________________
६८ ]
[★ जैन निवन्ध रत्नावली भाग २
यद्यपि ऊपर लिखित प्रमाणो मे बैठे भोजन का विधान करना ही खडे भोजन का निषेध सिद्ध कर देता है । फिर भी कुछ भाई कहते है कि क्या हुआ अगर बैठे भोजन करना लिख दिया तो, कही यह तो नही लिखा कि 'ऐलक खडे भोजन न करे ।' ऐसे कदाग्रहियों के सन्तोष के लिए भी वैसा एक प्रमाण नीचे और दे देते हैं । जिसमे साफ खडे भोजन का निषेध किया गया है
क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यन्न स्थितिभोजनम् । आतापनादियोगोऽपि तेषां शश्वन्निषिध्यते ॥ १५५ ॥
टीका - क्षुल्लकेषु सर्वोत्कृष्ठ श्रावकेषु । एकक-एक वस्त्र अवरं पट | नान्यत् - अन्य - द्वितीय वस्त्र न भवति । न स्थितिभोजन उद्भीभूयभ्यवहारोऽपि न भवति । आतापनादियोगोऽपि आतापवृक्षमूला भ्रावकाशयोगश्च । तेषा - क्षुल्ल- काना । शश्वत् सर्वकाल । निषिध्यतेप्रतिषिध्यते ।
गुरु दासाचार्य का बनाया हुआ एक 'प्रायश्चित्तसमुच्चय' नाम का ग्रन्थ है । जिस पर श्री नन्दिगुरु ने एक संस्कृत टीका भी लिखी है । वही का यह श्लोक मय टीका के है इसमे लिखा है कि - " क्षुल्लको के लिये एक वस्त्र का ही विधान है दूसरे का नही। वे खडे होकर भोजन भी नही कर सकते और उनके लिये आतापनादि योग भी सदैव निषिद्ध है ।
"यह कथन क्षुल्लक के लिए है, ऐलक के लिए नही । श्लोक में भी साफ क्षुल्लको के स्थिति भोजन का निषेध किया है ।" ऐसी शका भो नही करनी चाहिए। क्योकि प्राचीन ग्रन्थो मे ऐलक नाम आता ही नही । जिसे आज हम ऐलक