Book Title: Jain Nibandh Ratnavali 02
Author(s): Milapchand Katariya
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 662
________________ ६६४ ] [ ★ जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ चतु संष-संहितया, जैनं विम्व प्रतिष्ठितम् । न पूज्यः परसवस्थ, यतो न्यास- विपर्यय ॥ १४ ॥ आपने परम मान्य इद्रनन्दि के नीतिसार समुच्चय का जो यह श्लोक आपने अपने लेख मे दिया है, उस पर से हम पूछना चाहते हैं कि जिन मूर्तियो पर काष्ठासघ, माथुर सघ स्पष्ट लिखा है [देखो भट्टारक सम्प्रदाय ग्रन्थ ] वे मूर्तियाँ आपके लिये पूज्य और प्रमाणिक हैं या नही ? और माथुर सघादि के शास्त्र भी मान्य है या नही ? इद्रनन्दि के अनुसार तो ये अपूज्य और अमान्य ठहरते हैं, किन्तु काष्ठा सघादि की मूर्तियाँ ओर माथुर सघी (नि पिच्छक) अमितगति आचार्य के ग्रथ सभी जैन जनता पूजती और मानती आ रही है । अत अब आप ही बताये कौन ठीक है ? और क्यो ? (३) आगे आप फिर लिखते हैं- "रागी द्वेषियो की पूजा मुख की होती है अर्थात् तिलक कर देना, गले मे पुष्पमाला पहना देना, पान-सुपारी नारियल आदि से सत्कार कर देना । यह तो सरागियो की पूजा हैं, किन्तु वीतरागियो की पूजा मुख की नही होती, उनकी पूजा चरणो की ही होती है । उनके मुख का तो केवल दर्शन होता है । अत पूजा पूजा मे बडा अन्तर है । जिनके चरणो की पूजा नही होती केवल मुख की पूजा होती है, उनमे पूज्यत्व बुद्धि नही रहती, क्योकि वे सरागी है। इसलिए प्रतिष्ठा पाठो मे जहां रागोद्वेषी देवो की पूजा का विधान है वहाँ पर उनको सन्तुष्ट रखने का ही अभिप्राय है । इसलिए कि वे प्रतिष्ठा महोत्सव मे स्वयम् उत्पात न करे और दूसरे करते हो तो उन्हे रोक दें। ऐसा न करने पर विघ्न उपस्थित हो सकते है । अत. आशाधरजी ने भी नवग्रहादि की 1

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