Book Title: Jain Nibandh Ratnavali 02
Author(s): Milapchand Katariya
Publisher: Bharatiya Digambar Jain Sahitya

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Page 666
________________ ___६६८ ] [ * जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ सचाई छिप नही सकती, बनावट के उसूलो से । कि खुशबू आ नही सक्ती , कभी कागज के फूलो से ॥ आशाधर जी ने अपने प्रतिष्ठा पाठ मे-नवग्रहो की पूजा का फल जैनेतर विविध साधुओ की पूजा के माध्यम से बताया है, सो नवग्रह और जैनेतर साघुओ मे परस्पर क्या तुक है ? नवग्रह सज्ञा भी जैनधर्म की नहीं। इस तरह आशाधर जी का यह सब कथन अजैन सम्प्रदाय का पोपक ओर कुगुरु पूजा रूप मिथ्यात्व को लिए हुए हैं। शायद आशाधरजी के ऐसे ही अयुक्त कथनो से ऊवकर नरेन्द्रसेन देव ने उन्हे अपने गच्छ से निकला था, जिसका उल्लेख 'भट्टारक सम्प्रदाय' मे दिया हुआ है उसका पृष्ठ २५२ तथा प्रस्तावना पृष्ठ २१ देखो। ऐसी हालत मे हमने जो एक प्रामाणिक प्रतिष्ठापाठ की आवश्यकता प्रकट की थी, वह समुचित है। आप लिखते है-शाधरजी ने दार्शनिक श्रावक के लिए शासन देव पजा का सर्वथा निषेध किया है, तो फिर जो प्रतिष्ठाचार्य प्रतिष्ठा कराते है उन्हें व्रत तो क्या अपने सम्यक्त्व तक को तिलाजलि देकर फिर प्रतिष्ठा करानी चाहिए क्या इसके लिए कोई तैयार है ? अगर किसी तरह कोई तैयार भी हो जाये तो ऐसे व्रत और सम्यक्त्व से हीन की प्रतिष्ठा कैसे मान्य होगी? स्वयं आशाधरजी ने प्रतिष्ठाचार्य के लिए शुद्ध सम्यक्त्वी होना आवश्यक बताया है और वे ही प्रतिष्ठा में रागी-द्वेषी देवो की पूजा भी लिखते जाते हैं और ऐसी पूजा अव्युत्पन्न दृष्टि करता है, ऐसा भी लिखते जाते है(देखो प्रतिष्ठा

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