Book Title: Jain Nibandh Ratnavali 02
Author(s): Milapchand Katariya
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 661
________________ पूज्या पूज्य - विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६३ और इस गुरुमूढता को जो नही करता उसके व्रत और सम्यक्त्व में अवश्य हानि भी आपने बता दी हैं इससे " एक तो करेला कडवा और फिर नीम चढा" कहावत चरितार्थ हो गई है । इस तरह आपने' देवमूढता ( कुदेव पूजा ) के साथ-साथ गुरुमूढता ( कुगुरु पूजा ) रूप मिथ्यात्व को भी विधेय बता दिया है इसमें क्या हित है ? यह आपकी अद्भुत बुद्धि ही समझ सकती है हम तो इसे कलिकाल का प्रभाव ही समझते हैं । इस तरह सिद्ध होता है कि - पूजा का अर्थ सत्कार कर देने मात्र से रागी द्वेषी देवी और गुरुओ की पूजा विधेय नही हो सकती, क्योकि एक तो अथ बदला नही है सिर्फ उसमे लघुता हुई है दूसरा क्षेत्र और पूजा-पद्धति वही धार्मिक है उसमे किंचित भी अन्तर नही है पूज्यत्व बुद्धि उसी तरह है । अतः जब तक धार्मिक मर्यादा रहेगी तब तक आपत्ति भी बनी रहेगी । (२) आगे आप लिखते हैं "प० आशाधरजी आदि का प्रतिष्ठापाठ प्रमाणी भूत नही है तो उन पाठो से प्रतिष्ठा कराई हुई प्रतिमा प्रमाणिक (पूज्य ) है या नही ?" समीक्षा किसी भी प्रतिमा पर यह नही लिखा रहता कि - यह प्रतिमा अमुक प्रतिष्ठा -पाठ से प्रतिष्ठित है । अत दि० वीतराग मूर्ति प्रमाणिक और पूज्य है। कुछ मूर्तियो पर तो साल सम्वत् कुछ भी नहीं लिखी रहता, फिर भी वे दि० वीतराग होने से पूज्य हैं । जो कुछ गलत अशुद्ध क्रियाये और कुविधियाँ होती हैं उसका दोष प्रतिमा पर नहीं है । यह तो उन प्रतिष्ठाचार्थी और यजमान पर है और उसका कुफल भी उन्हे ही भोगना पड़ता है । ··· + 1

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