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२३६ ] [* जैन निबन्ध रत्नावली भाग २ १. अहिंसाणुवत
कपाये भाव पूर्वक मन-वचन-काय और कृत-कारित अनुमोदना.से ग्रस जीवो को मारना स्थूल हिंसा कहलाती है । उसके त्याग करने वाले के प्रथम अहिंसाणुव्रत होता है । इस प्रतिमा का धारी यद्यपि स्थावर जीवो की हिंसा का त्यागी नही होता है तथापि स्थावर हिंसा से उसका दिल कांपने लगता है जिससे वह व्यर्थ स्थावर हिंसा भी नही करता है।
छेदन, वधन, पीडन, अतिभारारोपण और भोजनपान निरोध ये ५ अहिंसाणुव्रत के अतिचार होते हैं । जो इस प्रकार है
(१) दुर्भावना से प्राणियो के शरीर के अवयवो को छेदन करना छेदन अतिचार कहलाता है। आभूषण पहनाने के अभिप्राय से वच्चा-बच्ची के कान-नाक का छेदन करना अतिचार नहीं है।
(२) रस्सी, सांकल आदि से किसी प्राणी को दुख देने की भावना से बांधना वधन अतिचार है। किसी पागल आदि को बांधना अतिचार नहीं है, क्योकि उसमे बांधने वाले की दुर्भावना नही है। पालतू पशुओ को ढीला बांधना चाहिये जिससे उनको कष्ट न हो। वांधने का ढग ऐसा हो कि आग लगने आदि विपद काल मे वे स्वय छूट कर अपनी रक्षा कर सके।
(३) दुर्भावना से बेत, चाबक आदि से किसी प्राणी को चोट पहुँचाना पीडा नामक अतिचार होता है। शिक्षा देने के लिये अगर मास्टर उद्दड विद्यार्थी को चपेट आदि से हलकी ताडना देता है तो वह अतिचार नहीं है।