये बारह आचार्य वारां के पट्टाधीश हुए।
६५.
कीर्ति
(१२०९)
६६. चारुनन्दी
(१२१६)
६७.
(१२२३)
६८. नाभिकीर्ति
(१२३०)
६९.
(१२३२)
७०.
श्रीचन्द्र
(१२४१)
७१.
७२. वर्द्धमानकीर्ति
(१२५३)
७३.
(१२४८) अकलंकचन्द्र (१२५६) ७४. ललितकीर्ति केशवचन्द्र (१२६१) ७६. चारुकीर्ति
(१२५७)
७५.
(१२६२)
७७.
अभयकीर्ति (१२६४) ७८. वसन्तकीर्ति
(१२६४)
इण्डियन एण्टीक्वेरी की जो पट्टावली मिली है, उसमें उपर्युक्त चौदह आचार्यों का पट्ट ग्वालियर में होना लिखा है, किन्तु वसुनन्दी - श्रावकाचार में इनका चित्तौड़ में होना लिखा है । परन्तु चित्तौड़ के भट्टारकों की अलग भी पट्टावली है, उसमें ये नाम नहीं पाये जाते । संभव है कि ये आचार्य ग्वालियर में ही हुए हों । इनको ग्वालियर की पट्टावली से मिलाने पर निर्णय किया जा सकता है।
७९.
प्रख्यातकीर्ति (१२६६) ८०. शुभकीर्ति
८१.
धर्मचन्द्र
(१२७१) ८२. रत्नकीर्ति
८३. प्रभाचन्द्र
(१३१०)
ये पाँच आचार्य अजमेर में हुए ।
८४. पद्मनन्दी (१३८५)
८६.
जिनचन्द्र
(१५०७)
ये तीन आचार्य दिल्ली में पट्टाधीश हुए।
इनके पश्चात् पट्ट दो भागों में विभक्त हो गया। एक गद्दी नागौर में स्थापित हुई और दूसरी चित्तौड़ में। चित्तौड़ - पट्ट के आचार्यों के नाम इस प्रकार हैं(१५७१) ८८. धर्मचन्द्र
८७. प्रभाचन्द्र
(१५८१)
८९.
(१६२२)
ललितकीर्ति (१६०३) ९०. चन्द्रकीर्ति देवेन्द्रकीर्ति
९१.
(१६९१)
९३.
सुरेन्द्रकीर्ति
(१७३३)
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कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ९
नेमिनन्दी
नरेन्द्रकीर्ति
पद्म
८५. शुभचन्द्र
(१६६२) ९२. नरेन्द्रकीर्ति
(१७२२)
९४. जगत्कीर्ति
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(१२६८)
(१२९६)
(१४५०)
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