Book Title: Jain Nibandh Ratnavali 02
Author(s): Milapchand Katariya
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 659
________________ पूज्या पूज्य - विवेक और प्रतिष्ठापाठ ] [ ६६१ आपत्ति नही किन्तु आप तो जिन मन्दिर मे और जिन बिम्ब प्रतिष्ठादि धर्मकार्यो मे इनकी पूजा करते हैं और वह भी अष्ट द्रव्यो से यह सब गलत पद्धति है और इसी से हमे विरोध है । देखिये स्वामी समन्तभद्र तो सम्यग्दृष्टि के लिये लौकिक धार्मिक सभी दृष्टि से कुदेव कुशास्त्र कुगुरु को नमस्कार और सत्कार तक का निषेध करते है । भयाशास्नेहलोमाच्च कुदेवागम लिगिनां । प्रणामं विनय चैव न कुर्यु. शुद्ध हृष्टयः ॥ ( अर्थ - भय, आशा, प्रेम, लोभ से भी कुदेव कुशास्त्रकुगुरु को नमस्कार-सत्कार सम्यग्दृष्टि न करें । ) लौकिक सत्कार-व्यवहार नही करने से लौकिक कार्यों मे हानि सम्भव है किन्तु आप व्रत और सम्यवत्व मे भी अवश्य हानि होना लिखते हैं यह अत्यन्त गलत है धार्मिक मर्यादा और लौकिक मर्यादा अलग-अलग है और इसी को लेकर आपने पूज्य और अपूज्य की भेदरेखा खीची है, किन्तु आपने फिर वापिस दोनो को एक कर गुड-गोबर कर दिया है । इतना ही नही, आपने लौकिक मर्यादा को धार्मिक मर्यादा से भी श्रेष्ठ बता दिया है इस तरह आपने धर्म पुरुषार्थ से काम पुरुषार्थ को श्रेष्ठ बताकर सारे जैन सिद्धात को ही उलट कर रख दिया है । ससार को बढाना ही आपकी दृष्टि मे सब कुछ है जबकि जैनाचार्य संसार से छुडाने का उपदेश करते हैं । लौकिक सत्कार-व्यवहार के बिना आप व्रत और सम्यक्त्व में अवश्य हानि बताते है तो फिर लौकिक व्यवहार को ही पूर्णतया पालन करते रहना चाहिए इसी से निश्रेयस की

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